Book Title: Sramana 1993 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 18
________________ वृत्ति : बोध और निरोध पाप का है, न पुण्य का । महत्त्व सिर्फ होश और जागरूकता का है। जहाँ जागरूकता है, वहाँ चैतन्य की पहल है। यह जागरूकता ही "यतना" है, यही विवेक है और यही सम्बोधि है । जागृति धर्म है और निद्रा अधर्म । धार्मिक जगे, क्योंकि उसका जगना ही श्रेयस्कर है। भगवान् अधार्मिकों को सदा सुलाये रखे, क्योंकि इसी में विश्व का कल्याण है । जिस दिन अधार्मिक जगा, उस दिन खुदा की नींद भी हराम हो जाएगी और यह कहते हुए खुद विधाता को धरती पर आना होगा यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। इसलिए आत्म- जागरण ही धर्म का प्रास्ताविक है और यही ध्यान-योग का उपसंहार भी । जहाँ सम्राट भरत और नरेश जनक जैसी अनासक्ति तथा अन्तर्जागरूकता है, वहाँ गृहस्थ - जीवन में भी संन्यास के शिखर चरण-चेरे बन जाते हैं। चित्त की एक और वृत्ति है स्मृति । यही तो वह वृत्ति है, जिसके चलते जीवन का अध्यात्म पेंडुलम की तरह अधर में लटका रहता है। जीवन वर्तमान है, पर जो लोग जीवन को स्मृति के कटघरे में ही खड़ा रखते हैं, वे या तो अतीत के अन्धे कूप में गिरे रह कर काले पानी में गल - सड़ जाते हैं और या फिर भविष्य के अन्तरिक्ष में कल्पनाओं के धक्के के कारण अनरुके चक्कर लगाते हैं। शाश्वतता तो न केवल अतीत और भविष्य से अपना अलग अस्तित्व रखती है, अपितु वर्तमान की चुगलखोरी से भी मुक्त है। अतीत, वर्तमान या भविष्य जैसे शब्द शाश्वतता के शब्द-कोश में नहीं आते। उसके साथ न कभी "था" का प्रयोग होता है और न कभी "गा" का। उसके लिए तो सिर्फ "है" का प्रयोग होता है। अतीत में भी और भविष्य में भी । 1 चित्त की वृत्तियाँ चंचल हैं, लक्ष्मी की तरह नहीं, अपितु लक्ष्मी से भी ज्यादा चंचल हैं। मौसम की तरह नहीं, अपितु मौसम से भी बढ़ कर । तुम देख रहे हो सागर की तरंगें और से देख रहा हूँ हवा की लहरें, पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि चित्त का अश्व हवा से ना ज्यादा खूंदी करता है । अभ्यास- वैराग्याभ्यां तन्निरोधः । किन्तु अभ्यास और वैराग्य से चिल की वृत्तियों का निरोध संभव है । चित्त की स्थिरता के लिए प्रयत्न करना अभ्यास है तथा देखे और सुने हुए विषयों का उपभोक्ता होने के बजाय द्रष्टा हो जाना, उन्हें पाने की आशा और स्मृति से रहित हो जाना वैराग्य है। जहाँ वैराग्य है और अभ्यास भी है, वहाँ योग के अन्तर -द्वार स्वतः उघड़ने लगते हैं । आइये, वहाँ तक चलें, क्योंकि वहाँ हमारी प्रतीक्षा है । श्री जितयशा श्री फाउंडेशन, 9-सी, एस्प्लनेड रो ईस्ट, कलकत्ता - 700069. For Private & Personal Use Only १६ Jain Education International www.jainelibrary.org

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