Book Title: Sramana 1993 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 16
________________ वृत्ति : बोध और निरोध जंजीर सुहायेंगी जरूर, किन्तु बाँध कर तो वे भी रखेंगी। सोने और लोहे का भेद तो मात्र मूल्यांकन का दृष्टिभेद है। आकाश में उड़ान तो तभी हो पायेगी, जब पंछी पिंजरे के सींखचों से मुक्त होगा। वृत्तियाँ क्लिष्ट भी हो सकती हैं और अक्लिष्ट भी। अक्लिष्ट वृत्तियों की रोशनी क्लिष्ट वृत्तियों के अन्धकार को जीवन के जंग-मैदान से खदेड़ने के लिये है। दूर करें अक्लेश से क्लेश को, शुभ से अशुभ को, सत् से असत् को। मृत्योर्माऽमृतंगमय -- हे प्रभो ! ले चलो हमें मर्त्य से अमर्त्य की ओर, अमृत की ओर। हम अपनी वृत्तियों का बोध प्रत्यक्ष प्रमाणों से भी कर सकते हैं, अनुमानों से भी कर सकते हैं और सद्गुरु के अमृत वचनों से भी। राग क्लिष्ट है और वैराग्य अक्लिष्ट, किन्तु वीतरागता राग और विराग दोनों का अतिक्रमण है। संसार में स्वयं की संलग्नता एवं गतिविधियों के कारण हम मानसिक तनाव को प्रत्यक्षतः झेलते हैं, किन्तु समाधि को दुःख से अतीत होने का आधार मान सकते हैं। यदि व्यक्ति अज्ञान में दिशाएँ भूल चुका है तो सद्गुरु ही उसके जीवन का सही मार्ग-दर्शन कर सकता है। जहाँ सद्गुरु का बाण किसी व्यक्ति के हृदय को बींधता है, तो भीतर की सारी रोम-राजि पुलकित हो पड़ती है। रोशनी की बौछारें बरसने लगती हैं। जीवन का चोला चन्दन की केशरिया फुहारों से भीग जाता है। गूंगा हूआ बावरा, बहरा हुआ कान। पांवा ते पंगुल भया, सद्गुरु मार्या बाण।। सदगुरु तो बाण लिये खड़ा है। उसका तो प्रयास यही है कि उसका ज्ञान का बाण किसी के हृदय को बींधे। वह बाण छोड़ता तो कइयों पर है, पर बींधते तो सौ में दो ही हैं। तुम बाण को देखते ही या तो स्वयं को पत्थर-हृदय बना लेते हो या दुबक कर लक्ष्य से स्वयं को खिसका लेते हो। उल्लू अपनी आंखों को खुला भी रखना चाहता है और स्वयं को रोशनी में ले जाना भी नहीं चाहता है। यदि वह रोशनी देखकर बिदक जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। महाज्योति को आत्मसात भी करना चाहते हो और वहाँ जाते हुए कटे अंग की तरह भय के मारे कांप भी रहे हो। मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यो अरुड़ाई रे। सद्गुरु तो समाधान की बात कह रहा है और तुम उसे उलझन समझ रहे हो। मैं कहता तू जागत रहियो तू रहता है सोई रे। सद्गुरु तो आत्म-जागृति के गीत सुना रहा है और तुम हो ऐसे, जो गीत को लोरी मान रहे हो। खाट के पलने में लला की तरह बेसुध सो रहे हो। जरा जागो, मित्र ! जरा संभलो। जब तक स्वयं कुछ न हो जाओ, तब तक वही होने दो जो सद्गुरु चाहता है। वत्ति का एक और स्थल रूप है. जिसे विपर्यय कहा जाता है। विपर्यय अज्ञान है। जो जैसा है, उसके बिल्कुल विपरीत मान लेना विपर्यय है। जैसे सीप में चाँदी का अहसास होता है। साँप रस्सी की भांति दिखायी देता है। यह मिथ्या ज्ञान है, अविद्या है, माया है। रस्सी को सर्प मानोगे तो यह अज्ञान उतना खतरनाक नहीं होगा, जितना साँप को रस्सी मानकर पकड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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