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शानिय mainin
श्रुतसागर
वर्ष-३, अंक ५, कुल अंक-३०, जुलाई २०१३
एवा नियंधी एवा कम्पनिपिग्रेप्राण ग्रादित्रणा कप्प निवाए डिग्रादिन सगा मंसिया।। मडंब सिवा सिवा निगम। खस सिवा संवाद सिवाासशिरक गिमारा एक माम महाशिसिवासप
NANANAY
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गुड विस. १५४१ मा सखायेल श्री कल्पसूवनी पत्रनुं प्रथम पत्र हो सिवासप
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आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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2002,
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DIENUMURATORE RUSTUSE
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पू. गुरुदेव श्रीना चातुर्मास प्रवेश प्रसंगनी पावन क्षणो
MAHENDRANATH RECO
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विशाल जनमेदनी साथे आंबावाडी श्री संघमां पधारता पू. गुरुदेवश्री
वर्षावासना पर्व प्रसंगे दीपशिखा प्रज्वलित करता श्री संघना श्रेष्ठीओ.
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आचार्य श्री कैलाससागरसूरि जातागंदिर का गुरखपत्र
श्रुतसागर
३०
* आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
* संपादक मंडल
मुकेशभाई एन. शाह कनुभाई एल. शाह
हिरेन दोशी डॉ. हेमन्त कुमार
केतन डी. शाह एवं
ज्ञानमंदिर परिवार १७ जुलाई, २०१३, वि. सं. २०६९, आषाढ सुद-७
प्रकाशक
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४. २०५, २५२ फेक्स : (०७९) २३२७६२४९
website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org
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प्राप्तिस्थान
१. संपादकीय
२. नलोडापुरमंडन पद्मावती स्तोत्र
३. एक महत्त्वपूर्ण प्रति
४. कषायमुक्ति किल मुक्तिरेव
५. कुंभारियाजी तीर्थ
६. गौतम बुद्ध के चार आर्य सत्य
७. जैन प्रतिमाओं की परम्परा
८. ज्ञानमंदिर संक्षिप्त अहेवाल जून २०१३
९. समाचार सार
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प्रकाशन सौजन्य
अनुक्रम
सुधीर यु. महेता टोरेन्ट ग्रुप
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर
परिवार डाईनिंग हॉल की गली में
पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
संजयकुमार झा
मुनि श्री सुयशचंद्रवि.
रामप्रकाश झा
कनुभाईल. शाह
डॉ. उत्तमसिंह
डॉ. सत्येन्द्र कुमार
कनुभाईल. शाह
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संपादकीय
श्रुतसागरनो ३० मो अंक आपना हाथमां छे.
दर महिने एक अंकनुं नवुं, सालं, अने सुंदर मेटर तैयार करता चित्तने कंईक अनेरी प्रसन्नता अने ठंडक मळे छे. आत्मसंतोष तो खरो ज!
आ आत्मसंतोष दर महिने श्रुतसागरना माध्यमे तमारी पासे पहोंचे छे. एनो अमने खूब आनंद छे.
आ अंकनी वात :
पू. महोपाध्यायजी भगवंतने कोण नथी जाणतुं, सूरतथी पू. सुयशचंद्रविजयजी म.सा. एमना हस्ताक्षरमां लखायेल प्रतपुष्पिका साथेनो एक लेख पाठव्यो. पू. महोपाध्यायजी भगवंते पोताना गुरुदेवश्रीमद्ना दीर्घायु अने सुकृतोनी अनुमोदना माटे आ प्रत लखावी चित्कोश (ज्ञानभंडारमां स्थापी ) मां राखी आ प्रकारना उल्लेखो तत्कालीन स्थितीने समजवामां कड़ी समान बनी रहे छे.
पार्श्वनाथ भगवाननी परम उपासिका देवी भगवती पद्मावतीनुं नाम सांभळता ज एमना केटलांक पीठ अने प्राचीन स्थानो आपणा मानस पर अंकित थाय एमांनुं ज एक स्थळ एटले नरोडा.
नरोडा जेटलुं बीजा कोई कारणोसर प्रख्यात नहीं होय एटलुं माता पद्मावतीजीना धाम तरीके प्रसिद्धि पाम्युं छे. पद्मावती माताना स्तोत्र पाठमां एक नवा स्तोत्रनो उमेरो थाय ए हेतुथी साधुकवि क्षेमकुशलजीनी आ रचना अत्रे प्रसिद्ध करी छे. दरेक गाथानी चोथी कडी "नित हुं वांदु पद्मावती" आ कडी सामुहिक नादमां पोतानुं वैशिष्ट्य दर्शावे छे तो पोतानी भक्ति अने माता प्रत्येनुं अथाग श्रद्धा बळ शब्दोमां पूरायेलुं जोवा मळे छे.
·
एवीज रीते भक्तिनी साथे शुद्धिना स्वरूपने आवरी लेतो कषायविजयनो लेख मनन योग्य आप्यो छे. आपणा जीवनने कषायोनी फुग लागी छे. शास्त्रकारोए कषायनी फुगथी बचवा केटलांय समाधानो अने विकल्पो आप्या छे. एमांथी किंचित् कही शकाय एवा विकल्पो अने समाधानो आ लेखना माध्यमे रजु थया छे, हमणां क्यांक वांचेलुं के'
दुःखनी कोई दवा नथी, कारण के दुःख ए कोई रोग नथी.
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जुलाई - २०१३ दुःखने वैराग्य साथे खूब नैकट्य छे. आवा ज केटलांक दुःखना प्रकारोनी वात भगवान बुद्ध कही. दुःखमुक्तिनो मार्ग आप्यो, चार आर्यसत्यनी प्ररूपणा द्वारा. चार आर्यसत्यनी वातथी बौद्धदर्शनना पायाना प्रारंभिक सिद्धांतनो परिचय मळी रहे छे. आ साथे जिन प्रतिमा संबंधी कला विषयक गतांकनो लेख "जैन प्रतिमाओ की परंपरा" आ अंकमां विराम पामे छे. __ तीर्थपरिचयमां श्री कुंभारियाजी तीर्थनो परिचय पण सुंदर रीते रजु थयो छे. सामान्यथी तीर्थोना विकासमा झडप आवी छे. तो तीर्थयात्रामा पण एटली ज, कदाच एनाथी पण वधारे झडप तीर्थयात्रामां आवी छे. पूजामां सवारे कोईक तीर्थमां होईए अने आरतिना समये सांजे कोईक तीर्थमां होईए ए गतिए थती तीर्थयात्रानी सरखामणीए आ प्रकारना तीर्थ महात्म्यने उजागर करता लेखोर्नु वांचन बाद थयेल तीर्थयात्रा खरेखर आनंद अने स्मृत्तिनी अभिवृद्धिन कारण बनी रहे छे.
श्रुतसागर माटे आपश्रीनो अभिप्राय अने लेख आवकार्य छे. आ प्रयास सहियारो छे. अमारो-तमारो-सहुनो-बधानो. नवा लेखको अने संपादको आ श्रुतसागरना माध्यमे आगळ आवे, एमना संपादनो श्रुतसागरना माध्यमे प्रकाशित थाय ए दिशामां ज आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर अने श्रुतसागरनो प्रयास छे. आशा छे के आ प्रयास अने प्रवृत्तिमा सौना साथ अने सहकार थकी सफळता मळशे ज. अस्तु!
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नलोडापुरमंडन पद्मावती स्तोत्र
संजयकुमार झा जिनशासनरक्षिका, पार्श्वजिनाधिष्ठायिका, वामेयपादपद्मसेवकभैरवप्राणवल्लभा, पार्श्वजिनभक्तभवभीतिभजिका, भक्तमनोमोदप्रदायिका व स्नेहसुधावृष्टिकारिका लोकजननी माता भगवती पद्मावती को भला कौन नहीं जानता! वात्सल्यपूर्णा माता पद्मावती का नाम लेते ही भक्तों का मन भक्तिभाव से ओतप्रोत होकर, भक्तिसरिता बनकर हिलोड़े मारने लगता है. जन-जन की आराध्या माँ पद्मावती को गच्छसमुदाय, जैन-जैनेतर आदि सभी सीमाओं से मुक्त होकर निष्ठापूर्वक इनकी भक्तिगंगा में पावन होने से कोई भक्त चूकता नहीं. चाहे पर्युषणपर्व हो, पंचमी, अष्टमी या पूर्णिमा तिथि हो, कोई महोत्सव या प्रतिष्ठा हो माता के मंदिर में प्रवेश करते ही भक्त अंतस्तल से भावविभोर हो 'पद्मावती मात की जय' की जयकारा बोले विना अपने आपको रोक पाता नहीं. इसी से समझा जा सकता है कि भक्ति की परम्परा में माँ की महिमा भक्तहृदय के क्षितिज पर कितनी व्याप्त है, जैसे वैदिक परम्परा में शिवदर्शन से पूर्व नंदीदर्शन तथा श्रीरामदर्शन के पहले रामसेवक (हनुमान) के दर्शन हेतु स्थापित प्रतिमाएँ देखी जाती है, उसी प्रकार जैन परम्परा में भगवान पार्श्वनाथ के मंदिर में इनके अधिष्ठायक देव-देवी भैरवपद्मावती की प्रतिष्ठित प्रतिमा देखने को मिलती है. अधिष्ठायक ये देवदेवी भक्तों के द्वारा की गयी जिनभक्ति की सफलता में सहायक सिद्ध होते हैं. यूँ कहें तो अतिशयोक्ति नहीं कि भक्ति में सिक्त अपने समस्त भक्तों के विघ्नों का निवारणकर माँ कल्याणप्रदान करती हैं. इनकी महिमा का गुणगान चाहे कितने ही किये जाएँ, सिंधु में बिंदु के सहस्रतम अंशसम भी कदाचित् होगी, किन्तु सुज्ञ भाविक भक्तों से आग्रह है कि विद्वान कवि खेमकुशल(क्षेमकुशल) रचित माँ पद्मावती की भाववाही स्तवना को बिंदु में सिंधु मानकर, हृदय में उतारकर अपनी भक्तिगंगा को सतत प्रवाहित रखें. कृति परिथय :
प्रस्तुत कृति पद्मावती नलोडापुरमंडन-स्तोत्र खेमकुशल द्वारा रचित एक सुंदर भाववाही रचना है, भक्तिक्षेत्र में स्तोत्रसाहित्य. का अभूतपूर्व योगदान है. भक्ति व स्तुति में गहरा संबंध है. प्रभु के प्रति भक्त की भावनात्मक अवस्था ही तो भक्ति है. इसे चाहे जिस रूप में प्रकट करें. धार्मिक क्रियाएँ, भजन-कीर्तन, जपतप, उपवास-नियम आदि ये सभी भक्ति के ही अंग कहे जायेंगे. जप-तप, उपवास, संयम-नियम, विधि-विधान आदि कार्यों का शास्त्रोक्त रीति से पालन करना होता है, जो सबके लिये सरल व सुगम नहीं है. जबकि प्रभु से की गयी
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जुलाई - २०१३ गेयपरक अभ्यर्थना स्तुति कहलाती है वह जनसामान्य के लिये सरल बन जाती है. पद्यात्मक रचनाएँ भक्तों के मन को प्रभु का स्मरण करते ही गुनगुनाने के लिये विवश कर देती हैं. जैसे शिशु अपने मनोभाव माँ से कहता है, पत्नी अपने पति से व्यक्त करती है उसी प्रकार भक्त अपने मनोगत भावों को अपनी सहजभाषा में अपने इष्टदेव से निवेदन करता है. जैसे व्यावहारिक जगत में बच्चे के हाव-भाव को देखकर माँ उसके हृदयगत भावों को समझ जाती है. उसी प्रकार भक्तों के प्रकट-अप्रकट सभी भावों को उनके इष्टदेव भी समझ जाते हैं, इस स्तवन में कवि एक शिशु की भाँति ही अपनी सारी आपबीती व सारे मनोगत भावों को माँ भगवती पद्मावती से बताने से चूकते नहीं. कवि ने अपने समर्पणभाव को किस प्रकार व्यक्त किया है, उसे गाथाक्रम-२७ में देखा जा सकता है
'ताहरं शरण करि छइ मात, तुं हि ज आई तुं हिऊ तात। आस्यां पूरइ मा ग्यां(ज्ञान)वती, नित हुं वादं पदमावती ।।७।।
कुशल कवि खेमकुशल ने अपने नाम के अनुसार स्वरचित इस स्तवन में समस्त जीवमात्र के क्षेम हेतु कुशलतापूर्वक लौकिक व लोकोत्तर दोनों ही अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए अंत में माँ पद्मावती से सबके लिये आत्मकल्याण की गुहार लगाई है.
