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जुलाई - २०१३ माध्यमिककारिकावृत्तिकार चन्द्रकीर्ति के अनुसार आर्यजन अर्थात् विद्वज्जन ही इन सत्यों के रहस्य को जानते हैं: पामर, दुष्ट, तुच्छ जन इन सत्यों को नहीं समझ सकते। उनके अनुसार पामर लोग हथेली के समान हैं और आर्यजन आँख की तरह
करतलसदृशो बालो न वेत्ति संस्कारदुःखतापक्ष्म। अक्षिसदृशस्तु विद्वान् तेनैवोद्वेजते गाढम् ।।
(माध्यमिककारिकावृत्ति पृ. ४७६) अतः करुणासागर बुद्ध ने जीवन के अपरिहार्य दुःखों से छुटकारा पाने के लिए मध्यम मार्ग के अनुसरण पर बल दिया जो इन चार आर्यसत्यों के ज्ञान द्वारा संभव है। ये चार सत्य निम्नवत् हैं
१. दुःख आर्यसत्य : 'सर्वं दुःखम्' अर्थात् संसार में सर्वत्र जन्म से लेकर मरण पर्यन्त दुःख ही दुःख है। जीवन अनेकविध दुःखों तथा कष्टों से परिपूर्ण है। जिन्हें हम सुख समझते हैं वे भी दुःखों से भरे पड़े हैं। सदा यह भय बना रहता है कि हमारे आनन्द कहीं समाप्त न हो जायें। आसक्ति से भी दुःख उत्पन्न होते हैं। संसार में नाना प्रकार के दुःख व्याप्त हैं, जैसे जन्म, मरण, रोग, शोक, वेदना, क्रोध, जरा, उदासीनता, दरिद्रता आदि। प्रिय का वियोग तथा अप्रिय का संयोग भी दुःख है। धम्मपद में कहा गया है कि संसार भवज्वाला से प्रदीप्त भवन के समान है। परन्तु सामान्यजन इसमें मग्न होकर जलते रहते हैं। । वस्तुतः गौतम बुद्ध का वचन सत्य था। योगदर्शन में भी कहा गया है"दुःखमेव सर्वं विवेकिनः' अर्थात् विवेकी पुरुष के लिए सब दुःख ही दुःख है। न्यायदर्शन के प्रणेता अक्षपाद गौतम ने भी 'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानाम् उत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः' कहकर दुःख को प्रधान माना है।
'सुखमपि दुःखमेव' कहकर सुख को भी दुःख के अन्तर्गत माना गया है। अभिधर्मकोश में भी अनित्य एवं परिवर्तनशील जगत को दुःखात्मक कहा गया है। बुद्धदेशना में प्रतीत्यसमुत्पाद (कार्य-कारण सिद्धान्त) के द्वारा दुःखसमुदय के प्रश्न का समाधान हुआ।
२. दुःख समुदय आर्यसत्य : प्रत्येक कार्य का कोई ना कोई कारण अवश्य होता है। अतः दुःख का भी कारण है। क्योंकि बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। दुःख का मुख्य कारण अथवा हेतु तृष्णा है, जो अज्ञानी प्राणियों में पुनः पुनः उत्पन्न होती रहती है और जिसके कारण दुःख का बन्ध होता चला
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