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महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
लेना। विपर्यय क्लिष्ट वृत्ति है। यदि प्रत्यक्ष प्रमाण के आसार उपलब्ध हो जाएं तो बोधि के द्वार उद्घाटित हो सकते हैं।
चित्त की एक सबसे भयंकर और खतरे से घिरी वत्ति है --विकल्प। विकल्प शब्द का अनुयायी होता है। वास्तव में जिसका विषय ही नहीं है वही विकल्प है। शब्द के आधार पर पदार्थ की कल्पना करने वाली जो चित्त-वृत्ति है, वह विकल्प वृत्ति है। विकल्प ही स्वप्न बनते हैं। जिसका न कोई तीर है, न तुक्का, कोई ओर है, न छोर, उसे दिमाग में चलते रहने देते हो तो यह मनुष्य के लिए अशान्ति और बेचैनी भरा कोलाहल बन जाता है।
आदमी सिर्फ रात में ही सपने नहीं देखता. दिन में भी स्वप्न-भरी पहाडी पगडंडियों पर विचरता है। दिन में स्वप्न विकल्प बन जाते हैं और रात में वही विकल्प स्वप्न के पंख पहन लेते हैं। स्वप्न तो दिन में भी देख रहे हो, पर आंखें रोजमर्रा की जिन्दगी में इस तरह लगी हैं कि वे स्वप्न नहीं देख पातीं। वे स्वप्न दबे हुए स्वप्न है। रात को जब खाट पर आराम से सोते हो तब वे फुर्सत के क्षणों में स्वप्न की साकारता ले लेते हैं।
यही कारण है कि वृत्तियों में प्रमुख वृत्ति विकल्प ही मानी जाती है। जो निर्विकल्प हो गया वह सिर्फ विकल्पों से ही मुक्त नहीं हुआ, अपितु वृत्ति-यात्रा से ही शून्य हो गया, क्योंकि आखिर चाहे प्रमाण-वृत्ति हो या विपर्यय सब विकल्प ही है।
विपर्यय-वृत्ति में विद्यमान वस्तु के स्वरूप का विपरीत ज्ञान होता है और विकल्प-वृत्ति में वस्तु का तो कहीं कोई अता-पता ही नहीं होता। सिर्फ शाब्दिक कल्पना के ताने-बाने गंथे जाते हैं। कैसा मधुर व्यंग्य है कि नग्नता के लिए भी चर्खे पर सई काती जा रही है। विकल्प केवल संसार के ही नहीं होते, संन्यास के भी होते हैं।
कई बार लोग मुझे कहते हैं कि हमें ध्यान में आज अमुक तीर्थ या तीर्थ की मूर्ति के दर्शन हुए। यह ध्यान की प्राथमिक उपलब्धि है पर आखिरी उपलब्धि नहीं। यह अक्लिष्ट विकल्प की अभिव्यक्ति है। ध्यान में कोई भगवान या देवी-देवता की मूर्ति दिखाई देती हो तो यह वही देख रहे हो, जिसे पहले देख चुके हो। ध्यान से यदि कुछ प्रकट होता है तो वह मूर्ति के रूप में नहीं, अपितु भगवत्ता के रूप में आत्मसात् होता है। ध्यान की मंजिल के करीब पहुँचत-पहुँचते तो साधक गुरु, ग्रंथ और मूर्ति तीनों के पार चला जाता है। जब चेतना स्वयं ही परमात्म स्वरूप बन रही हो, तो वह मंदिर-मस्जिद की आँख-मिचौली नहीं खेलेगा। उस देहरी पर जो होगा, वास्तविक होगा। जैसा होगा, जीवन होगा। फिर हवा के कारण पेड़ के पत्ते नहीं झूमेंगे, वरन् अपनी जीवन्तता के कारण झमेंगे। अपने बनाये या किराये पर लिये हुए उधार खाते के विकल्पों से ऊपर उठे। जितना देखा और जितना जाना, उसका सागर-मंथन करें और फिर सार को गहि रहें और थोथे को फेंक दें।
चित्त की एक और कही जा सकने योग्य वृत्ति है, और वह है मूर्छा। पतंजलि जिसे निद्रा कहते हैं, वह मुर्छा बेहोशी है। बेहोशी में किया गया पुण्य भी पाप का कारण बन सकता है और होशपूर्वक किया गया पाप भी पुण्य की भूमिका का निर्माण कर सकता है। प्रश्न न तो Jain Education International For Private & Personal Use Only
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