कृति वैशिष्ट्य-भाषा मध्यकाल वि.१४वी से १८वी के मध्य बोली जानेवाली प्रतीत होती है. रचना ३६ छत्तीस कड़ियों में आबद्ध सरल, सुगम, माधुर्यपूर्ण व बोधगम्य है. सहायक प्रत में कुल गाथाएँ ३४ है. रचना का प्रारंभ इन तीन ॐ ह्रो श्री बीजमंत्रों के साथ किया गया है. मंत्र, यंत्र व स्तोत्र साहित्य में बीजाक्षरों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है. रचना संवत्, लेखन संवत् न होने पर भी आधार प्रति की लिखावट से १८वीं की प्रत प्रतीत होती है तो निस्संदेह समझ सकते हैं कि रचना वि.सं.१७वी के समीप की होनी चाहिये. सहायक प्रत के अंत में दी गयी प्रतिलेखन पुष्पिका बाद में लिखी प्रतीत होती है, कारण कि स्तवन व पुष्पिका के लिखावट में अंतर है. फिर भी उल्लेखित प्रतिलेखन संवत् १६१५ के उल्लेख से इतना तो समझा ही जा सकता है कि विद्वान व इनकी रचना उक्त वर्ष के पूर्व की ही होगी. अतः रचना वि.१६वी के अंत या १७वी के प्रारंभ की होनी चाहिये.
कवि ने खुलकर माता के स्वरूप का जीवन्त वर्णन किया है. रचना दृष्टिपथ में आते ही एक नित्यगेय का भाव मन में समा जाता है. माता का कवि ने एक जाग्रत देवी, सच्चे (साचा)देवी के रूप में परिचय दिया है. कड़ियों के बीच में छंद व प्रास के अनुसार अलग-अलग माता के विशेषणों का यथायोग्य उपयोग किया है. कुछे उदाहरण इस प्रकार द्रष्टव्य है- गुणवती, भगवती, सानिधिवती,
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श्रुतसागर - ३०
सौभाग्यवती, सस्नेहलवती, अतिजागती, रूडावती, भायगवती, उपगारवती, समरथवती, साचावती आदि प्रकाशित रूप में यह रचना दृष्टिपथ में नहीं आयी. काफी ढूढने पर पांडुलिपि में ये दो प्रतियाँ उपरोक्त ज्ञानभंडार से मिल पायी है. इसे लोक समक्ष लाने की भावना कैलास श्रुतसागर सूचीपत्र के संपादन अंतराल में हुई. इस कृति को संपादन करने की भावना इस स्तवन की दूसरी व तीसरी कड़ी में वर्णित प्रसंग नलोडा में प्रतिष्ठित पद्मावती से है. योगानुयोग से राजनगर ( अहमदाबाद) के पूर्वभाग नरोडा ग्राम में प्रतिष्ठित पार्श्वपद्मावती के पावन दर्शन का लाभ मिला, सूचीपत्र हेतु प्रस्तुत प्रतसंपादन के क्रम में अनायास प्रस्तुत कृति को प्रकाशित करने हेतु मन आंदोलित होने लगा. तीसरी कड़ी में उल्लिखित 'ऊत्तम गाम नलोडं (डुं) ठाम, साचुं तीरथ अतिह अभिराम । सचराचर साची दीपती, नित हुं वायुं पदमावती ||३||
नलोडा तथा पद्मावतीमाता का नाम नरोडा में प्रतिष्ठित पद्मावतीमाता दोनो साम्य-सा प्रतीत होता है, परंतु प्रामाणिक रूप से कहा नहीं जा सकता कि नरोडा में स्थित पद्मावतीमाता को ही लक्ष्य में रखकर यह रचना की गयी है. इसके साथ अनुमानित रचनाकाल, राजा नल द्वारा बसाया गया नलोडापुर, राजा नल भी इक्ष्वाकुवंशीय होने से ये कौशलदेश के राजा थे इसमें संशय नहीं होता. अतः इस कृति में उल्लिखित नगर व माता पद्मावती, वस्तुतः आज किस नगर में प्रतिष्ठित माताजी हेतु इंगित करता है, इसे गवेषक लोग ही अपनी गवेषणा में योग्य स्थान देकर प्रामाणिक सिद्ध करें एतदर्थ उन्हें निवेदन करते हैं.
कर्ता परिचय :
रचना अंतर्गत कर्ता ने अपने नाम के अतिरिक्त कुछ भी उल्लेख नहीं किया है. इससे इनके सरल भाव का परिचय मिलता है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में खेम (क्षेम) कुशल रचित व लिखित कई नाम मिलते हैं जो इस प्रकार है- १. खेमकुशल-कालमानसूचनारहित. इनके द्वारा रचित फलवृद्धि पार्श्वजिन स्तवन. इस कृति के अंत में उल्लिखित 'पूज रविसु मनरंगी' कथन से रविकुशल के शिष्य संभवित है. ज्ञानमंदिर में उपलब्ध प्रत क्रमांक-३२२७९ वि. १८वी के होने से इनके सत्तासमय का अनुमान किया जा सकता है कि ये वि. १७-१८वी के मध्य संभव है. २. क्षेम (खेम) कुशल - तपागच्छीय विजयहीरसूरिशिष्य विजयसेनसूरि परंपरावर्ती. रोहिणीतपगर्भित वासुपूज्य जिन स्तवन, २४जिन स्तुति - गुरूनामगर्भित पंचबोल व श्रावकाचार चौपाई इनकी रचनाएँ हैं. इनका समय वि. १७वी होना चाहिये. ३. खेमकुशल- इनके द्वारा संवत् १७१८ में लिखित संग्रहणीसूत्र नामक प्रत है. इसमें दयाकुशल के प्रशिष्य व रविकुशल के शिष्य रूप में उल्लेख मिलता है. उपरोक्त साक्ष्यों से पता चलता है कि इस कृति के प्रणेता विजयसेनसूरि की
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जुलाई - २०१३
शिष्यपरंपरा में अथवा तो इनके समीपवर्ती काल में इनकी विद्यमानता का अनुमान लगता है.
प्रत परिचय :
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबा, गांधीनगर अन्तर्गत श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार में संगृहीत दो प्रतों का आधार लेकर इस कृति का संपादन किया गया है. दोनो ही प्रतें भौतिक रूप से संपूर्ण व सुवाच्य है. इसमें हस्तप्रत क्रमांक - ४४३५५को आधार प्रत के रूप में तथा हस्तप्रत क्रमांक- २८३२७ सहायक प्रत के रूप में उपयोग किया गया है.
प्रत क्रमांक ४४३५५में कुल पत्र २ हैं, प्रत पत्र की लंबाई से. मी. २५x१०.५ है. पत्रस्थ प्रत्येक १२ पंक्तिमें ४२ अक्षरों का सुचारु रूपसे आलेखन किया गया है. प्रत के लेखनकार्य से प्रत सं. १८वी की प्रतीत होती है. प्रतमें विशेष पाठ के अंकन हेतु लाल रंग का प्रयोग किया गया है.
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पाठांतर योग्य प्रत गृहीत क्रमांक २८३२७में कुल पत्र २ हैं, प्रत पत्र की लंबाई २४.५x११ है. पत्रस्थ प्रत्येक पत्र में ११ पंक्तियों में ३६ अक्षरो का आलेखन किया गया है. कृति के अंतमें प्रतिलेखक के द्वारा सं. १६१५ का उल्लेख किया गया है. प्रत की स्थिति श्रेष्ठ हैं, विशेष पाठ पर लाल रंग का उपयोग किया गया हैं. कृति के अंतमें प्रतिलेखक के द्वारा "श्री नलोडापुरमंडन पद्मावती भगवती स्तोत्र" इस प्रकार कृति का नाम दिया गया हैं.
प्रत प्रतिलेखन पुष्पिका: ।। पं. विवेकविमल पठनार्थं । । । । भाषाबंध ।। ।। संवत् १६१५ वर्षे ऋ० श्रीकान्हजी ल० ।।
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शब्दार्थ
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१. सेव = सेवा, २. अभिराम = सुंदर, ३. भलइ = अच्छा, ४. टीलि = तिलक, ५. पणावली = सर्पफणा, ६. वानि = वर्ण (रंग), ७. कुडल = कुंडल, ८. हीइ : हृदय, ९. चंग = सुंदर, भव्य, १० कांचलडी कंचुकी, ११. पदमिनी = नारी, १२. योति = ज्योति, १३. उद्योत = प्रकाश, १४. घांट घंटा, १५. चुसाल विशाल, १६. नुधारा = आधारहीन, १७. रदय हृदय, १८. खंधार १९. नेटि निश्चय, २० साचावती
रावटी,
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सत्यवाली, २१. आई = भाता,
२२. ज्ञानवती २५. हितवती
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ज्ञानयुक्त, २३. सार = सहाय, २४. भायग = भाग्य, हितवाली ( हित चाहनेवाली), २६. उपगारवती = उपकारिणी ( उपकार करने वाली), २७. भाइगवती = भाग्यवती
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नलोडापुरमंडन पद्मावती स्तोत्र
आईना ॐ ह्रीं श्रीं पासजिणंद, तेहनी सेव सारि घरणिंद्र । तस' पटराणी बुहु गुणवती. नित हुं वादु पदमावती ||१|| नलराजा दमयंती धणी, कूबरनी प्रशद्धि जि घणी। वासी नगर थापी भगवती, नित हुं वादं पदमावती ।।२।। (आंचली) ऊत्तम गाम नलोडं ठाम, साचुं तीरथ अति अभिराम | सचराचरि साची दीपती, नित हुं वादं पदमावती ।।३।। पदम ऊपरि नितु पदमासनि, बइठी सोहिइ भलइ आसणि'। नर-नारिनी आस्यां पूरिति, नित हुं वादं पदमावती ।।४।। मुख सोहइ जिसउ पूनिमचंद, जोता हरख हुवइ आणंद। मउड मूगट टीलि सोभती, नित हुं वादं पदमावती ।।५।। त्रिण पणावली' निज सरि धरइ, नवकुल नागसि क्रीडा करइ। करकमलइ कमल मालती, नित हुं वायूँ पदमावती ।।६।। चतुर्भुजा तनु रातइ वांनि, सोहइ कुडल झलकइ कानि। हीइ हार कुसम सोमती, नित हुं वादं पदमावती' |७ ।। पहिरणि चरणा पीला चंग, कांचलडी चुनडी सुरंग | सुर-नर मुनिजन मन मोहती, नित हुं वायूँ पदमावती ||८|| मृगनयणीनइ गजगामिनी, रूपवंत उतम पदमिनी। पाए घूघर झांझर झमकती', नित हुं वावु पदमावती ।।९।। मस्तकि मुगट श्रीपारश्वनाथ, सपतफणा मणि विस्वानाथ |
निज सरि' धरती अतिगुणवती, नित हुं वायूँ पदमावती ।।१०।। * वांदु पद के स्थान पर प्रणमुं पद का प्रयोग मिलता है. १. जस, २. प्रणमुं, ३. कुबेरनी परे सिद्ध ज घणी, ४. नलोडु, ५. बइठी कूकसर्प आसनिं, ६. जोता हुइ हर्ष आणंद, ७. फेणावली, ८. आ गाथा २८३२७ नं. नी प्रतमा नथी. ९. पाए घूघरडी रमझिमकती, १०. विश्व सनाथ, ११. सिर.
