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गौतम बुद्ध के चार आर्यसत्य
डॉ. उत्तमसिंह ईसा पूर्व छठी शताब्दी के आसपास का समय केवल भारतवर्ष में ही नहीं, वरन विश्व के अन्य भागों में भी धार्मिक हलचलों से भरा रहा। इस समय भारतीय धरा पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया। जिनमें भगवान महावीरस्वामी, गौतम बुद्ध, वराहमिहिर आदि प्रमुख हैं। इसी समय भगवान महावीरस्वामी एवं गौतम बुद्ध ने भारतभूमि पर भ्रमण कर जन-जन को उपदेश दे कर श्रमण परम्परा को नये आयाम प्रदान किये।
यह समय आप्तवाक्यों को तर्क एवं विचार की कसौटी पर कसने का समय था। इसीलिए गौतम बुद्ध ने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा- 'परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्।
__ अर्थात् हे भिक्षुओ! मेरे वचनों को तर्करूपी कसौटी पर कसकर, स्वर्णवत् परखकर ग्रहण करो न कि बुद्धवचन मानकर | गौतम बुद्ध के इन्हीं उपदेशों से बौद्ध-धर्म-दर्शन जन-जन तक पहुँचा | बुद्ध ने मनुष्य के रोग, जरा, मृत्यु तथा दुःखों को नजदीक से देखा। इन दुःखों के कारणों को जानने, समझने के लिए उन्होंने वर्षों तक अध्ययन, कठिन तपस्या और चिन्तन में जीवन व्यतीत किया। अन्ततः उन्हें वैशाख माह की पूर्णिमा तिथि के दिन बिहार प्रान्त के उरुवेला (बोधगया) नामक स्थान पर बोधिवृक्ष (पीपलवृक्ष) के नीचे बोधि/ज्ञान प्राप्त हुआ।
ज्ञानप्राप्ति के पश्चात् बुद्ध ने अपने मत के प्रचार-प्रसार का निश्चय किया। उरुवेला से वे सर्वप्रथम ऋषिपत्तन (सारनाथ) आये। जहाँ उन्होंने पाँच ब्राह्मण संन्यासियों को अपना पहला उपदेश दिया। विदित हो कि ये पाँचों संन्यासी गौतम बुद्ध को कठोर साधना से विरत हुआ जानकर पहले ही उनका साथ छोड चुके थे। अतः बुद्ध ने सर्वप्रथम इन्हें ही उपदेश देने का निश्चय किया। इस प्रथम उपदेश को 'धर्मचक्रप्रवर्तन' (धम्मचक्कपवत्तन) की संज्ञा दी जाती है। यह उपदेश दुःख, दुःख के कारणों तथा उनके समाधान से संबन्धित था। इसी को 'चार आर्यसत्य' (चत्तारि आरिय सच्चानि) कहा जाता है; जो 'गौतम बुद्ध के चार आर्यसत्य' के नाम से प्रसिद्ध है। विदित हो कि उस समय लोगों को सही मार्ग पर लाने के लिए गौतम बुद्ध ने सर्वप्रथम आर्यसत्य का प्रयोग किया।
आर्यसत्य की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है- आर्यों के लिए सत्य, आर्य समुचित सत्य, आर्य (अर्हत्) लोग जिसे भली-भाँति जानते हैं।
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