Book Title: Sramana 1993 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 59
________________ 37 १०७. हे सुभग ! मैं सतत आप के द्वारा मान्य थी निःसन्देह इसी से मैं कह रही हैं। तो मेरा परिणाम में शुभ फल देने वाला यह वचन मान लीजिये। हे वदान्य ! (उदार ) उस वृत्तान्त को जान कर वह आनन्द प्राप्त करेगी क्योंकि मित्र से सुना हुआ प्रिय का वृत्तान्त संगम (संभोग) से थोड़ा ही कम होता है। स्वामिन् ! जानन्नपि नयविधि प्रोक्तवानन्यदन्यत् क्षेमप्रश्न किमिति न भवानेकवारं धकार ? विश्वेऽप्यस्मिन् खलु सुखभृतामप्यहो ! दैववश्ये पूर्वाभाष्यं सुलभविपदां प्राणिनामेतदेव ।।१०।। १०८. हे स्वामी ! यह आश्चर्य है कि नीतिशास्त्र को जानते हुये भी आप दूसरी-दूसरी बातें ही कह रहे हैं। एक बार भी कुशल-क्षेम का प्रश्न नहीं किया। इस दैवाधीन जगत् में सुखी जीवों के लिये भी सर्व-प्रथम कुशल-क्षेम ही प्रष्टव्य है, फिर विपदापन्न व्यक्तियों की तो बात ही क्या गेहस्याऽन्तव्रजति न भवान भाषते नाऽपि पत्नी सौधेऽपि स्वे वसति परवद् नो भजत्युग्रभोगान्। लप्स्ये स्वर्गे सुखमिति वृथा चिन्तितैस्तीवकृष्ठः संकल्पैस्तैर्विशति विधिना वैरिणा रुद्धमार्गः ।।१०।। १०६. वैरी विधाता के द्वारा मार्ग अवरुद्ध हो जाने के कारण आप न तो घर के भीतर जाते हैं, न पत्नी से बात करते हैं और न श्रेष्ठ भोगों का उपभोग करते हैं। अपने प्रासाद में भी दूसरे की तरह रहते हैं। "सोचे गये उन शारीरिक तपों से स्वर्ग में सुख प्राप्त करूँगा।" इस प्रकार के संकल्पों के द्वारा व्यर्थ स्वर्ग में प्रवेश कर रहे हैं। प्राता नस्त्वं सुभग ! शरणं जीवितव्यं त्वमेव त्वं नः प्राणा हृदयमसि नस्त्वं पतिस्त्वं गतिर्नः । ज्ञात्वाऽपीत्वं प्रिय ! परिहरन् नो न किं लज्जसे सा? त्वामुत्कण्ठातरलितपदं मन्मुखेनेदमाह ।।११०।। ११०. उस (कोशा) ने उत्कंठा से कम्पित शब्दों में मेरे मुख से इस प्रकार आप से कहा है -- "हे सुभग ! आप ही हमारे रक्षक है, आप ही शरण हैं, आप ही हमारे जीवन हैं, आप ही हमारे प्राण हैं, आप ही हमारे हृदय हैं, आप ही हमारे पति है और आप ही हमारी गति है, इस प्रकार जान कर भी क्या प्रियतम ! तुम्हें लज्जा नहीं आती ?" श्रुत्वा साधुस्तदुदितमयोवाच कोशां स भूयो धर्म श्रीमज्जिननिगदितं घे भजेथास्त्वमार्ये ! चातुर्येणाऽखिलयुवतिषु मातले तद्विशाले हन्तैकस्थं क्वचिदपि न ते सुभ्र ! सादृश्यमस्ति ।।११।। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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