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श्रुतसागर - ३० तो किसी विशेष निमित्त को प्राप्त कर शांत भी हो सकते हैं परन्तु लोभ कषाय फिर भी शेष रहता है. लोभी व्यक्ति क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी क्रोध नहीं करता है, मानापमान की भी चिन्ता नहीं करता है. यदि कुछ प्राप्त करने की आशा हो तो वह दस गालियाँ भी सहन कर सकता है, किसी का करुण स्वर सुनकर भी उसका हृदय द्रवित नहीं होता है. लोभी व्यक्तियों के लिये यह कहा जा सकता है कि वह अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए योगियों की भांति अपनी इन्द्रियों का दमन भी कर सकता है. अर्थात् वह कुछ भी करके अपनी इच्छा पूर्ण करना चाहता है.
लोभ की निम्नलिखित अवस्थाएँ हैं- संग्रह वृत्ति, संवर्द्धन वृत्ति, इच्छा-अभिलाषा, विषयासक्ति, निश्चय से डिग जाना, इष्टप्राप्ति की इच्छा, अर्थ आदि की याचना करना, खुशामदखोरी, जीवन की कामना, तथा प्राप्त सम्पत्ति के प्रति आसक्ति.
कषाय विजय - जैन दर्शन के अनुसार कषायों का सम्बन्ध व्यक्ति के चरित्र से है. नैतिक जीवन के लिए इन आवेगों से ऊपर उठना आवश्यक है. जब तक व्यक्ति इनसे ऊपर नहीं उठता, वह नैतिक प्रगति नहीं कर सकता है. आज समस्त संसार कषाय की अग्नि में सुलग रहा है. व्यक्ति और समाज का चारित्रिक पतन होता जा रहा है. देश और समाज के अन्दर अपराध और अनाचार बढ़ते जा रहे हैं. क्रोध से प्रीति का नाश होता है, मान से विनम्रता का नाश होता है, माया से मैत्री-भाव नष्ट होता है तथा लोभ से सभी सद्गुणों का नाश होता है. अतः इनसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए श्रुत साहित्य का अध्ययनमनन, ब्रह्मचर्य का पालन तथा तप का परिपालन करना चाहिए.
जैन दर्शन के अनुसार मानव जीवन का चरम लक्ष्य अर्थात् आत्मा की सर्वोच्च अवस्था समस्त कषायों के नष्ट होने पर ही प्राप्त हो सकती है, जो सामान्य व्यक्ति के लिए प्रायः असंभव ही है. क्योंकि समस्त कषायों को समाप्त करने के लिए जो तप-साधना करनी पड़ती है, वह सामान्य व्यक्ति के वश की बात नहीं है. परन्तु इनके ऊपर नियंत्रण अवश्य रखना चाहिए, व्यक्ति को हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सामाजिक एव वैयक्तिक सद्गुणों का नाश करनेवाले इन कषायों में तीव्रता न आने दें. देव-दर्शन, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छः श्रावक के आवश्यक कार्य कहे गए हैं. जिनका पालन करने से व्यक्ति की दिनचर्या अशुभ से शुभ व शुभ से शुभतर होती है, क्षमा आदि गुणों का निरन्तर विकास होता है तथा क्रोध, मान, माया व लोभ ये चारों कषाय क्रमशः मंद से मंदतर होते हुए अन्त में समाप्त हो जाते हैं.
इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि कषाय ही आत्मा की विकृति के मुख्य कारण हैं और कषायों का अन्त होना ही भव-भ्रमण का अन्त होना है. इसीलिए जैनदर्शन में यह उक्ति प्रसिद्ध है- 'कषायमुक्ति किल मुक्तिरेव.
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