Book Title: Sramana 1993 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 58
________________ 36 शीलदूतम् यास्यत्यूरुः सरसकदलीस्तम्भगौरश्चलत्यम् ।।१०३ ।। १०३. हे सुभग ! आप के प्रसन्न हो जाने पर आनन्दित हो जाने वाली इस कोशा का सुन्दर छवि से पूर्ण एवं पर्याप्त मुदित मुख शीघ्र विकसित किरणों वाले मेघमुक्त चन्द्रमा की प्रशंसनीय शोभा को जीत लेगा, और नवीन कदली-स्तम्भ के समान गौर वर्ण इस की जाँघ फड़क उठेगी। दुःखक्षामा न खलु सहते बाढमाश्लेषमेषा माहुभ्यां सदय ! मनसीदं स्वकीये विचार्य। कार्षीदस्या। प्रथममलिने मा भवान् स्नेहवत्याः सद्यः कण्ठच्युतभुजलताग्रन्थि गाढोपगूढम् ।।१०४।। १०४. हे दयालु ! "यह दुःख से क्षीण कोशा मेरी भुजाओं का सुदृढ़ आलिंगन नहीं सह सकती है।" यह अपने मन में पहले विचार कर इस स्नेहवती का ऐसा प्रगाढ़ आलिंगन न करें, जिससे आप के गले में पड़ी हुई इस की बाहुलता की ग्रन्थि तुरन्त छूट जाये। त्वामायातं शयनसदने वीक्ष्य लज्जाऽन्वितांगी नो कुच्चेित तव सुहृदय ! स्वागतं सा सखी नः । स्नेहस्निग्धैर्मधुरवचनैराधिमुग्भिस्तदानीं वक्तुं धीरः स्तनितवचनैर्मानिनी प्रक्रमेयाः ।१०५।। १०५. हे शोभन- हृदय ! आप को शयन-कक्ष में आया देखकर वह लज्जा से युक्त अंगोवाली हमारी सखी यदि स्वागत न कर सके तो उस समय धैर्य धारण कीजियेगा और मानसिक सन्ताप को दूर करने वाली, प्रेम-भरी एवं मेघ-गर्जना के समान मधुर वाणी में उस मानिनी से संभाषण प्रारम्भ कीजियेगा। किं काठिन्यं त्यजति न भवानागतोऽपि स्वगेहे स्वीयां जायां न हि निजदशा स्नेहतो वीक्षतेऽपि? प्रावटकालो रचयति मनांस्यध्वगानामयं द्राग मन्द्रस्निग्धनिभिरबलावेणिमोक्षोत्सुकानि ।। १०६ ।। १०६. आप अपने घर में आकर भी कठोरता को क्यों नहीं त्यागते हैं और अपनी स्त्री को भी स्नेह-भरी आखों से नहीं देखते हैं ? यह वर्षाकाल गम्भीर मधुर गर्जना से शीघ्र ही पथिकों के मन को स्त्रियों के केशपाश खोलने के लिये उत्सुक बनाता है। मान्या तेऽहं सुभग ! सततं वच्मि तेनैव बाट वाक्यं मे तत परिणतिशुभं मानयेदं वदान्य ! मत्तो ज्ञात्वा व्यतिकरममुं लप्स्यते निर्वृति सा कान्तोदन्तः सुहृदुपहृतः संगमात् किंघिदूनः ॥१०७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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