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चरणकमल पूज्या ताहरां, सघला विघन टलइ माहरा ।
आरति उचाट भय बउ " हइरंती, नित हुं वादुं पदमावती ||११||
जुलाई २०१३
बिहु पासे दीवानी योति, अंधकार हरती उद्योत । चंद्रया उपरि धज लहिकती, नित हुं वादुं पदमावती ।।१२।।
अगर धूप अति महकंइ घणां, सोहइ आभरण अंगि सोहामणा । रणकइ घांट झालर झमकती, नित हुं वादुं पदमावती ||१३||
नालिकेर ढोइ फल बहु, भगति धरी प्रणमइ सहु । गुण गाइ ताहरा कवि यती, नित हुं वादुं पदमावती ||१४|| पंचामृतस्युं करइ पखाल, पंचामृत होम हवन चुसाल । स्नात्रमहोछव पूजा भावती, नित हुं वादुं पदमावती ||१५||
गंधि - सुगंध चंपकमाल, सेवंत्रादिक केवडा रसाला । महकइ फूल कमल मालती, नित हुं वादुं पदमावती ।। १६ ।।
अपुत्रीयानइ" आपइ पूत्र, वात सकलनुं आणइ सूत्र । त्रिभुवन" रमइ रंगि मलपती, नित हुं वादुं पदमावती ||१७|1
नुधारा आपइ आधार, वंछित काम सारो अनिवार । रदय धरेयो मुझ वीनती, नित हुं वायुं पदमावती ||१८||
जगि जागंतुं ताहरं पीठ, महिमा ताहरो" परतखि दीठ । सघली सकतिमां तुं जागती", नित हुं वादुं पदमावती ।।१९।। वाटि-घाट चोर-चखार", धाडी वाह कटक खंधार" | वयरी को नवि दुहवइ रती, नित हुं वादुं पदमावती ||२०||
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जोह ऊपर ताहरी सोम ट्रेठि कहीइ दुखी न थाइ नेटि । लीला करइ तुझ सानधिवती, नित हुं वादुं पदमावती ||२२||
वेनय करी वीनवं (वु) वार वार, आपु रद्धि सुंदर परिवार । तुं माता छइ सोभाग्यवती, नित हुं वादुं पदमावती ||२३||
मुह भावइ तेहवा भोजन, राजा प्रजा नारी सुप्रसन्न । राग धरई ससनेहलवती, नित हुं वादुं पदमावती ||२४||
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१२. नु. १३. महइडइ, १४. अपूत्रिया प्रति, १५ त्रिभुवनिं १६. नुंधारा नई, १७. तुमचं. १८. संघ, १९. वाटि घाटि चोर-चखार, २०. रावटी, २१. जे. २२. विनय
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११
श्रुतसागर - ३०
मंत्र यंत्र एक ताहरूं नामां, तुं तो छइ आस्या विश्रांम। घणुं कहं छं साचावती, नित हुं वायूँ पदमावती ।।२५।। मान-सन्मान वाधइ जस वान, आण न लोपइ कोइ राय प्रधान| लाज मर्यादा आणइं तुजवती, नित हुं वादं पदमावती ।।२६ ।। ताहरु शरण करि छइ मात, तुं हि ज आई तुं हिऊ तात। आस्यां पूरइ मा ग्यां(ज्ञान)वती, नित हुं वादं पदमावती ।।२७1। जैनशाशननी तूं शाशनादेवि, माहरी सार करो नितमेव । पार्श्वनाथना सेवकवती, नित हुं वायूँ पदमावती ।।२८।। धरणेंद्रइंद्र तणी वल्लभा, साची मूरति साची प्रभा। वार वार कहीइ समस्थवती, नित हुं वादं पदमावती ।।२९ ।। आस्यां पूरइ मोटइं धर्म, तुझ तुठई फलइ भायग कर्म। साद करीन कहुं सुणि वीनती, नित हुं वादं पदमावती ।।३०।। पार्श्वनाथनां जे को करइ ध्यान, नाम मंत्र विधि सहित प्रधान | तेहनी आस पूरि हितवती, नित हुं वायूँ पदमावती ||३१।। ब्रह्मा विष्णनइ महेस्वर वाच ए, तुझ कहनि मागं वर्ण व्याच। मुझ आस्या पूरि ऊपगारवती, नित हुं वायूँ पदमावती ।।३२ ।। सख भोगेवं ते ताहरु पून्य, ते देवता मोटी कृतपून्य। प्रार्थना कीजइ रूडावती, नित हुं वादं पदमावती ।।३३।।
खेमकुंशल होयो राति दीस, आस्या पूरि विस्वावीस। वात हयो" मुझ मनभावती, नित हुं वादं पदमावती ।।३४।। आंबिल तप सूधो ब्रह्मव्रत, भोग पूजा ध्यान एकचित्त । परतखि तुं सइ भाइगवती, नित हुं वादं पदमावती ।।३५।। ताहरी प्रतिमा जेणे ठांमे, पदमावती देवता एणइ नामें। ते हं वादं मातावती, नमो नमो श्रीपदमावती। नित हुं वादं पदमावती, नित हुं वायूँ पदमावती ||३६।। .
॥ इति श्री पदमावती स्तोत्र संपूर्ण | ॥छ।। २३. लहीइं, २४. करी कहुं, २५. इम तुजी माहे जु हुइ साच, २६. तूं, २७. हीयो. २८. जेणे-जेणे
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एक महत्त्वपूर्ण प्रति
मुनि श्री सुयशचंद्रविजय 'पू. न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महोपाध्याय यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह' नामनुं पुस्तक हाथमां आव्युं त्यारे सौ प्रथमवार पू. उपाध्यायजीभगवंतना अक्षरदेहना दर्शन थया. पू. मुनिराज श्रीयशोविजय (पछीथी आ. श्री यशोदेवसूरिजी म. सा.) ए संपादित करेल ते संग्रहमां पू. उपाध्यायजीना हाथे लखायेल, अन्य विद्वान द्वारा लखायेल छता पूज्यश्रीनी मालिकीनो निर्देश करती एम भिन्न भिन्न दृष्टिए महत्वपूर्ण प्रतिओनी 'photography' ओने प्रकाशित करवामां आवी हती. हमणा सुरत ज्ञानमंदिरनुं काम करता पू. उपाध्यायजीना हस्ताक्षरमां लखायेल एक पद्य श्लोकवाळी कृति जोवामां आवी. जेनी नोंध अहीं वाचकोनी जाण माटे परिचय साथे मुकवामां आवी छे.
कृतिनाम - अपरोख्यानुभवाख्यप्रकरण, कर्ता - परमहंस परिव्राजक, प्रतिलेखक - गणि मानविजयजी, पत्र - ३ प्रतिलेखन संवत् - १७२१, श्लोक संख्या - ५२
उपरोक्त ग्रंथ पू. मानविजयजी' गणिए अभ्यासादि अर्थे सं. १७२१ना आसो सुद रना गुरुवारे लख्यो. पू. गणि मानविजय लिखित ते ग्रंथने पू. उपाध्यायजीए वि. सं. १७३२ ना सौभाग्य पांचम (कारतक सुद ५)ना दिवसे (पोताना गुरु) पू. नयविजयजीना सुकृतने माटे चित्कोश (ज्ञानमंदिर)मां मूक्यो. पूर्वे श्रावकोए पोताना पूर्वजादि परिवारना सुकृतने माटे प्रतिष्ठाओ करावी होय, ग्रंथागार बनाव्या होय, ग्रंथलेखनादि कराव्यु होय तेवी घणी नोंध छे. ते बधाथी भिन्न गुरु-भगवंत माटे करायेली प्रस्तुत नोंध आंखे वळगे तेवी छे. प्रतनी मूळ प्रशस्ति : संवत् १७२१ वर्षे आश्विनसित २ भौमे लिखितं ग. मानविजयेन।।
कल्याणमस्तु ।। श्री।। उपाध्यायजी म. सा. बी प्रशस्ति :
चित्कोशे न्यस्तः श्रीयशोविजयवाचकैरयं ग्रन्थः।
श्रीनयविजयबुधानां, चिरायसुकृतानुमतिहेतोः ।।१।। सं. १७३२ सौ ०५ १. पू. मानविजय गणिजी पण प्रायः विचार रत्नाकर' ना कर्ता होवा जोइए एबुं अनुमान थाय
२. सौ = सौभाग्य = कारतक सुद
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कषायमुक्ति किल मुक्तिरेव
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रामप्रकाश झा
'कषाय' शब्द का निर्माण 'कष्' और 'आय' इन दो शब्दों के योग से हुआ है. 'कष' का अर्थ है 'कर्म' और 'आय' का अर्थ है 'आगमन' अर्थात् जिसके कारण आत्मा में कर्मों का आगमन -बन्ध होता हो, उसे कषाय कहा जाता है. कषाय एक प्रकार का मानसिक आवेग है. वे मनोवृत्तियाँ, जो हमारी आत्मा को कलुषित करती हैं, और जिनके कारण हमारी आत्मा कर्मों के बन्धन में बँधती है, उन्हें कषाय कहा जाता है. मन, वचन व काया की प्रवृत्ति को योग कहा जाता है. कषाययुक्त योग कर्मबंध का कारण माना जाता है. कषाय रहित कर्म निर्बल व अल्पायु होते हैं. कर्म की तीव्रता और मंदता आत्मा के परिणाम पर निर्भर करती है. क्रोध, मान, माया तथा लोभ; ये चार वृत्तियाँ कषाय की श्रेणी में आती हैं. इन चार कषायों को जैन दर्शन में सबसे अनर्थकारी कहा गया है. ये चारों कषाय पुनर्जन्मरूपी वृक्ष का सिंचन करते हैं तथा मनुष्य के दुःखों का कारण हैं. उत्तराध्ययनसूत्र में राग और द्वेष को कर्म का मूल कहा गया है. राग और द्वेष के कारण ही कषायों का जन्म होता है. इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए स्थानांगसूत्र में राग और द्वेष को पापरूपी कर्म का स्थान बताया गया है, राग और द्वेष ही आवेगात्मक परिस्थिति में क्रोध, मान, माया और लोभ का रूप ले लेते हैं. इनमें से प्रत्येक की चार-चार अवस्थाएँ मानी गई हैं- अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संज्वलन. इस प्रकार चार कषायों की चार-चार अवस्थाएँ होने के कारण सोलह कषाय हो जाते हैं. इसके अतिरिक्त हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद ये नौ प्रकार के नो- कषाय कहे गए हैं. आत्मा को दुर्गति में ले जाने में इन नो-कषायों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होती है.
क्रोध : यह एक मानसिक उत्तेजना है, जिसमें व्यक्ति की विचारशक्ति व तर्कशक्ति क्षीण हो जाती है. ऐसी स्थिति उत्पन्न होने के मुख्य कारण असंतोष, अभाव, असफलता, प्रतिकूलता तथा विरोध आदि भाव हैं. इस अवस्था में मनुष्य न करने योग्य कार्य भी कर लेता है. क्रोध का आवेग जब आक्रामक रूप धारण कर ले तो उसके विनाशकारी परिणाम भी देखने में आते हैं. यदि व्यक्ति उपरोक्त भावों से स्वयं को बचाए रखे तो उसे क्रोधित होने का अवसर प्राप्त ही नहीं होगा. जैनदर्शन में क्रोध के दो रूप कहे गये हैं- १. द्रव्यक्रोध व २. भावक्रोध. क्रोध की जिस अवस्था में व्यक्ति की प्रवृत्तियों में शारीरिक परिवर्तन होता है, जैसे आँखें लाल होना, होंठ फड़कना जोर-जोर से बोलना, चीखना चिल्लाना, हाथ-पाँव चलाना इत्यादि. इस प्रकार क्रोध की अभिव्यक्ति को द्रव्यक्रोध कहा जाता है.
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जुलाई - २०१३ परन्तु जब क्रोध की मात्र अनुभूति हो, तो उसे भावक्रोध कहा जाता है, यह द्रव्यक्रोध की पूर्व अवस्था है.
मान : मनुष्य के अन्दर स्वाभिमान की भावना होती है, परन्तु जब यह स्वाभिमान दंभ या प्रदर्शन का रूप ले लेता है, तब इसे अहंकार-मान कहा जाता है. अहंकार जाति, कुल. ऐश्वर्य, बल, तप, ज्ञान आदि किसी का भी हो सकता है. अहंकारग्रस्त व्यक्ति अपनी अहंवृत्ति का पोषण करने के लिए अपने गुणों तथा योग्यताओं का प्रदर्शन करता है.
मान कषाय के जन्म लेते ही व्यक्ति के सारे सम्बन्ध संकीर्ण हो जाते हैं. जैन परंपरा में मान को मद भी कहा जाता है, जो आठ प्रकार के हैं- १. जाति मदउच्चजाति में जन्म लेने के कारण मनुष्य को जाति का अहंकार हो जाता है. २. कुल मद- इसी प्रकार उच्चकुल में जन्म लेने के कारण कुल का अहंकार हो जाता है. ३. बल मद- शारीरिक रूप से शक्तिशाली होने के कारण बल का अहंकार हो जाता है. ४. ऐश्वर्य मद- प्रचुर धन-सम्पत्ति होने के कारण ऐश्वर्य का मद हो जाता है. ५. तप मद- घोर तपश्चर्यापूर्ण जीवन जीने के कारण मनुष्य को तप का अहंकार हो जाता है. ६. ज्ञान मद- विविध शास्त्रों का ज्ञाता होने के कारण व्यक्ति को ज्ञान का अहंकार हो जाता है.७. सौन्दर्य मद- स्वरूपवान होने से उसे सौंदर्य का अहंकार हो जाता है. व ८. अधिकार मद- जो मनुष्य अधिकार सम्पन्न होता है, उसे अपने अधिकारों का मद हो जाता है.
