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४. वे स्थूलभद्र भी सूरि ( भद्रबाहु ) के मनोहर उपदेशामृत का पान कर निर्मल हृदय हो गये उन्होंने स्वयं आये हुये उन गुरु से प्रसन्न होकर प्रीतिपूर्वक यों कहा आप के निर्दोष एवं सद्यः सुखद चरणकमलों में प्रणत हुआ धन्य मानता हूँ ।
मुनिश्रेष्ठ ! मैं जो इस से निश्चय ही अपने को
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कामान्धोऽहं तदिह बहुधा कर्म मोहादकांर्ष जानात्यन्यो न हि जिनपतेर्यद्विपाकं मुनीश ! । यावज्जैनीं वचनरचनां वा न विन्दन्ति तावत् कामार्त्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाऽ घेतनेषु ।। ५ ।।
५. हे मुनिराज ! काम से अन्धा हो कर मैंने मोहवश वे अनेक कुकर्म किये हैं जिन के विपाक को जिन देव के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं जानता है। जब तक काम से पीड़ित जन जिन-वाणी को नहीं जानते हैं तब तक वे चेतन और अचेतन के स्वरूप के विषय में अनभिज्ञ
रहते हैं ।
जाने युष्मान् जिनपतिसमान् ज्ञानदानप्रवीणान् रणोऽमुष्मादनणुभवतो भावविद्वेषिजेतृन् ।
याचे तस्माच्चरणशरणं क शरण्याः ! रणघ
यात्रा मोघा वरमधिगुणे नाऽधमे लब्धकामा । । ६ ॥
६. हे आश्रय देने वाले ! चेतन और अचेतन के ज्ञान से वंचित मै आप को भी जिन-देव के समान ज्ञान देने में दक्ष, महान् एवं राग-द्वेपादि मनोभावों का विजेता मानता हूँ । अतः संसार रूपी कर्म-रण को जीतने वाले श्री चरणों की शरण चाहता हूँ, क्योंकि गुणी से निष्फल याचना भी नीच से सफल याचना की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर है।
कृत्वा लोचं शिरसि सहसा पंचभिर्मुष्टिभिः स्वैलत्वा दीक्षां गुरुवचनतः सैष शिक्षामवेत्य । गुवदिशादथ निजपुरीमागमत्तां यतिर्या बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या ।। ७।।
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७. अपनी पंचमुष्टियों से शीघ्र ही शिरके के केशों का लोच कर गुरू- मुख से दीक्षा और शिक्षा प्राप्त कर, गुरू (भद्रबाहु ) के आदेश से वे यति अपने उस नगर में गये जिसके बाह्योद्यान में स्थित प्रासाद शिव के मस्तक पर स्थित चन्द्रमा की चन्द्रिका से घुले थे।
कोशा शस्यप्रकृतिरथ सा स्वप्रियं चनुयान्ती दध्यावेवं विविधवचनैरम्बया संनिषिद्धा ! तिष्ठेत् को हा! स्वगृह इह हि प्रोषिते प्राणनाथे न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यः पराधीनवृत्तिः ।। ८ ।
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