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शीलदूतम्
क्रीडाशैलं प्रिय ! भज निजं तं विनोदाय यस्मिन् शब्दायन्ते मधुरमनिशं कीघका वायुयोगात्। नादशस्याऽलामिव तव सत्किन्नरीगीतनृत्यैः
संगीतार्थो ननु पशुपतेस्तत्र भावी समयः ।।६।। ६०. हे नाथ ! विनोद के लिये अपने उस क्रीडा- पर्वत का सेवन कीजिये जहाँ वायु के संयोग से कीचक नामक छिद्रयुक्त बाँस सतत ध्वनित होते रहते हैं। (वहाँ) शिव के समान नाद के विशेषज्ञ आप के संगीत के सभी अंग किन्नरियों के सुन्दर गीतों और नृत्यों से पूर्ण हो जायेंगे।
हित्वा स्वादिं जिनपतिमहाचैत्यपूते प्रभूते स्त्रीभिः सा विबुधनिधया यत्र खेलन्ति नाथ ! तिर्यग्व्याप्यजनगिरिरिवानं गतो माजते यः
श्यामः पादो बलिनियमनाऽभ्युद्यतस्येव विष्णों ।। ६१।। ६१. हे नाथ ! बहुत से जिन-मन्दिरों से पवित्र जिस क्रीडा- पर्वत पर देवगण सुमेरू पर्वत को छोड़ कर स्त्रियों के साथ विहार करते है और जो अंजन-गिरि के समान तिर्यक् (तिरछा ) फैल कर आकाश में पहुँच गया है वह (क्रीडापर्वत) बलि को नियन्त्रित करने के लिये उद्यत विष्णु के श्यामल चरण के समान दीप्त हो रहा है।
शैले लीलागृहमिह महत् कारितं तेऽस्ति पित्रा तस्मिन् वासं कुरु वर ! विरं घेद्रति! तवाऽत्र। श्वेतज्योतिः स्फटिकमणिभिनिर्मितं भ्राजते य
द्राशीभूतः प्रतिदिनमिव त्र्यम्बकस्याट्टहासः ।। ६२।। ६२. हे पतिदेव ! यदि यहाँ आप का मन नहीं लगता है तो इस शैल पर आपके पिता के द्वारा बनवाया हुआ महान् लीला-गृह है, उस में निवास कीजिये। वह स्फटिक मणि से निर्मित श्वेतकान्ति भवन ऐसा लगता है जैसे शिव के प्रत्येक दिन के अट्टाहास का देर लग गया हो।
त्वय्यास्टे रजतरचितं सारमुच्चैर्गवाक्षं देहच्छायाजितहरिरुचा घारु कृत्वा विनोदान्। पश्यत्वेष प्रिय ! परिजनः साध सोधस्य शोभा
मंसन्यस्ते सति हलभृतो मेचके वाससीव ।। ६३ ।। ६३. नाथ ! देह की कान्ति से विष्णु की छवि को जीतने वाले आप जब सुन्दर विनोद करके रजतरचित श्रेष्ठ गवाक्ष (खिड़की) पर आरुढ होंगे तब ये परिजन बलराम के कन्धे पर न्यस्त नीलाम्बर के समान प्रासाद की उत्तम शोभा देखेंगे।
तस्मिन्नद्रौ भवभयहरं नाभिजन्मानमीशं नत्वा देवं तदनु सुभगाSSलोकयेः कौतुकानि।
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