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डॉ. सागरमल जैन
किसी सीमा तक भोगवाद की ओर अधिक झुक गयी। महायान बौद्ध आचार्य अनंका वज़ कहते हैं कि चित्त क्षुब्ध होने से कभी भी मुक्ति नहीं होती अतः इस प्रकार बरतना चाहिये कि जिससे मानसिक क्षोभ उत्पन्न न हो। वासनाओं के दमन की प्रक्रिया चित्त शान्ति की प्रक्रिया नहीं है। यही कारण है कि आगे चलकर महायान में दैहिक इच्छाओं के दमन को अनुचित माना गया, यद्यपि यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि भोगमार्ग की ओर महायान का यह झुकाव उसे वाममार्ग की दिशा में प्रवृत्त कर देता है। दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति और आत्म-पीड़न की आलोचना के सम्बन्ध में महायान का दृष्टिकोण गीता के अत्यन्त निकट है। गीता का अनासक्ति योग भी भोगवाद और वैराग्यवाद की समस्या का यथार्थ समाधान प्रस्तुत करता है। यद्यपि गीता में अनेक स्थानों पर वैराग्य भाव का उपदेश है, किन्तु यह स्पष्ट है कि गीता वैराग्य के नाम पर देह-दण्डन की प्रक्रिया की समर्थक नहीं है। निष्कर्ष __ यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो स्पष्ट रूप से यह पाते हैं कि महायान सम्प्रदाय ने प्रवर्तक धर्म की अनेक अवधारणाओं को श्रमण परम्परा के अनुरूप रुपान्तरित किया है, वह उसकी अपनी मौलिक विशेषता है। गृहस्थजीवन से सीधे निर्वाण की सम्भावना को स्वीकार उसने सन्यास और गही जीवन के मध्य एक सार्थक सन्तुलन बनाया है जिसमें संन्यास का महत्त्व भी यथावत् सुरक्षित रह सका है। इसके साथ ही श्रमण संस्था को समाज-सेवा और लोकमंगल का भागीदार बनाकर श्रमण परम्परा पर होने वाले स्वार्थवादिता के आक्षेप का परिहार कर दिया है और भिक्षु संघ को समाज जीवन का एक उपयोगी अंग बना दिया है। वैदिक धर्म या गीता की अवतारवाद की अवधारणा को परिमार्जित कर श्रमण परम्परा के अनुरुप बोधिसत्त्वों की अवधारणा प्रस्तुत की। यहां हम स्पष्ट रूप से यह देखते हैं कि अवतार के समान बोधिसत्त्व भी लोकमंगल के लिए अपने जीवन को उत्सर्ग कर देता है -- प्राणियों का कल्याण ही उसके जीवन का आदर्श है। बोधिसत्त्व और अवतार की अवधारणा में तात्विक अन्तर होते हुए लोकमंगल के सम्पादन में दोनों समान रूप से प्रवृत्त होते हैं। जैनों के तीर्थंकर और हीनयान के बुद्ध के आदर्श ऐसे आदर्श हैं, जो निर्वाण के उपरान्त अपने भक्तों की पीड़ा के निवारण में सक्रिय रूप से साझीदार नहीं बन सकते हैं। अतः भक्त हृदय और मानव को सन्तोष देने के लिए जहाँ जैनों ने शासन देव और देवियों ( यक्ष-यक्षियों) की अवधारणा प्रस्तुत की, तो महायान सम्प्रदाय ने तारा आदि देवी-देवताओं की अपनी साधना में स्थान प्रदान किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि महायान सम्प्रदाय वैदिक परम्परा में विकसित गीता की अनेक अवधारणाओं से वैचारिक साम्य रखता है। प्रवृत्तिमार्गी धर्म के अनेक तत्त्व महायान परम्परा में इस प्रकार आत्मसात हो गये कि आगे चलकर उसे भारत में हिन्दू धर्म के सामने अपनी अलग पहचान बनाये रखना कठिन हो गया और उसे हिन्दू धर्म ने आत्मसात् कर लिया है। जबकि जैनधर्म निवृत्त्यात्मक पक्ष पर बराबर बल देता रहा और इस प्रकार उसने अपना अस्तित्व बनाये रखा।
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