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EO, हे सुन्दर शरीर वाली ! मेरा अज्ञान शीघ्र गलित हो गया, मोह की भूर्च्छा भी नष्ट हो गई है, मेरा वह चित्त क्षणभर में निर्विकार हो गया है। अतः मृत्यु की बहन वृद्धावस्था के द्वारा ग्रस्त किया जाता हुआ अपना शरीर तुषार से ध्वस्त कगलिनी के समान रूपान्तर को प्राप्त मानता हूँ ।
तस्मिन्नेवं वदति चतुरोवाच तस्या वयस्या जातं किं तं सुभग ! हृदयं निर्दयं बाढमेतत् ? पश्याऽस्यास्त्वं तव विरहतो वक्त्रमभ्रास्तदीप्तेरिन्दोर्दैन्यं त्वदनुसरणक्लिष्टकान्तेर्बिभति । । ६१ ।।
हे
६१. स्थूलभद्र के इस प्रकार कहने पर कोशा की चतुरा नामक सखी ने कहा सौभाग्यशाली ! आप का हृदय दया-विहीन हो गया है, क्या यह उचित है ? देखें, आप के अनुसरण से क्षीण कान्ति वाली इस कोशा का मुख उस चन्द्रमा के समान दयनीय दशा को प्राप्त हो गया है जिस की दीप्ति मेघों ने समाप्त कर दी है।
६३. सुभग ! यह मुझ से कहती थी जब यह तुम्हारा गीत भूल जाती थी ।
एषाऽनैषीत् सुभग ! दिवसान् कल्पतुल्यानियन्तं कालं बाला बहुलसलिलं लोचनाभ्यां सवन्ती । अस्थाद्दुस्था तव हि विरहे गामियं वार्त्तयन्ती कथ्विद्भर्तुः स्मरसि रसिके ! त्वं हि तस्य प्रियेति ।।२।।
८२. हे सुभग ! लोचनों से अत्यधिक आँसू बहाती हुई इस कोशा ने कल्प के समान दिनों को इतने समय तक बिताया है। आप के विरह में "रसिके ! क्या तू स्वामी का स्मरण करती है ? तू तो उन्हें बहुत प्रिय थी।" इस प्रकार मुझ से कहती हुई यह कठिनाई से (जीवित) रह सकी है।
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मूर्च्छन्ति सा सुभग ! रुदती वारिता दीननादं
प्रातः सायं सखि ! वद कदाऽसौ समेतेत्यवग् माम् ।
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लातुं वेलां तव सुललितं गीतमुद्गातुकामा
भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्च्छनां विस्मरन्ती ।। ८३ ।।
प्रातः - सायं मूर्च्छा के अन्त में आर्त-स्वर में रोने लगती थी और रोकने पर "सखि ! बताओ, वे कब आयेंगे ।" ( दुःख में) अवकाश पाने के लिये गाना चाहती थी तब बार-बार किये हुये आरोह और अवरोह को स्वयं
पृष्टा पृष्टा गणकनिचयं जीवितं धारयन्ती नीत्वा नीत्वां कथमपि दिनान्यंगुलीभिर्लिखन्ती । गत्वा गत्वा पुनरपि पुनद्वारि तस्थौ व गेहे प्रायेणैते रमणविरहेष्वंगनानां विनोदाः । । ६४ ।।
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