Book Title: Sramana 1993 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 64
________________ शीलदूतम् १२८. जिन- मत में अनुरक्त वह कोशा भी सम्यक् शील की आराधना कर मानो पति के विशेष स्नेह के कारण शीघ्र स्वर्ग गई और वहाँ उस ने आपत्ति और संकट से शून्य सुख प्राप्त किया । वास्तव में जैन धर्म प्राणियों को इस लोक और परलोक के सुख का उपदेश देता है। तारायन्ते ततमतिभृतोऽप्यन्यतीर्थ्या इदानीं विश्वे विश्वे खलु यदमलज्ञानभानुप्रभायाम्। सोऽयं श्रीमानवनिविदितो रत्नसिंहाख्यसरि जर्जीयाद् नित्यं नृपतिमहितः सत्तपोगच्छनेता ।।१२६ ।। १२६. इस समय सम्पूर्ण विश्व में जिन के विमल ज्ञान- सूर्य के प्रकाश में ज्ञान का विस्तार करने वाले भी अन्य तीर्थ (मत, सम्प्रदाय) तारों जैसे लगते हैं, वे नरपति-पजित. भमण्डल में विख्यात सत्तपोगच्छ के नेता ( संचालक ) श्री रत्नसिंह नामक सूरि सदा जीवित रहे। शिष्योऽमुष्याऽखिलबुधमुदे दक्षमुख्यस्य सूरेश्चारित्रादिर्धरणिवलये सुन्दराख्याप्रसिद्धः। धके काव्यं सुललितमहो ! शीलदूताभिधानं नन्द्यात् सार्ध जगति तदिदं स्थूलभद्रस्य कीया॑ ।।१०।। १३०. हर्ष है, उन विद्वद्वरेण्य सूरि के चारित्र सुन्दर नाम से पृथ्वी में प्रसिद्ध शिष्य ने सभी विद्वानों के मोद के लिये शील- दूत नामक ललित काव्य की रचना की। यह स्थूल- भद्र की कीर्ति के साथ जगत् में सबको आनन्दित करे। दंगे रंगैरतिकलतरे स्तम्भतीर्थाऽभिधाने वर्षे हर्षाज्जलधिभुजगाऽम्भोधिचन्द्रे प्रमाणे। चक्रे काव्यं वरमिह मया स्तम्भनेशप्रसादात् सभिः शोध्यं परहितपरैरस्तदोषैरसादात् ।।१३१ ।। १३१. मैने आमोद-प्रमोद के कारण अति मनोहर स्तम्भन तीर्थ नामक नगर में स्तम्भनेश्वर की कृपा से १४८४ संवत् में सहर्ष इस श्रेष्ठ काव्य की रचना की। यह दोष-रहित परोपकारी सज्जनों के द्वारा सरलता-पूर्वक (थकावट के बिना) शोध्य है। - विश्वनाथ पाठक, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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