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शीलदूतम्
४२. हे तत्त्वज्ञ-हृदय ! यदि आप को मन्त्रिपद प्रिय नहीं लगता है, तो वाणिज्य के द्वारा दान
और भोग सम्पादन में समर्थ धन का अर्जन कीजिये। इस से पिता के बरा गोद में सौपे गये स्वजनों की रक्षा कीजिये क्योंकि जो अच्छे मित्र होते हैं उनके द्वारा अंगीकृत उपकार के कार्य कभी शिथिल नहीं होते हैं।
पूर्वः पूर्वे मम खलु समे मानिता यस्य पूर्व तन्मान्योऽसौ सचिवतनयो मे जिघृक्षुस्तपस्याम् । मत्वा नन्दो नृप इति चिरं त्वाऽनुनेतुं प्रमोदात्
प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पाभ्यसूयः ।। ४ ।। ४३. "मेरे पूर्वजों के द्वारा इस (स्थूलभद्र) के पूर्वज सम्मानित थे इसलिये तपस्या ग्रहण करने का इच्छक यह मेरे मन्त्री का पुत्र सम्मान्य है।" यह मान कर राजा नन्द ने प्रसन्नता-पूर्वक तुम से मन्त्रिपद ग्रहण करने के लिये चिरकाल तक आग्रह किया किन्तु वह पद अस्वीकार कर देने पर वह ( नन्द) विमुख होकर तुम से रुष्ट है।
दीक्षामेषा तव सुरनदी वारयत्यूमिरावैः पश्य स्वामिन् ! बहुपरिचिता प्रेयसीवेयमुच्चैः । अस्याः शस्याशयरयकृतान्यहसि त्वं न विदन !
मोघीकर्तु घटुलशफरोक्तनप्रेक्षितानि ।। ४४।। ४४. हे स्वामी । देखिये, बहु-परिचिता प्रेयसी के समान यह गंगा अपनी ऊंची तरंग-ध्वनियों से आप को दीक्षा लेने से विरत कर रही है। पवित्र मन की उत्कंठा से किये गये इस के चंचल शफरों (मत्स्य-विशेष ) के उच्छलन (उछलना) रूपी दृष्टिपात को व्यर्थ न कीजिये।
कान्तावाचा विरकृतमहो ! प्रोज्य चारित्ररत्नं भेजे भोगान् सुभग ! विततानाद्रपूर्वः कुमारः। सोऽस्थाद गेहे प्रिय ! जिनमितान वत्सरान स्नेहतो वा
ज्ञातास्वादो विपुलजघनां को विहातुं समर्थः ? ॥४५॥ ४५. हे सुभग ! हे प्रिय ! प्रियतमा के कहने से आद्र कुमार ने चिर-काल से पालन किये गये
बहुमूल्य चारित्र्य को छोड़कर विपुल भोगों का सेवन किया था। वह प्रेम से चौबीस वर्षों तक .. घर में रह गया। कौन रसिक पुरुष विपुलजघना विलासिनी रमणी का त्याग कर सकता है ?
सूदक ततिपय ! मम वचो मानयित्वा गृहे स्वे तारुण्यं त्वं नय विनयतः प्रार्थ्यमानः प्रियाभिः । वर्षाकाले तव विहरतः शर्मकर्ता वनान्तः
शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम् ।।४।। ४६. अतः शुभ परिणाम वाले मेरे वचन को मान कर विनय- पूर्वक प्रियाओं से प्रार्थित होते हुये आप युवावस्था व्यतीत करें। वर्षाकाल में जब वन में विहार करेंगे तब वन्य उदुम्बरों (गूलरों) को पकाने वाला शीतल पवन आप को सुख देगा।
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