_मद से मन मलिन हो जाता है. मन को निर्मल करने के लिए मद का नाश करना आवश्यक है. आत्मा की बहिरात्म अवस्था में मान कषाय का जन्म होता है, परन्तु इसके नष्ट होते ही अन्तरात्म अवस्था का प्रारम्भ हो जाता है.
माया : कपट का आचरण करना माया कहलाती है. जिस व्यक्ति के मन, वचन और व्यवहार में समानता न हो, वह मायावी कहलाता है. ऐसा व्यक्ति मन में सोचता कुछ है, बोलता कुछ है और उसका व्यवहार इन दोनों से विपरीत होता है. इसके अन्तर्गत किसी को ठगने के उद्देश्य से उसके साथ किया जानेवाला कपटपूर्ण आचरण, किसी को ठगना, ठगने के उद्देश्य से किसी को अत्यधिक सम्मान देना, कुटिलतापूर्ण वचन कहना, अत्यन्त रहस्यमयी बातें करना. अत्यन्त निकृष्ट कार्य करना, दूसरों को हिंसा के लिए उकसाना, किसी के साथ निंदनीय व्यवहार करना. भांडों के समान कुचेष्टा करना, अपनी करतूत को छिपाने का प्रयत्न करना, ठगना तथा व्यापार में अधिक लाभ हेतु उत्तम वस्तु में हीन वस्तुओं की मिलावट करना, ये सभी माया कषाय कहलाते हैं.
लोभ : मनुष्य के हृदय में किसी वस्तु या स्थान के प्रति उत्पन्न होनेवाली तृष्णा लोभ कहलाती है. लोभ कषाय सभी कषायों से तीव्र होता है. अन्य कषाय
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श्रुतसागर - ३० तो किसी विशेष निमित्त को प्राप्त कर शांत भी हो सकते हैं परन्तु लोभ कषाय फिर भी शेष रहता है. लोभी व्यक्ति क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी क्रोध नहीं करता है, मानापमान की भी चिन्ता नहीं करता है. यदि कुछ प्राप्त करने की आशा हो तो वह दस गालियाँ भी सहन कर सकता है, किसी का करुण स्वर सुनकर भी उसका हृदय द्रवित नहीं होता है. लोभी व्यक्तियों के लिये यह कहा जा सकता है कि वह अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए योगियों की भांति अपनी इन्द्रियों का दमन भी कर सकता है. अर्थात् वह कुछ भी करके अपनी इच्छा पूर्ण करना चाहता है.
लोभ की निम्नलिखित अवस्थाएँ हैं- संग्रह वृत्ति, संवर्द्धन वृत्ति, इच्छा-अभिलाषा, विषयासक्ति, निश्चय से डिग जाना, इष्टप्राप्ति की इच्छा, अर्थ आदि की याचना करना, खुशामदखोरी, जीवन की कामना, तथा प्राप्त सम्पत्ति के प्रति आसक्ति.
कषाय विजय - जैन दर्शन के अनुसार कषायों का सम्बन्ध व्यक्ति के चरित्र से है. नैतिक जीवन के लिए इन आवेगों से ऊपर उठना आवश्यक है. जब तक व्यक्ति इनसे ऊपर नहीं उठता, वह नैतिक प्रगति नहीं कर सकता है. आज समस्त संसार कषाय की अग्नि में सुलग रहा है. व्यक्ति और समाज का चारित्रिक पतन होता जा रहा है. देश और समाज के अन्दर अपराध और अनाचार बढ़ते जा रहे हैं. क्रोध से प्रीति का नाश होता है, मान से विनम्रता का नाश होता है, माया से मैत्री-भाव नष्ट होता है तथा लोभ से सभी सद्गुणों का नाश होता है. अतः इनसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए श्रुत साहित्य का अध्ययनमनन, ब्रह्मचर्य का पालन तथा तप का परिपालन करना चाहिए.
जैन दर्शन के अनुसार मानव जीवन का चरम लक्ष्य अर्थात् आत्मा की सर्वोच्च अवस्था समस्त कषायों के नष्ट होने पर ही प्राप्त हो सकती है, जो सामान्य व्यक्ति के लिए प्रायः असंभव ही है. क्योंकि समस्त कषायों को समाप्त करने के लिए जो तप-साधना करनी पड़ती है, वह सामान्य व्यक्ति के वश की बात नहीं है. परन्तु इनके ऊपर नियंत्रण अवश्य रखना चाहिए, व्यक्ति को हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सामाजिक एव वैयक्तिक सद्गुणों का नाश करनेवाले इन कषायों में तीव्रता न आने दें. देव-दर्शन, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छः श्रावक के आवश्यक कार्य कहे गए हैं. जिनका पालन करने से व्यक्ति की दिनचर्या अशुभ से शुभ व शुभ से शुभतर होती है, क्षमा आदि गुणों का निरन्तर विकास होता है तथा क्रोध, मान, माया व लोभ ये चारों कषाय क्रमशः मंद से मंदतर होते हुए अन्त में समाप्त हो जाते हैं.
इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि कषाय ही आत्मा की विकृति के मुख्य कारण हैं और कषायों का अन्त होना ही भव-भ्रमण का अन्त होना है. इसीलिए जैनदर्शन में यह उक्ति प्रसिद्ध है- 'कषायमुक्ति किल मुक्तिरेव.
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શ્રી કુંભારિયાજી તીર્થ એક પરિચય (શ્રી આરાસણ તીર્થ)
કનુભાઈ લ. શાહ
ભૂમિકા –
આબુ પર્વત ગુજરાતને રાજસ્થાનથી અલગ પાડે છે. આબુ પર્વતથી દક્ષિણપૂર્વ દિશામાં આરાસણના પહાડો આવેલા છે. આબુ પહાડથી દશ ગાઉ દૂર આરાસણના પહાડોની વચમાં પહેલાં આરાસણ નામે નગર હતું. આરાસણ નગરની ચારે બાજુ નાના મોટા પહાડ આવેલા હતા. તે વનરાજીથી ભરેલા હતા. તેમાં અસંખ્ય જાતિની ઔષધિઓના છોડ મળતા હતા. મહત્વની વાત એ છે કે આ પહાડોમાં ખનીજ ભરપૂર છે. આ આરાસણ નગરની પશ્ચિમે પ્રખ્યાત શ્રી અંબાજી માતાનું મંદિર આવેલું છે.
શ્રી ‘વસ્તુપાલચરિત્ર'માં શ્રી જિનહર્ષગણિની નીચે પ્રમાણે નોંધ મળે છે - 'प्रासादं जगदाह्लादं प्रासादादम्बिकोद्भवात् ।
समुद्धृत्य नगोत्तुङ्गं नेमिनः स्वामिनः पुनः ॥ पुण्यात्मा पासलिर्मन्त्री चित्रप्राचिकृतापरः । व्यधादारासणक्षोणीधरं रैवतदैवतम् ।।'
‘દેવોને પણ આશ્ચર્ય પમાડનાર પુણ્યાત્મા પાસલિ મંત્રીએ અંબિકાદેવીના પ્રસાદથી જગતને આનંદ આપનાર તથા પર્વત સમાન ઉન્નત એવા શ્રી નેમિનાથ ભગવાનના ચૈત્યનો ઉદ્ધાર કરાવીને આરાસણ પર્વતને રૈવતાચલ જેવો બનાવી દીધો.' આ હકીકતથી સ્પષ્ટ થાય છે કે શ્રી નેમિનાથ ભગવનના દેરાસરનો પાસલિ મંત્રીએ જીર્ણોદ્ધાર કરાવ્યો છે. તો આ મંદિર ખૂબ પુરાણું હોવું જોઇએ.
આ આરાસણ નગર જૂનું હતું. તેનાં પ્રમાણો જૈન ધર્મના પ્રાચીન પુસ્તકોમાંથી મળી આવે છે. ‘વિમલપ્રબંધ'માં આરાસણ'ની હકીકત મળે છે. અહીંના સ્થાનિક શિલાલેખોમાં આરાસણા, આરાસણાકર, આરાસણ, આરાસણાનગર અને આરાસણપુર નામથી ઉલ્લેખો મળે છે. ડૉ. ભાંડારકરના મત મુજબ ‘આરાસ’ (આરસ) એટલે જેને ગુજરાતીમાં ‘પથ્થર’ કહે છે તે હશે. તેથી આ પહાડની ૧. વિમલ પ્રબંધ ખંડ ૪ ચોપાઇ ૭૦, ખંડ ૬, ઢાળ ૮, ખંડ ૮ મો ચોપાઇ ૫૮, ૨.અર્બુદાચલ પ્રદક્ષિણા શિલાલેખ સર્રાહ (આબુ ભાગ-૫) નં. ૩ના ૧૧૧૮ના શિલાલેખમાં 'આરાસણા'નો ઉલ્લેખ છે. એજ પ્રકારે અન્ય નાોના પણ ઉલ્લેખ છે.
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श्रुतसागर - ३०
બાજુમાં વસેલું નગર એટલે ‘આરાસન' કહેવાયું. બીજું નામ ‘આરાસનાકર’ જેનો અર્થ થાય છે ‘પથ્થરની ખાણ’. તે ઉપરથી પણ એ જ નિર્ણય આવી શકે આ મધ્યકાલીન આરાસણ નગરનું નામ પછીથી ‘કુંભારિયા’ પડી ગયું છે અને અત્યારે આ જ નામથી પ્રચલિત છે. ‘કુંભારિયા' નામ પડવા પાછળ મહારાણા કુંભકર્ણ, મેવાડનો કુંભો રાજપૂત, કુંભારોનું ગામ, ઇત્યાદિ અટકળો અનુક્રમે જેમ્સ ફોર્બસ, મુનિશ્રી વિશાલવિજયજી અને મુનિશ્રી દર્શનવિજયજી આદિ વિદ્વાનો દ્વારા થયેલી છે, પણ પ્રસ્તુત નામકરણનો સંતોષકારક ખુલાસો હજી મળ્યો નથી.”
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१७
મંદિરો : કુંભારિયામાં આજે જૈનો કે અન્ય કોમોની કોઇ વસતિ નથી. પણ ત્યાં પ્રાચીન પાંચ જૈન મંદિરો અને શિવાલય છે. ડુંગરની વચ્ચે કલાકૃતિઓ સમાન શોભી રહેલાં પાંચ મંદિરો અનુક્રમે આ મુજબ છે. (૧) આરાસણમાં પ્રવેશતાં સૌથી પ્રથમ ભગવાન નેમિનાથનું જિનાલય દૃશ્યમાન થાય છે. (૨) નેમિનાથ ભગવાનના મંદિરથી ઇશાન ખૂણામાં શાંતિનાથનું મંદિર શોભી રહ્યું છે. (૩) આ મંદિરથી અગ્નિ દિશામાં મહાવીર સ્વામિનું મંદિર આવેલું છે, (૪) આ મંદિરની બાજુમાં પૂર્વ તરફ પાર્શ્વનાથનું મંદિર છે. (૫) જ્યારે સંભવનાથનું મંદિર શ્રી નેમિનાથના જિનાલયથી અને આ બધાં મંદિરોના સમૂહથી થોડે દૂર વાયવ્ય દિશામાં આવેલું છે. આ પાંચે મંદિરોની વિશિષ્ટતા એ છે કે બધાં જ મંદિરો ઉત્તરાભિમુખ છે.
૧. નેમિનાથ જિનાલય :
આ પાંચે મંદિરોમાં આ મંદિર સૌથી મોટું, ઊંચું અને વિશાળ છે. ગભારામાં મૂળનાયક શ્રી નેમિનાથ ભગવાનની ભવ્ય અને ચમત્કારિક પ્રતિમાજી બિરાજમાન છે. દેરાસરની બાંધણી એવી સુંદર અને આયોજનપૂર્વકની છે કે બહાર ઊભા રહીને પ્રભુના દર્શન કરી શકાય છે. આ પ્રતિમાજી પરમપૂજ્ય શ્રી હીરવિજયસૂરિના પટ્ટધર આચાર્ય શ્રી વિજયદેવસૂરિના સમયમાં સં. ૧૯૭૫માં શ્રી કુશલસાગર ગણિના હાથે પ્રતિષ્ઠિત થએલી છે. તે સંબંધીનો લેખ ભગવાનના પબાસન ઉપર સ્પષ્ટ વાંચી શકાય તેવો છે. આ મંદિર મૂળગભારો, વિશાળ ગૂઢમંડપ, દશ ચોકી, સભામંડપ, ગોખલા, શૃંગાર ચોકી, બંને બાજુના મોટા ગભારા, ચોવીશ દેવકુલિકાઓ, વિશાળ રંગમંડપ, શિખર અને કોટથી યુક્ત છે. મંદિરનું શિખર ઉન્નત અને વિશાળ છે. તારંગા પર્વત ઉપર આવેલા શ્રી અજિતનાથ ભગવાનના
૧. આરસીતીર્થ આરાસણ (કુમ્ભારિયાજી) પૃ.૨
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१८
દેરાસરના શિખરને એ કંઇક મળતું આવે છે. સમગ્ર શિખર આરસપહાણનું
બનેલું છે.
