Book Title: Shrutsagar Ank 2013 07 030
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जुलाई - २०१३ गेयपरक अभ्यर्थना स्तुति कहलाती है वह जनसामान्य के लिये सरल बन जाती है. पद्यात्मक रचनाएँ भक्तों के मन को प्रभु का स्मरण करते ही गुनगुनाने के लिये विवश कर देती हैं. जैसे शिशु अपने मनोभाव माँ से कहता है, पत्नी अपने पति से व्यक्त करती है उसी प्रकार भक्त अपने मनोगत भावों को अपनी सहजभाषा में अपने इष्टदेव से निवेदन करता है. जैसे व्यावहारिक जगत में बच्चे के हाव-भाव को देखकर माँ उसके हृदयगत भावों को समझ जाती है. उसी प्रकार भक्तों के प्रकट-अप्रकट सभी भावों को उनके इष्टदेव भी समझ जाते हैं, इस स्तवन में कवि एक शिशु की भाँति ही अपनी सारी आपबीती व सारे मनोगत भावों को माँ भगवती पद्मावती से बताने से चूकते नहीं. कवि ने अपने समर्पणभाव को किस प्रकार व्यक्त किया है, उसे गाथाक्रम-२७ में देखा जा सकता है 'ताहरं शरण करि छइ मात, तुं हि ज आई तुं हिऊ तात। आस्यां पूरइ मा ग्यां(ज्ञान)वती, नित हुं वादं पदमावती ।।७।। कुशल कवि खेमकुशल ने अपने नाम के अनुसार स्वरचित इस स्तवन में समस्त जीवमात्र के क्षेम हेतु कुशलतापूर्वक लौकिक व लोकोत्तर दोनों ही अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए अंत में माँ पद्मावती से सबके लिये आत्मकल्याण की गुहार लगाई है. कृति वैशिष्ट्य-भाषा मध्यकाल वि.१४वी से १८वी के मध्य बोली जानेवाली प्रतीत होती है. रचना ३६ छत्तीस कड़ियों में आबद्ध सरल, सुगम, माधुर्यपूर्ण व बोधगम्य है. सहायक प्रत में कुल गाथाएँ ३४ है. रचना का प्रारंभ इन तीन ॐ ह्रो श्री बीजमंत्रों के साथ किया गया है. मंत्र, यंत्र व स्तोत्र साहित्य में बीजाक्षरों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है. रचना संवत्, लेखन संवत् न होने पर भी आधार प्रति की लिखावट से १८वीं की प्रत प्रतीत होती है तो निस्संदेह समझ सकते हैं कि रचना वि.सं.१७वी के समीप की होनी चाहिये. सहायक प्रत के अंत में दी गयी प्रतिलेखन पुष्पिका बाद में लिखी प्रतीत होती है, कारण कि स्तवन व पुष्पिका के लिखावट में अंतर है. फिर भी उल्लेखित प्रतिलेखन संवत् १६१५ के उल्लेख से इतना तो समझा ही जा सकता है कि विद्वान व इनकी रचना उक्त वर्ष के पूर्व की ही होगी. अतः रचना वि.१६वी के अंत या १७वी के प्रारंभ की होनी चाहिये. कवि ने खुलकर माता के स्वरूप का जीवन्त वर्णन किया है. रचना दृष्टिपथ में आते ही एक नित्यगेय का भाव मन में समा जाता है. माता का कवि ने एक जाग्रत देवी, सच्चे (साचा)देवी के रूप में परिचय दिया है. कड़ियों के बीच में छंद व प्रास के अनुसार अलग-अलग माता के विशेषणों का यथायोग्य उपयोग किया है. कुछे उदाहरण इस प्रकार द्रष्टव्य है- गुणवती, भगवती, सानिधिवती, For Private and Personal Use Only

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