Book Title: Sramana 1993 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 60
________________ 38 शीलदूतम् १११. चतुरा का उपर्युक्त वचन सुन कर स्थूल-भद्र ने फिर कोशा से कहा -- हे सुन्दर भौहो वाली आर्ये ! यदि तुम तीर्थकर- द्वारा उपदिष्ट धर्म को स्वीकार कर लो तो इस विशाल भू-तल पर सम्पूर्ण युवतियों में किसी एक में भी तुम्हारी सुन्दरता की समानता नहीं रहेगी। तुल्यं स्त्रैणं तृणमपि च मे शुद्धशीलप्रभावात् प्रागासीना भवति भवती येषु येष्वासनेषु। नेहे ब्रहमवतकृतरतिस्तन्वि ! तत्रासितुं तत पूर्व स्पृष्टं चदि किल भवेदंगमेभिस्तवेति ।।११।। ११२. शुद्ध चारित्र्य के प्रभाव से मेरे लिये स्त्रियों का समूह और तण (दोनों) तुल्य हैं। (अतः ) "इनके (आसनों) द्वारा तुम्हारे (स्थूल भद्र के) अंग का स्पर्श हो चुका है।" यह सोच कर पहले तुम जिन-जिन आसनों पर बैठ चुकी हो उन पर ब्रह्मचर्य--व्रत में अनुराग रखने वाला मैं बैठ नहीं सकता हूँ। चातुर्मास्यं समजनि शुभे ! पूमितत्सुखेन त्वद्गेहे मे समभवदहो ! शीलहानिर्न काचित्। यायां पादानथ निजगुरोर्वन्दितुं कर्मनाशे फरस्तस्मिन्नपि न सहते संगमं नौ कृतान्तः ।।११३ ।। ११३. हे श्रेष्ठे ! तुम्हारे घर में यह चातुर्मास बड़े सुख से व्यतीत हो गया। हर्ष है, मेरी कोई भी शील-हानि नहीं हुई। अब मैं अपने गुरु- चरणों की वन्दना करने के लिये जाऊंगा। कर्म-क्षय होने पर भी यह कठोर सिद्धान्त हम दोनों का मिलन नहीं सहन करता। धर्म तावद् भजतु भवती वीतरागप्रणीतं दानं शीलं तप इह शुभो भाव एवं प्रकारम्। गन्तव्यं वै सतन । मयका प्रावषोऽहानि नीत्वा दिक्संसक्तप्रविरलधनव्यस्तसूर्यातपानि ।।११४।। ११४. हे सुन्दर शरीर वाली ! इस संसार में वीत-राग तीर्थकर द्वारा प्रापित दान, शील, तप और भाव- रूप धर्म को स्वीकार करो। जिनमें दिशाओं में संलग्न घने मेघों के द्वारा सूर्य का आतप तिरोहित हो जाता है, उन वर्षा के दिनों को बिता कर मुझे चला जाना है। ज्ञाते धर्मे जिननिगदिते तेऽपि नो भावि दुःखं मुग्धे। तस्मादिह परभवे लप्स्यसे त्वं च सौख्यम्। अस्मध्वेतो जिनमतगतं नाSभजत् क्वापि दुःखं गाढोष्माभिः कृतमशरणं त्वद्वियोगव्यथाभिः ।।११५।। ११५. मुग्धे ! तीर्थकर-द्वारा उपदिष्ट धर्म को जान लेने पर तुम्हें भी दुःख नहीं होगा। जिनधर्म के आचरण से तुम इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त करोगी। प्रगाढ़ ऊष्मा वाली For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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