जुलाई २०१३
·
દેરાસરને ફરતી નીચે હાથીની હાર છે તેથી તે ગજસર કહેવાય છે. તે ઉપર નરનારીનાં જોડકાં છે તેથી તે નરસર પણ કહેવાય છે.તે ઉપરાંત દેવ, દેવી, યક્ષ-યક્ષિણીનાં મોટી પ્રતિમાઓ બેસાડેલ છે.
આ દેરાસરમાં ૯૪ થાંભલા છે. તેમાં વચ્ચેના ૨૨ થાંભલા કોતરણીવાળા છે. તેના ઉપર દેવ-દેવીઓ અને વિદ્યાધરની મૂર્તિઓ છે આ રંગમંડપ અને ચોકીની કોરણી અત્યંત સુંદર છે, તે આબુ ઉપરના દેલવાડાનાં મંદિરોમાંની કોરણીની જેવી જ લાગે છે.
૨. શ્રી મહાવીરસ્વામી ભગવાનનું મંદિર
શ્રી નેમિનાથ ભગવાનના દેરારની પૂર્વ બાજુની ટેકરીથી નીચા ભાગમાં ઉત્તર દિશાના દ્વારવાળું શ્રી મહાવીરસ્વામી ભગવાનનું મંદિર છે. આ મંદિર મૂળ ગભારો, ગૂઢ મંડપ, છ ચોકી, સભામંડપ, શૃંગાર ચોકીઓ, તેની સામે આઠ ગોખલા અને બંને તરફની આઠ-આઠ દેવકુલિકાઓ મળીને કુલ ૨૪ દેરીઓ અને શિખરથી સુશોભિત છે. સમસ્ત મંદિર આરસપાષાણનું બનેલું છે.
ગર્ભગૃહમાં મૂળનાયક શ્રી મહાવીરસ્વામી ભગવાનની એકતીર્થીના પરિકરયુક્ત મનોહર અને ભવ્ય પ્રતિમા બિરાજમાન છે. મૂળનાયકની બંને બાજુએ એકેક યક્ષની તેમજ એક અંબાજી માતાની પ્રતિમા છે. મૂળનાયકની મૂર્તિ ઉપર સં. ૧૬૭૫નો આચાર્ય શ્રી વિજયદેવસૂરિએ આ આરાસણ નગરમાં પ્રતિષ્ઠા કર્યાનો લેખ મળે છે. મૂળનાયકના પરિકરની ગાદી નીચે સં. ૧૧૨૦ નો જૂની લિપિમાં લેખ મળે છે. તેમાં પણ આરાસણના નામનો ઉલ્લેખ મળે છે. આ હકીકતથી સ્પષ્ટ થાય છે કે આ મંદિર આ અરસામાં કે તે પહેલાં બનેલું હોવું જોઇએ.
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છ ચોકી તથા સભા મંડપ અને ભમતીની દેરીઓના વચ્ચેના બંને તરફના થઇને છતના ૧૪ ખંડોમાં ભવ્ય કોરણી છે. બારણા પાસેનો ઘુમટ અદૂભૂત કારીગરીવાળો છે. બાકીના પાંચ ઘુમટોમાં પણ અદ્ભૂત નકશીભર્યા ભાવો આલેખ્યા છે. રંગમંડપની કોરણી પણ અદ્ભૂત છે. આ બધાં કલામય દૃશ્યો અને કો૨ણી આબુના દેલવાડાનાં મંદિરોની યાદ તાજી કરાવે છે.
૩. શ્રી પાર્શ્વનાથ ભગવાનનું મંદિર
શ્રી મહાવીરસ્વામી ભગવાનના દેરાસરની પૂર્વ બાજુએ શ્રી પાર્શ્વનાથ ભગવાનનું ભવ્ય અને વિશાળ મંદિર આવેલું છે. આ મંદિર મૂળગભારો, ગૂઢમંડપ, છ ચોકી,
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श्रुतसागर - ३० સભામંડપ, શૃંગારચોકીઓ, બંને તરફ થઇને ૨૪ દેરીઓ, ૧ ગોખલો અને શિખરબંધીવાળું છે. સંપૂર્ણ આરસપાષાણથી આ મંદિર બંધાયેલું છે.
મૂળ ગભારામાં મૂળનાયક શ્રી પાર્શ્વનાથ ભગવાનની સુંદર પરિકરયુક્ત એકતીર્થી મૂર્તિ બિરાજમાન છે. તેના પર આચાર્ય શ્રી વિજયદેવસૂરિએ પ્રતિષ્ઠા કર્યાનો સં. ૧૯૭પનો લેખ છે.
ગૂઢમંડપ અને સભામંડપના ઘુમટો, છ ચોકીનો સન્મુખ ભાગ, છ ચોકી અને સભામંડપના ચાર સ્તંભો, એક તોરણ, બંને તરફ અને વચ્ચેની એકેક દેરીના દરવાજા, સ્તંભો, ઘૂમટો, માથેનાં શિખરો અને પ્રત્યેક ગુગ્ગજોમાં સુંદર કારણી કરેલી છે. સ્તંભો ઉપર દેવીઓ, વિદ્યાધરીઓ તેમજ બીજી કોણી છે. ગૂઢમંડપનો મુખ્ય દરવાજો અને નકશીવાળી બંને દેરીના દરવાજા માથે ચ્યવન કલ્યાણકનો ભાવ અને ૧૪ સ્વપ્નો કોતરેલાં છે. ૪. શ્રી શાંતિનાથ ભગવાનનું મંદિર
શ્રી મહાવીર સ્વામીના મંદિરની વાયવ્ય દિશામાં શ્રી શાંતિનાથ ભગવાનનું કહેવાતું મંદિર આવેલું છે. આ મંદિરની રચના ભગવાન મહાવીરસ્વામીના દેરાસર જેવી જ છે. પણ મંદિર તેનાથી થોડુંક નાનું છે. અહીં મુખમંડપને બદલે. મુખ ચોકી કરેલી છે. ગર્ભગૃહમાં ભગવાન શાંતિનાથની કહેવાતી (૧૭મા શતકની) પ્રતિમા છે.
આ મંદિર મૂળગભારો, ગૂઢમંડપ, છ ચોકી, સભામંડપ, મુખ્ય દરવાજાની બંને બાજુએ આવેલી ૧૦ દેરીઓ અને ૧૦ ગોખલાઓ તેમજ શિખરથી સુશોભિત છે. ત્રણે બાજુ આ દરવાજાની શુંગાર ચોકીઓ વગેરે બધું આરસપાષાણથી બનેલું છે. મૂળ ગભારામાં મૂળનાયક શ્રી શાંતિનાથ ભગવાનની પરિકર વિનાની પ્રતિમા બિરાજમાન છે. છ ચોકીઓમાં ગૂઢમંડપના મુખ્ય દરવાજાની બંને બાજુએ સુંદર કોરણીવાળા બે ગોખલા છે. છ ચોકી અને સભામંડપના ગુગ્ગજો તથા સ્તંભોમાં દેલવાડાનાં મંદિરો જેવી કોરણી કરેલી છે. સભામંડપનું એક તોરણ પણ કરણીવાળું છે. છ ચોકી અને સભામંડપની બંને બાજુની છતોના બાર ખંડોમાં પણ આબુદેલવાડાનાં મંદિરો જેવા જુદા જુદા પ્રકારના દૃશ્યોના ભાવો કોતરેલા છે. છતમાં જે ભાવો કોતરેલા છે તેમાં વિશેષ કરીને તીર્થકરોના વિશિષ્ટ જીવન પ્રસંગો, કલ્પસૂત્રમાં વર્ણવેલી ઘટનાઓ, સ્થૂલિભદ્રનો પ્રસંગ વગેરેના ભાવો કોતરેલા છે.
આ શાંતિનાથ ભગવાનના મંદિરમાં વસ્તુતઃ સર્વપ્રથમ મૂળનાયક શ્રી ઋષભદેવની મૂર્તિ પ્રતિષ્ઠિત હશે એ આ મંદિરની એક દેવકુલિકાની પ્રતિમાની
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२०
जुलाई - २०१३ ગાદી પરના સં. ૧૧૪૮ (ઇ. સ. ૧૦૯૨)ના લેખમાં તેની પ્રતિષ્ઠા આદિ જિનાલયમાં થઇ હોવાનો ઉલ્લેખ છે. ૫. શ્રી સંભવનાથ ભગવાનનું મંદિર
શ્રી નેમિનાથ ભગવાનના દેરાસરની દક્ષિણે લગભગ ૨૦૦ કદમ દૂર સમૂહનું છેલ્લું મંદિર આવેલું છે. આ શ્રી સંભવનાથનું મંદિર ચૈત્યપરિપાટીઓમાંથી જે તારવણી નીકળે છે તે પરથી તે મૂળે શ્રી શાંતિનાથ ભગવાનનું મંદિર હોવું જોઇએ. બધા મંદિરો કરતાં આ મંદિરની બાંધણી જુદી પડે છે અને પ્રમાણમાં નાનું પણ છે.
આ મંદિરમાં દેવકુલિકાઓનો વિસ્તાર નથી તેમજ છ ચોકી પણ નથી. આ મંદિર મૂળગભારો, ગૂઢમંડપ, સભામંડપ, શૃંગાર ચોકી, કોટ તેમજ શિખરબંધી છે. મંદિરમાં પ્રદક્ષિણા પથ ભમતી નથી. દરેક દરવાજામાં મોટાભાગે કોરણી છે તેમજ શિખરમાં પણ કરણી કરેલી છે.
આ આરાસણ ઊર્ફ શ્રી કુંભારિયાજીનું તીર્થ પ્રાચીન અને પ્રાભાવિક છે. વળી દેરાસરની કારીગરી ભવ્ય અને સુંદર છે. ચારે બાજુએ પર્વતમાળા હોવાથી કુદરતના સાનિધ્યને લીધે આ સ્થળ અભૂત લાગે છે. શેઠ આણંદજી કલ્યાણજીની પેઢીએ હવે આ તીર્થનો વહીવટ સંભાળ્યો હોઇ ધર્મશાળા-ભોજનશાળાની તેમજ અન્ય વ્યવસ્થાનું સુંદર આયોજન કર્યું છે.
