Book Title: Sramana 1993 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 61
________________ तुम्हारी वियोगव्यथाओं से असहाय हो जाने पर भी जिनमत में स्थित मेरा मन कभी दुःखी नहीं हुआ। जैने धर्मे कुरु निजमतिं निश्चला तन्धि । नित्यं शीले घेहीहितसुखकरं देहि दानं गुणिभ्यः । पापव्यापव्यतिकरजुषां धर्मभाजांघ पुंसां नीर्गच्छत्युपरि घ दशा धक्रनेमिक्रमेण ।।११६ ।। ११६. हे कृशांगि ! जैन धर्म में अपनी बुद्धि को स्थिर करो। मनोवांछित सुख देने वाले शील में मन लगाओ और गणियों को दान दो। पापियों और धर्मात्मा पुरुषों की दशा गाड़ी के पहिये की तरह ऊपर और नीचे आती जाती रहती है। शुद्धिं भद्रे ! रघय तपसा स्वस्य तेनात्मनस्त्वं दृष्टा क्लुप्तं मुनिभिरतुलं यद् वनस्थैस्त्रिशुद्धया। हर्षेणोच्चैर्दिवि दिविषदां पुष्पवृष्टया समं साग मुक्तास्थूलास्तरकिशलयेष्वश्रुलेशाः पतन्ति ।।११७।। ११७. भद्रे उस तप से तुम अपने आत्मा की शुद्धि करो। वन में रहने वाले मुनियों ने मन, वाणी और शरीर की शुद्धि के द्वारा जो अतुल तप किया है उसे देख कर हर्प से आकाश में स्थित देवताओं की पुष्प-वृष्टि के साथ-साथ सहसा वृक्षों के नवपल्लवों पर बड़े-बड़े मोती जैसे अश्रु-बिन्दु टपक पड़ते हैं। कोशा प्रोचे प्रिय । विगलिता साऽध मे भोगतृष्णा वाक्यैरेभिस्तव हदि निजे या गयेत्यं धृताऽभूत्। आवां भूयो विरहविगमे भोगभंगी विचित्रां निर्वेक्ष्यावः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु।।११।। ११८. कोशा ने कहा -- हे प्रिय ! मैने अपने हृदय में जिस भोग-तृष्णा को इस प्रकार धारण कर रखा था कि विरह की समाप्ति पर हम दोनों शरत्काल की पूर्ण चन्द्रिकाओं वाली रातों में पुनः विचित्र भोग-भंगिमाओं का आनन्द लेंगे, वह आज आप के इन वचनों से नष्ट हो गई। स्वामिन् ! धर्माऽमृतरसमयं देहि दिव्यौषधं तद् येनायं मे तुदति न मनो मन्मथाख्यो विकारः। त्वद्वाक्येनोज्झितविषयया यदशादद्य रात्री दृष्टः स्वप्रेऽकितव ! रमयन कामपि त्वं मयेति ।।११।। ११६. हे स्वामी ! धर्मामतमय वह दिव्यौषध दें जिससे वह काम नामक विकार मेरे मन को पीडित न करें, जिसके वश में होने के कारण हे निश्छल! तुम्हारे कहने से विषयों को त्याग देने वाली मैंने आज स्वप्न में तुम्हें किसी रमणी से रमण करते देखा है। इत्युक्तोऽसौ घरणनतया कोशया भक्तिपूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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