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श्रुतसागर - ३०
सौभाग्यवती, सस्नेहलवती, अतिजागती, रूडावती, भायगवती, उपगारवती, समरथवती, साचावती आदि प्रकाशित रूप में यह रचना दृष्टिपथ में नहीं आयी. काफी ढूढने पर पांडुलिपि में ये दो प्रतियाँ उपरोक्त ज्ञानभंडार से मिल पायी है. इसे लोक समक्ष लाने की भावना कैलास श्रुतसागर सूचीपत्र के संपादन अंतराल में हुई. इस कृति को संपादन करने की भावना इस स्तवन की दूसरी व तीसरी कड़ी में वर्णित प्रसंग नलोडा में प्रतिष्ठित पद्मावती से है. योगानुयोग से राजनगर ( अहमदाबाद) के पूर्वभाग नरोडा ग्राम में प्रतिष्ठित पार्श्वपद्मावती के पावन दर्शन का लाभ मिला, सूचीपत्र हेतु प्रस्तुत प्रतसंपादन के क्रम में अनायास प्रस्तुत कृति को प्रकाशित करने हेतु मन आंदोलित होने लगा. तीसरी कड़ी में उल्लिखित 'ऊत्तम गाम नलोडं (डुं) ठाम, साचुं तीरथ अतिह अभिराम । सचराचर साची दीपती, नित हुं वायुं पदमावती ||३||
नलोडा तथा पद्मावतीमाता का नाम नरोडा में प्रतिष्ठित पद्मावतीमाता दोनो साम्य-सा प्रतीत होता है, परंतु प्रामाणिक रूप से कहा नहीं जा सकता कि नरोडा में स्थित पद्मावतीमाता को ही लक्ष्य में रखकर यह रचना की गयी है. इसके साथ अनुमानित रचनाकाल, राजा नल द्वारा बसाया गया नलोडापुर, राजा नल भी इक्ष्वाकुवंशीय होने से ये कौशलदेश के राजा थे इसमें संशय नहीं होता. अतः इस कृति में उल्लिखित नगर व माता पद्मावती, वस्तुतः आज किस नगर में प्रतिष्ठित माताजी हेतु इंगित करता है, इसे गवेषक लोग ही अपनी गवेषणा में योग्य स्थान देकर प्रामाणिक सिद्ध करें एतदर्थ उन्हें निवेदन करते हैं.
कर्ता परिचय :
रचना अंतर्गत कर्ता ने अपने नाम के अतिरिक्त कुछ भी उल्लेख नहीं किया है. इससे इनके सरल भाव का परिचय मिलता है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में खेम (क्षेम) कुशल रचित व लिखित कई नाम मिलते हैं जो इस प्रकार है- १. खेमकुशल-कालमानसूचनारहित. इनके द्वारा रचित फलवृद्धि पार्श्वजिन स्तवन. इस कृति के अंत में उल्लिखित 'पूज रविसु मनरंगी' कथन से रविकुशल के शिष्य संभवित है. ज्ञानमंदिर में उपलब्ध प्रत क्रमांक-३२२७९ वि. १८वी के होने से इनके सत्तासमय का अनुमान किया जा सकता है कि ये वि. १७-१८वी के मध्य संभव है. २. क्षेम (खेम) कुशल - तपागच्छीय विजयहीरसूरिशिष्य विजयसेनसूरि परंपरावर्ती. रोहिणीतपगर्भित वासुपूज्य जिन स्तवन, २४जिन स्तुति - गुरूनामगर्भित पंचबोल व श्रावकाचार चौपाई इनकी रचनाएँ हैं. इनका समय वि. १७वी होना चाहिये. ३. खेमकुशल- इनके द्वारा संवत् १७१८ में लिखित संग्रहणीसूत्र नामक प्रत है. इसमें दयाकुशल के प्रशिष्य व रविकुशल के शिष्य रूप में उल्लेख मिलता है. उपरोक्त साक्ष्यों से पता चलता है कि इस कृति के प्रणेता विजयसेनसूरि की
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