સંદર્ભ ગ્રંથ ૧. આરસીતીર્થ આરાસણ કુંભારિયાજી, શેઠ આણંદજી કલ્યાણજી અમદાવાદ ૨. શ્રી કુંભારીયાજી ઉર્ફે આરાસણ, મથુરાદાસ છગનલાલ શેઠ ૩. શ્રી આરાસણ તીર્થ અપરના શ્રી કુંભારીયાજી તીર્થ - મુનિ શ્રી વિશાલવિજયજી,
પ્રકા. શ્રી યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાલા ભાવનગર
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गौतम बुद्ध के चार आर्यसत्य
डॉ. उत्तमसिंह ईसा पूर्व छठी शताब्दी के आसपास का समय केवल भारतवर्ष में ही नहीं, वरन विश्व के अन्य भागों में भी धार्मिक हलचलों से भरा रहा। इस समय भारतीय धरा पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया। जिनमें भगवान महावीरस्वामी, गौतम बुद्ध, वराहमिहिर आदि प्रमुख हैं। इसी समय भगवान महावीरस्वामी एवं गौतम बुद्ध ने भारतभूमि पर भ्रमण कर जन-जन को उपदेश दे कर श्रमण परम्परा को नये आयाम प्रदान किये।
यह समय आप्तवाक्यों को तर्क एवं विचार की कसौटी पर कसने का समय था। इसीलिए गौतम बुद्ध ने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा- 'परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्।
__ अर्थात् हे भिक्षुओ! मेरे वचनों को तर्करूपी कसौटी पर कसकर, स्वर्णवत् परखकर ग्रहण करो न कि बुद्धवचन मानकर | गौतम बुद्ध के इन्हीं उपदेशों से बौद्ध-धर्म-दर्शन जन-जन तक पहुँचा | बुद्ध ने मनुष्य के रोग, जरा, मृत्यु तथा दुःखों को नजदीक से देखा। इन दुःखों के कारणों को जानने, समझने के लिए उन्होंने वर्षों तक अध्ययन, कठिन तपस्या और चिन्तन में जीवन व्यतीत किया। अन्ततः उन्हें वैशाख माह की पूर्णिमा तिथि के दिन बिहार प्रान्त के उरुवेला (बोधगया) नामक स्थान पर बोधिवृक्ष (पीपलवृक्ष) के नीचे बोधि/ज्ञान प्राप्त हुआ।
ज्ञानप्राप्ति के पश्चात् बुद्ध ने अपने मत के प्रचार-प्रसार का निश्चय किया। उरुवेला से वे सर्वप्रथम ऋषिपत्तन (सारनाथ) आये। जहाँ उन्होंने पाँच ब्राह्मण संन्यासियों को अपना पहला उपदेश दिया। विदित हो कि ये पाँचों संन्यासी गौतम बुद्ध को कठोर साधना से विरत हुआ जानकर पहले ही उनका साथ छोड चुके थे। अतः बुद्ध ने सर्वप्रथम इन्हें ही उपदेश देने का निश्चय किया। इस प्रथम उपदेश को 'धर्मचक्रप्रवर्तन' (धम्मचक्कपवत्तन) की संज्ञा दी जाती है। यह उपदेश दुःख, दुःख के कारणों तथा उनके समाधान से संबन्धित था। इसी को 'चार आर्यसत्य' (चत्तारि आरिय सच्चानि) कहा जाता है; जो 'गौतम बुद्ध के चार आर्यसत्य' के नाम से प्रसिद्ध है। विदित हो कि उस समय लोगों को सही मार्ग पर लाने के लिए गौतम बुद्ध ने सर्वप्रथम आर्यसत्य का प्रयोग किया।
आर्यसत्य की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है- आर्यों के लिए सत्य, आर्य समुचित सत्य, आर्य (अर्हत्) लोग जिसे भली-भाँति जानते हैं।
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२२
जुलाई - २०१३ माध्यमिककारिकावृत्तिकार चन्द्रकीर्ति के अनुसार आर्यजन अर्थात् विद्वज्जन ही इन सत्यों के रहस्य को जानते हैं: पामर, दुष्ट, तुच्छ जन इन सत्यों को नहीं समझ सकते। उनके अनुसार पामर लोग हथेली के समान हैं और आर्यजन आँख की तरह
करतलसदृशो बालो न वेत्ति संस्कारदुःखतापक्ष्म। अक्षिसदृशस्तु विद्वान् तेनैवोद्वेजते गाढम् ।।
(माध्यमिककारिकावृत्ति पृ. ४७६) अतः करुणासागर बुद्ध ने जीवन के अपरिहार्य दुःखों से छुटकारा पाने के लिए मध्यम मार्ग के अनुसरण पर बल दिया जो इन चार आर्यसत्यों के ज्ञान द्वारा संभव है। ये चार सत्य निम्नवत् हैं
१. दुःख आर्यसत्य : 'सर्वं दुःखम्' अर्थात् संसार में सर्वत्र जन्म से लेकर मरण पर्यन्त दुःख ही दुःख है। जीवन अनेकविध दुःखों तथा कष्टों से परिपूर्ण है। जिन्हें हम सुख समझते हैं वे भी दुःखों से भरे पड़े हैं। सदा यह भय बना रहता है कि हमारे आनन्द कहीं समाप्त न हो जायें। आसक्ति से भी दुःख उत्पन्न होते हैं। संसार में नाना प्रकार के दुःख व्याप्त हैं, जैसे जन्म, मरण, रोग, शोक, वेदना, क्रोध, जरा, उदासीनता, दरिद्रता आदि। प्रिय का वियोग तथा अप्रिय का संयोग भी दुःख है। धम्मपद में कहा गया है कि संसार भवज्वाला से प्रदीप्त भवन के समान है। परन्तु सामान्यजन इसमें मग्न होकर जलते रहते हैं। । वस्तुतः गौतम बुद्ध का वचन सत्य था। योगदर्शन में भी कहा गया है"दुःखमेव सर्वं विवेकिनः' अर्थात् विवेकी पुरुष के लिए सब दुःख ही दुःख है। न्यायदर्शन के प्रणेता अक्षपाद गौतम ने भी 'दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानाम् उत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः' कहकर दुःख को प्रधान माना है।
'सुखमपि दुःखमेव' कहकर सुख को भी दुःख के अन्तर्गत माना गया है। अभिधर्मकोश में भी अनित्य एवं परिवर्तनशील जगत को दुःखात्मक कहा गया है। बुद्धदेशना में प्रतीत्यसमुत्पाद (कार्य-कारण सिद्धान्त) के द्वारा दुःखसमुदय के प्रश्न का समाधान हुआ।
२. दुःख समुदय आर्यसत्य : प्रत्येक कार्य का कोई ना कोई कारण अवश्य होता है। अतः दुःख का भी कारण है। क्योंकि बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। दुःख का मुख्य कारण अथवा हेतु तृष्णा है, जो अज्ञानी प्राणियों में पुनः पुनः उत्पन्न होती रहती है और जिसके कारण दुःख का बन्ध होता चला
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श्रुतसागर - ३० जाता है। यह तृष्णा मुख्यरूप से तीन प्रकार की है- (१) कामतृष्णा, (२) भवतृष्णा और (३) विभवतृष्णा। जीव इस तृष्णा के कारण नाना प्रकार के विषयों में अनुरक्त होते रहते हैं और उसी राग के कारण बन्ध होता है।
अतः तृष्णा प्राणियों के समस्त उपद्रवों का मूल है। चोरी, डकैती, युद्ध तथा अन्याय आदि तृष्णा के कारण ही होते हैं। इसका उन्मूलन करना प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है। महाभारत में भी तृष्णा का क्षय दुःख को दूर करने का प्रमुख साधन माना गया है।
३. दुःख निरोध आर्यसत्य : यह तृतीय आर्यसत्य है। यहाँ निरोध का अर्थ है रोकना। अतः दुःख का अन्त संभव है। चूंकि प्रत्येक वस्तु किसी ना किसी कारण से उत्पन्न होती है। यदि उस कारण का नाश कर दिया जाये तो वस्तु भी विनष्ट हो जायेगी। अर्थात् कारण समाप्त होने पर कार्य का अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा । अतः दु:ख के मूल कारण तृष्णा (अविद्या) का विनाश कर दिया जाय तो दुःख भी नष्ट हो जायेगा। इस दुःख निरोध को ही निर्वाण कहा गया है। यही जीवन का चरम लक्ष्य है। इसकी प्राप्ति जीवनकाल में भी संभव है। अतः निर्वाण का अर्थ जीवन का विनाश न होकर उसके दुःखों का विनाश है। इसकी प्राप्ति से पुनर्जन्म रुक जाता है तथा दुःखों का भी अन्त हो जाता है | गौतम बुद्ध ने इस अवस्था को वर्णनातीत कहा है।
४. दःख निरोधगामिनी मार्ग प्रतिपदा आर्यसत्य : यह दुःख निरोध तक पहुँचाने वाला मार्ग है। उपरोक्त कथनानुसार दुःख का मूल अविद्या है, और अविद्या के विनाश का उपाय अष्टांगिक मार्ग है। अष्टांगिक मार्ग को मध्यम मार्ग भी कहा गया है । इसके आठ अंग निम्नवत हैं- १. सम्यक दृष्टि, २. सम्यक संकल्प, ३. सम्यक् वाणी, ४. सम्यक् कर्म, ५. सम्यक् आजीविका, ६. सम्यक् व्यायाम, ७. सम्यक् स्मृति एवं ८. सम्यक् समाधि।
इस अष्टांगिक मार्ग का आधार शील, समाधि और प्रज्ञा हैं। गौतम बुद्ध ने शील, समाधि एवं प्रज्ञा को दुःख निरोध का साधन बताया है। यहाँ शील का अर्थ सम्यक् आचरण, समाधि का अर्थ सम्यक् ध्यान तथा प्रज्ञा का अर्थ सम्यक् ज्ञान से है। अतः कहा गया है कि शील तथा समाधि से प्रज्ञा की प्राप्ति होती है जिससे भवतृष्णा का क्षय होता है । यही सांसारिक दुःखों से मुक्ति पाने का मूल साधन है
शीलं समाधिप्रज्ञा च विमुक्ति च अनुत्तरा। अनुबुद्धा इमे धम्मा गौतमेन यसस्सिना।। (दीर्घनिकाय)
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जुलाई - २०१३ वस्तुतः इन चार आर्यसत्यों को चिकित्साशास्त्र में भी अपनाया गया है, जिसे चतुर्दूह-रोग, रोगहेतु, आरोग्य तथा भैषज्य की संज्ञा दी गई है। इसी प्रकार दर्शनशास्त्र में- दुःख, संसारहेतु (दुःख का कारण), मोक्ष (दुःख का नाश) तथा मोक्षोपाय कहकर इन चार सत्यों को स्वीकारा गया है। व्यासभाष्य में कहा गया है
यथा चिकित्साशास्त्रं चतुर्वृह- रोगो रोगहेतु: आरोग्यं भैषज्यमिति। एवमिदमपिशास्त्रं चतु—हं- तद्यथा संसार संसारहेतुः मोक्षो मोक्षोपाय इति।।
इस प्रकार गौतम बुद्ध के चार आर्यसत्य जन-जन को प्रेरित करने के लिए उत्तम उपाय हैं। जिनके अनुसरण द्वारा संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति मिल सकती है।
संदर्भ ग्रंथ १. बुद्धचिरतम्- अश्वघोषकृत। २. दीर्घनिकायपालि- बौद्धभारती वाराणसी से प्रकाशित । ३. प्रमाणवार्तिक- आचार्य धर्मकीर्तिकृत। ४. बौद्धधर्म के मूल सिद्धान्त- धर्मरक्षित भिक्षु। ५. बौद्धधर्म के विकास का इतिहास- जी.सी. पाण्डेय। ६. बौद्धदर्शन- राहुल सांकृत्यायन । ७. बौद्धधर्म के २५०० वर्ष- संपा. पी.वी. बापट। ८. बौद्धदर्शन मीमांसा- आचार्य बलदेव उपाध्याय। ९. संस्कृति के चार अध्याय- कवि रामधारीसिंह दिनकर। १०. बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन- डॉ. भगतसिंह उपाध्याय । ११. आचार्यधर्मकीर्तिकृत-प्रमाणवार्तिक आचार्यविद्यानन्दकृतप्रमाणपरीक्षायोः
तुलनात्मकमध्ययनम्, (शोधप्रबन्ध)- डॉ. उत्तमसिंह।
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जैन प्रतिमाओं की परम्परा
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डॉ. सत्येन्द्र कुमार
( गतांक से आगे )
सुपार्श्वनाथ के समय जैन स्तूप का निर्माण और विविधतीर्थकल्प में पार्श्वनाथ (९वीं-८वीं शती ई.पू.) के समय में सुपार्श्व के स्तूप का विस्तार और पुनरुद्धार हुआ था, इस तथ्य के आधार पर कहा जा सकता है कि जैन प्रतिमा सुपार्श्वनाथ से पार्श्वनाथ (९वीं-८वीं शती ई. पू.) के समय स्तूप पर रहे होंगे। यह बात जैनशास्त्रों और मथुरा के स्तूपावशेषों से स्पष्ट है कि जैन स्तूप पर मूर्तियाँ बनी होती थीं। अतः जैन प्रतिमा की प्राचीनता सुपार्श्वनाथ के समय तक जाती है। हड़प्पाकाल के बाद और मौर्यकाल के पहले तक कला का माध्यम काष्ठ ही रहा है इस बात की पुष्टि साहित्यिक और पुरातात्विक स्रोतों से होती है, इसलिए इन कालों के बीच जैन प्रतिमा के पुरातात्त्विक अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं। अब भी पूर्व भारत में पुरी नामक स्थान में जगन्नाथ, बलराम तथा सुभद्रा की प्रतिमाएँ लकड़ी की प्रतिमाओं का ज्वलन्त उदाहरण हैं ।
कलिंग नरेश खारवेल के ई. पू. द्वितीय शती के हाथीगुम्फा अभिलेख के आधार से प्रामाणित है कि नंदवंश के राज्यकाल अर्थात् ई.पू. पाँचवी - चौथी शती में जिन मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की जाती थीं. ऐसी ही एक जिनमूर्ति को नन्दराजा कलिंग से अपहरण कर ले गये थे और उसे खारवेल दो-तीन शती बाद वापस लाया था। हाथीगुम्फा लेख के आधार पर जिनमूर्ति की प्राचीनता लगभग चौथी शती ई. पू. तक जाती है ।
मौर्यकाल की सर्वप्राचीन चमकदार आलेप युक्त जैन प्रतिमा (लगभग तीसरी शती ई. पू.) बिहार के लोहानीपुर (पटना) नामक स्थान से प्राप्त हुई है व पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। प्रतिमा के अतिरिक्त उसी स्थल से उत्खनन् से प्राप्त होने वाली मौर्ययुगीन ईटें एवं एक रजत आहत मुद्रा भी मूर्ति के मौर्यकालीन होने के साक्ष्य हैं। मौर्यकालीन ईटें मिलने से वहाँ पर जैन स्तूप और उस पर प्रतिमा हो ऐसी संभावना हो सकती है। लोहानीपुर जिनमूर्ति के बाद लगभग दूसरीपहली शती ई. पू. की पार्श्वनाथ की एक कांस्य मूर्ति प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई में संगृहीत है जिसमें मस्तक पर पाँच सर्पफणों के छत्र से युक्त पार्श्व निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े हैं। लगभग पहली शती ई. पू. समय की एक पार्श्वनाथ मूर्ति बक्सर जिले के चौसा ग्राम से प्राप्त हुई है, जो पटना
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जुलाई - २०१३ संग्रहालय में है। इन प्रारम्भिक मूर्तियों में वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिन्ह उत्कीर्ण नहीं है।
लगमग दूसरी शती ई.पू. के मध्य में जैन कला को प्रथम पूर्ण अभिव्यक्ति मथुरा में मिली। यहाँ शुंगयुग से मध्ययुग (द्वितीय शती ई. पू. से १०२३ई.) तक जैनमूर्ति सम्पदा का वैविध्यपूर्ण भण्डार प्राप्त होता है। कुषाणकाल में जिनों की ही सर्वाधिक मूर्तियाँ बनीं। जिन या तीर्थंकर ही जैनों के प्रमुख आराध्य देव हैं जिन्हें देवाधिदेव भी कहा गया है। आयागपट मथुरा की प्राचीनतम जैन शिल्प सामग्री है। इसका निर्माण शुंग-कुषाण युग में प्रारम्भ हुआ और कुषाण युग के बाद इसका निर्माण बंद हो गया। कुषाणकाल में ऋषभनाथ, संभवनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर की मूर्तियाँ बनीं। जिनकी पहचान पीठिका लेखों में उत्कीर्ण उनके नामों के आधार पर की गई है क्योंकि कुषाणकाल तक जिन लांछनों का अंकन प्रारम्भ नहीं हुआ था। जिनमूर्तियों के वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह का उत्कीर्णन लगभग पहली शती ई. पू. में मथुरा में प्रारम्भ हुआ।
गुप्तकाल में मंदिरों के निर्माण की परम्परा के प्रारम्भ के बाद स्वतंत्र मूर्तियों के निर्माण की परम्परा क्रमशः समाप्त होती गयी। गुप्तकाल में कुषाणकाल की तुलना में काफी कम मूर्तियाँ बनी गुप्तकाल में केवल ऋषभनाथ, नेमिनाथ, एंव पार्श्वनाथ जिनों की ही मूर्तियाँ बनी। गुप्तकाल में अन्यत्र जिनों के लांछनों का अंकन प्रारम्भ हो गया था, जिनके दो उदाहरण राजगीर और वाराणसी की नेमिनाथ और महावीर की मूर्तियाँ हैं। मूर्तियों में यक्ष-यक्षिणी युगलों एवं अष्टप्रतिहार्यों का भी अंकन होने लगा था।
गुप्तोत्तरकाल की राजघाट (वाराणसी)से लगभग सातवीं शती ई. की एक ध्यानस्थ जिनमूर्ति मिली है, जो भारत कला भवन, वाराणसी मे संगृहीत है। मध्यकाल की मूर्तियाँ भी विभिन्न राज्यों से मिली हैं जिसमें गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल आदि हैं। गुजरात की जैन मूर्तियों में जिन मूर्तियों की संख्या सबसे अधिक है। गुजरात में तीर्थंकर के जीवनदृश्यों एवं समवसरणों का चित्रण विशेष लोकप्रिय था। मध्यकाल में प्रतिमा का निर्माण अधिकांशतः मंदिरादि की भित्तयों के अलंकरण के लिए किया गया। जिनों की स्वतंत्र मूर्तियों के अतिरिक्त देवगढ में द्वितीर्थी, त्रितीर्थी, चौमुखी मूर्तियां एवं चौबीसी पट्ट का भी निर्माण हुआ। लगभग नवीं-दसवीं शती ई. तक मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से जिन मूर्तियाँ विकसित हो चुकी थीं। पूर्ण विकसित मूर्तियों में लांछनों, यक्ष-यक्षी युगलों एवं अष्टप्रतिहार्यों के साथ ही परिकर में दूसरी छोटी
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श्रुतसागर - ३०
२७ जिन-मूर्तियाँ, नवग्रह, गज, महाविद्याएँ एवं अन्य आकृतियाँ हैं।
साहित्यिक और पुरातात्त्विक तथ्यों के आधार पर जैन प्रतिमा की निरन्तरता हड़प्पा काल से लेकर मध्यकाल और आधुनिक काल तक देखी जा सकती है। एक निश्चित अर्थ एवं उद्देश्य से युक्त संपूर्ण जैन कला पूर्व-परम्पराओं के निश्चित निर्वाह के साथ ही साथ धर्म एवं सामाजिक धारणाओं में होने वाले परिवर्तनों से भी सदैव प्रभावित रही है। जैन कला वस्तुतः धार्मिक एवं सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति रही है। कलाकार और समाज की कल्पना की साकारता यद्यपि विभिन्न कालों में प्रतिमाओं का माध्यम भिन्न (पाषाण, काष्ठ, धातु, मृण्यमूर्ति) रहा है। जैन धर्म की वैचारिक उदारता, दार्शनिक गम्भीरता, लोकमंगल की उत्कृष्ट भावना, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के इतिहास में इसका अवदान महत्वपूर्ण है।
संदर्भ ग्रंथ १. देवगढ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन - भागचन्द्र जैन २. जैन प्रतिमा विज्ञान - मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी ३. हड़प्पा आर्ट,नई दिल्ली, २००७ - डी.पी. शर्मा ४. जैन साहित्य का बृहद इतिहास - बेचरदास जीवराज दोशी ५. जैन मूर्तियाँ - कामता प्रासाद ६. जैन इमेज ऑफ मौर्य पिरियड - के.पी.जायसवाल ७. भारतीय कला - वासुदेवशरण अग्रवाल
સુવિચાર છે નિંદા પાળેલા કબૂતર જેવી છે. પાળેલાં કબૂતર પોતાના માલિકના ઘરે જ
પાછા ફરે છે. જ નિર્ણય લેવાની શક્તિ અનુભવોમાંથી અને અનુભવ ખોટા નિર્ણય લેવામાંથી
भणे छे.
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આચાર્યશ્રી કલાસસાગરસૂરિજ્ઞાનમંદિર, કોબા
સંક્ષિપ્ત કાર્ય અહેવાલ જૂન-૧૩ જ્ઞાનમંદિરના વિવિધ વિભાગોના કાર્યોમાંથી જૂન-૧૩માં થયેલાં મુખ્ય-મુખ્ય કાર્યોની નોંધ નીચે પ્રમાણે છે. ૧. હસ્તપ્રત કેટલૉગ પ્રકાશન કાર્ય અંતર્ગત કેટલૉગ નં. ૧૬ માટે કુલ ૩૨૭
પ્રતો સાથે ૧૩૨૩ કૃતિલિંક થઇ અને આ માસાંત સુધીમાં કેટલૉગ નં. ૧
માટે ૩પ૧૦ લિકનું કાર્ય પૂર્ણ થયું. ૨. હસ્તપ્રતોના ૯૯૦૭૦ પૃષ્ઠો પ્રીન્ટેડ પુસ્તકોના ૧૦૩૯૮ મળી કુલ ૭૬૪૬૮નું
સ્કેનીંગ કાર્ય કરવામાં આવ્યું. ૩. સાગર સમુદાય ગ્રંથ તથા વિશ્વ કલ્યાણ ગ્રંથ પુનઃ પ્રકાશન પ્રોજેક્ટ હેઠળ કુલ
પ૩૭ પાનાઓની ડબલ એન્ટ્રી કરવામાં આવી. ૪. લાયબ્રેરી વિભાગમાં પ્રકાશન એન્ટ્રી અંતર્ગત કુલ ૨૪૪ પ્રકાશનો, ૧૧૮૦ પુસ્તકો, ૭૮૭ કૃતિઓ તથા પ્રકાશનો સાથે ૧૧૨૦ કૃતિલિંક કરવામાં આવી. આ સિવાય ડેટા શુદ્ધિકરણ કાર્ય હેઠળ જુદી-જુદી માહિતીઓ સુધારવામાં
આવી. ૫. મેગેઝીન વિભાગમાં ૮૧ મેગેઝીનોના અંકોની એન્ટ્રી તથા ૭ર પેટાંકો સાથે
ફક કૃતિઓ લિંક કરવામાં આવી. ૩. ૪ વાચકોને ૯ ગ્રંથોના ૨૨૯૨ પૃષ્ઠોની ઝેરોક્ષ નકલ ઉપલબ્ધ કરાવવામાં આવી, તેમજ વાચકોને કુલ ૯૩૨ પુસ્તકો ઇશ્ય થયાં તથા ૪૭૮ પુસ્તકો
જમા લેવામાં આવ્યાં. ૭. રૂ. ૩૧૭૩પની કિંમતના પુસ્તકો વિવિધ પુસ્તક વિક્રેતાઓ તરફથી ખરીદવામાં
આવ્યાં. તેમજ ભેટકર્તાઓ તરફથી ૧૧૧૦ પુસ્તકો ભેટ સ્વરૂપ પ્રાપ્ત થયા. ૮. રાણકપુર તીર્થ (રાજસ્થાન)ને ૨૩૨ હિન્દી પુસ્તકો ભેટ સ્વરૂપ મોકલવામાં
આવ્યાં. ૯. વાચકસેવા અંતર્ગત પ. પૂ. સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતો, સ્કૉલરો, સંસ્થાઓ વિગેરેને ઉપલબ્ધ માહિતીના આધારે જુદી-જુદી ક્વેરીઓ તૈયાર કરી આપવામાં આવી, જેમાંથી તેઓ દ્વારા જરૂરી પુસ્તકો તથા હસ્તપ્રતોના ડેટાનો તેઓના કાર્યમાં ઉપયોગ કરવામાં આવ્યો.
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श्रुतसागर ३०
૧૦. સમ્રાટ્ સંપ્રતિ સંગ્રહાલયની મુલાકાતે ૮૬૦ યાત્રાળુઓ પધાર્યા. ૧૧. આ સમયગાળામાં મુ. ચારિત્રરત્નવિજય મ.સા તથા વિદેશી સ્કોલરો લીના ધનાની તથા એલિના ગૌફ વગેરેને તેમના શોધકાર્યમાં જોઈતી માહિતીઓ પૂરી પાડવામાં આવી.
૧૨. શ્રુતસાગરનો જુન-૨૦૧૩નો અંક નં-૨૯ પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવ્યો અને તેનું પોસ્ટીંગ કરવામાં આવ્યું.
૧૩. તા. ૧૫.૦૬.૧૩ના ટ્રસ્ટ મંડળની મીટીંગ માટે જ્ઞાનમંદિરના મહત્ત્વના કાર્યના મુદ્દાઓનો રીપોર્ટ તેમજ વર્ષ ૨૦૧૩-૧૪ના કરવા જેવા અગત્યના કાર્યની નોંધ પણ તૈયાર કરવામાં આવી.
સુવિચાર્યે
૧. સૌંદર્યના નાશવંત સ્વરૂપનું પ્રતીક સમવા માટે જ કુદરતે પુષ્પોનું સર્જન કર્યું છે.
૨. તમારી પાસે કેટલી વસ્તુઓ છે તે નહીં, પણ તમે કેટલી વસ્તુ વિના ચલાવી શકો છો તે તમારી સમૃદ્ધિ છે.
૩. અનુભવ એ સારામાં સારો શિક્ષક છે, પણ એની ફી બહુ ભારે છે.
૪. મહાન અને સુંદર વિચારોથી મનનો ઉછેર કરો, કારણ કે મનુષ્ય વિચારો કરતા વધારે ઉંચે ક્યારેય જો નથી.
२९
૫. નળમાંથી આવતું પાણી એ નળનું નથી પણ ટાંકીનું છે એમ આપણે જે કાંઈ ભોગવીએ છીએ એ પુણ્ય આપણું નહીં પ્રભુનું છે, પ્રભુની કૃપાનું છે.
(હંસા તો મોતી ભૂગેમાંથી સાભાર)
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સમાચાર સા
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અમદાવાદના આંબાવાડી જૈનસંઘમાં
પૂજ્ય આચાર્યશ્રી પદ્મસાગરસાગરસૂરીશ્વરજી મ. સા. નો ઐતિહાસિક ચાતુર્માસ પ્રવેશ
સંઘભક્તિની ગેલમાં... :
અમદાવાદના આંબાવાડી શ્વે. મૂ. પૂ. જૈન સંઘમાં વર્ષાવાસ ક૨વાની આજીજી ભરી અને લાંબાસમયની વિનંતીને સ્વીકારી પ. પૂ. રાષ્ટ્રસંત આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્ પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મ. સા. આદિ ઠાણા આંબાવાડી જૈન સંઘમાં વર્ષોવાસ કરવા પધારતા સમગ્ર આંબાવાડી જૈન સંઘના સભ્યોના હૈયા આનંદની લહેરખીથી નાચી ઉઠ્યા હતાં અને તા. ૧૪-૭-૧૩ને રવિવાર, અષાઢ સુદ છઠ્ઠના દિવસે પૂ. ગુરૂભગવંતોનું સામૈયું કરવા સેટેલાઇટ-ફન રીપલ્બીક સામે આવેલી આર્જવ સોસાયટીમાં શેઠ શ્રી મનીષભાઈ શાહના નિવાસસ્થાને ઉછળતા કુદતા, ભક્તિભર્યા હૈયે વહેલી સવારથી ઉમટી પડ્યા હતાં. મહેમાનોને નવકારશી કરાવવાનો લાભ શ્રી મનીષભાઇએ લીધો અને પછી તુરંત સુશોભાયમાન ગજરાજો અને બહુલક્ષણા અશ્વોની સાથે, ગુજરાતની પરંપરા પ્રમાણે દાંડિયારાસ, ભાતીગળ કલાકાર વૃંદ, હૈયાના હરખને વ્યક્ત કરતા રમુજી વેશભૂષા ધારણ કરનાર, એમ કહો કે સંસ્કૃતિની વિવિધ ઝલક આપતા કર્ણપ્રિય અને ભક્તિપદોની ધૂન સાથે સુરીલી સુરાવલીની સરકતી સરીતા સાથે જૂલુસનો પ્રારંભ થયો અને ત્રણેક કિ.મી. જેટલા લાંબા માર્ગમાં ઠેર ઠેર માનવ મહેરામણ પૂ. ગુરૂદેવ શ્રી પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજીની એક ઝલક અને મુખારવિંદના દર્શન કરવા ઉમટી પડી હતી, અને પૂ. ગુરૂદેવ પોતાની લાક્ષણિક મુદ્રામાં સૌને પોતાના હાથને ઊંચો કરી આશીર્વાદની અમીવૃષ્ટિ
કરતા હતા.
વરસાદે વિહાર માટે વિરામ લીધો :
આગળના દિવસે અને રાત્રે અનરાધાર વરસેલો વરસાદ પણ વિસામો લઇ પૂ. ગુરૂદેવશ્રીના વર્ષાવાસ મહોત્સવના જુલૂસને નિહાળવા જાણે કે થંભી ગયો હતો, ‘જિનશાસનનો જયજયકાર’ ‘ગુરૂજી અમારો અંતરનાદ અમને આપો આશિર્વાદ’ના ગગનભેદી નારાથી ગાજતી શોભાયાત્રા વર્ષાવાસના વિશિષ્ઠ પ્રવચનો અને અનુષ્ઠાન માટે ઉભા કરેલ, શમિયાણામાં આવી પહોંચતા ઉપસ્થિત વિશાળ મેદનીએ પૂ. શ્રીનું નતમસ્તકે, હૃદયના ભાવથી સ્વાગત કર્યું હતું,
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श्रुतसागर - ३०
વર્ષાવાસના કાર્યક્રમો :
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३१
પૂ. મુનિરાજ શ્રી વિમલસાગરજી મ. સા. એ તેમની ધારદાર વાણીમાં ચાતુર્માસ કહો કે વર્ષાવાસની અને આ સમયગાળા દરમ્યાન ધર્મ, ચારિત્ર્ય, અહિંસા-પ્રેમ, જાગૃતિ જેવા વિષયોને આવરી લેતા કાર્યક્રમોનું મહત્ત્વ એક અલગ અંદાજમાં સમજાવતા શમીયાણામાં ઉપસ્થિત જંગી મેદની આફરીન પોકારી ગઈ હતી.
૫. પૂ. ગણિવર્ય શ્રી પ્રશાંતસાગરજી મ. સાહેબે તપ-જપ-સંયમ જેવા વિષયોને આવરી લઈ ચાતુર્માસમાં ધર્મપરાયણ બની જીવનને ધર્મથી વણી લેવાના અવસરને આવકારી સૌને ધર્મ-ન્યાય-નીતિ અને સદાચારના માર્ગે ચાલવા તેમની વિશિષ્ઠ વાણીમાં પ્રેરણા આપી હતી.
લાખેણું ગુરૂપૂજન :
પૂ. શ્રીઓને કામળી ઓઢાડવા અને વર્ષાવાસનું પ્રથમ ગુરૂપૂજન કરવાની બોલી બોલવામાં ઉપસ્થિત સૌ જૈન-જૈનેતરોએ જબરદસ્ત ઉત્સાહ બતાવ્યો, અને લાખો રૂપિયા ખર્ચી આ લાખેણો લાભ લીધા હતાં. મુંબઈના એક ગ્રુપે કામળી ઓઢાડવાનો અને શ્રી મનીષભાઇએ ગુરૂપૂજનનો લાભ પોતાના પરિવારના સદસ્યો, સ્નેહીઓ અને મિત્રો સાથે લીધો હતો. જૈન સંગીતકાર શ્રી ઋષભ શાહે પોતાના મધુર કંઠે ભક્તિગીત અને સ્વાગત ગીત સંગીતના સાતે સૂરો સાથે રજુ કર્યું હતું.
સોને પ્રસન્નતા જોઇએ છે :
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રાષ્ટ્રસંત પ. પૂ. આચાર્ય ભગવંત શ્રીમદ્ પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મ. સા. એ પોતાની આગવી શૈલીમાં જણાવ્યું હતું કે તીર્થંકર ભાષિત ધર્મ અતિમહાન અને પ્રાચીન છે તેઓશ્રીએ જણાવ્યું હતું કે સૃષ્ટિના સહુ જીવો સુખ-શાંતિનું વરદાન ઇચ્છે છે, તનની સ્વસ્થતા અને મનની પ્રસન્નતા સૌ ઝંખે છે એમ કહી પૂજ્યશ્રીએ ઉમેર્યું કે કર્મના બંધન તોડી, મુક્ત બની સૌ ઉડાન કરે અને સૌ સુજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરે તેવી શુભેચ્છાઓ છે. પૂજ્યશ્રીએ વધુમાં જણાવ્યું કે વર્ષાવાસ દરમ્યાન મારો અને અમારા સહુનો પ્રયાસ એ જ રહેશે કે પ્રત્યેક પરિવારમાં શુદ્ધ પ્રેમની સરવાણી ફુટે, ફ્લેશ અને સંતાપનું વાતાવરણ ખતમ થાય, કટુતા અને કડવાશ ક્યાંય ન રહે તેને સંલગ્ન પ્રવચન-અનુષ્ઠાન આદિનું આયોજન કરવામાં આવશે. પ. પૂ. આચાર્યદેવેશ શ્રીમદ્ કૈલાસસાગરસૂરીશ્વરજીના આશીર્વાદ અને પુણ્ય પ્રયાસોથી શ્રી આંબાવાડી જૈન સંઘની સ્થાપના ૩૩ જેટલા વર્ષો અગાઉ ફક્ત ૨૭ પરિવારના
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जुलाई · २०१३ સભ્યો દ્વારા થઇ હતી જે આજે પૂજ્યશ્રીની અવિરત કૃપાથી આજે ૧૧૦૦ ઘરના સભ્યોનો બનેલો આ સંઘ છે જે ઉત્તરોત્તર પ્રગતિ કરતાં રહે અને જૈનધર્મનો જયજયકાર કરતો-કરાવતો રહે તેવા આશિષ આપ્યા હતા.
વર્ષાવાસ મહોત્સવનો પ્રારંભે સંઘ પ્રમુખ શ્રી ચીનુભાઇ શાહ સ્વાગત પ્રવચન કરી શ્રી સંઘના ઇતિહાસની ઝાંખી કરાવી હતી. ભાવિક મહેમાનોથી શમિયાણો છલકાયો :
આ સમારંભમાં ગુજરાત રાજ્યના શિક્ષણમંત્રી શ્રી ભૂપેન્દ્રસિંહ ચુડાસમા મહાનગરી મુંબઇના નગરપતિ શ્રીમાન નરેન્દ્રભાઇ મહેતા, પૂર્વ ગૃહરાજ્યમંત્રી શ્રી પ્રફુલભાઇ પટેલ, સિરોહીના મહારાજા શ્રીમાન રઘુવીરસિંહજી અને જાણીતા ઉદ્યોગપતિ શ્રી રમણીકભાઇ અંબાણી, ધારાસભ્યશ્રી રાકેશભાઇ શાહ, મ્યુનિ. સ્ટેન્ડીંગ કમીટીના ચેરમેનશ્રી ભૂપેન્દ્રભાઈ પટેલ, પાલડી-વાસણા-આંબાવાડીસાબરમતી વિગેરે વોર્ડના મ્યુનિ. કાઉન્સીલરશ્રીઓ અને અનેક ગણમાન્ય મહાનુભાવો મોટી સંખ્યામાં ઉપસ્થિત થયા હતાં.
સમગ્ર સમારોહનું સંચાલન શ્રી જીતુભાઈ શાહે કર્યું હતું.
સમારોહના અંતે ઉપસ્થિત સૌને માટે સ્વામિવાત્સલ્યનો લાભ શ્રી મનીષભાઇ શાહ પરિવારે લીધો હતો.
બારીની જાળીમાંથી હાથ નાખી ચણા લેવાના પ્રયાસમાં એક વાનર ચણા મુઠ્ઠીમાં ભરી લે છે પણ પછી મહી વાળેલો હાથ બહાર નીકળતો નથી અને વાનર મુંઝાય છે ત્યાં એને એક સાધુ ભગવંત સમજાવે છે કે ચણા મુકી દે, મહી ખુલી જશે, ફસાયેલો હાથ નીકળી જશે... અને હાથ નીકળી જાય છે ત્યાગથી મુક્તિ મળે છે.
– આચાર્યશ્રી પદ્મસાગરસુરીશ્વરજી મ. સા.
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पू. गुरुदेवश्रीना चातुर्मास प्रवेश प्रसंगनी पावन क्षणो
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जागरण का महाप
ट्रसंतपय
ANSARKARSAIRAT
महाराज
यशस्वी
वर्षावासवे जागरण पर्व बवावतार पू. गुरुदेवश्री पोताना विशाल समुदाय साचे.
'अमे तमारा छीए' नी लागणी अभिव्यक्त करता श्री संघना सभ्यो अने गुरुभक्तो.
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मासाशनाका निवारा सामानमासझिायानाकपनियो श्राकला अामतालछलाबसिामगडियादित वाणिग्राणवाआमहालालालिमा निशाणाकतालयानतिनवाप्रति गानाकणामाणावणयविदितिने यागरसिवाएवसिवाकबडभिव पडएसिवानागरसिवादासुद्धा सिनारायदाणिसिवाममंसिवानि। सिवा घाममिवासियसिवाड़ालन विमित्राबाहरियसिकप्पतिनिघाणादा पारसंगामंसिवामनिवसंशिवाजाब BOOK-POST / PRINTED MATTER प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर - 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फेक्स : (079) 23276249 E-mail : gyanmandir@kobatirth.org website : www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only