Book Title: Shrutsagar Ank 2013 07 030
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 28
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जुलाई - २०१३ संग्रहालय में है। इन प्रारम्भिक मूर्तियों में वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिन्ह उत्कीर्ण नहीं है। लगमग दूसरी शती ई.पू. के मध्य में जैन कला को प्रथम पूर्ण अभिव्यक्ति मथुरा में मिली। यहाँ शुंगयुग से मध्ययुग (द्वितीय शती ई. पू. से १०२३ई.) तक जैनमूर्ति सम्पदा का वैविध्यपूर्ण भण्डार प्राप्त होता है। कुषाणकाल में जिनों की ही सर्वाधिक मूर्तियाँ बनीं। जिन या तीर्थंकर ही जैनों के प्रमुख आराध्य देव हैं जिन्हें देवाधिदेव भी कहा गया है। आयागपट मथुरा की प्राचीनतम जैन शिल्प सामग्री है। इसका निर्माण शुंग-कुषाण युग में प्रारम्भ हुआ और कुषाण युग के बाद इसका निर्माण बंद हो गया। कुषाणकाल में ऋषभनाथ, संभवनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर की मूर्तियाँ बनीं। जिनकी पहचान पीठिका लेखों में उत्कीर्ण उनके नामों के आधार पर की गई है क्योंकि कुषाणकाल तक जिन लांछनों का अंकन प्रारम्भ नहीं हुआ था। जिनमूर्तियों के वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह का उत्कीर्णन लगभग पहली शती ई. पू. में मथुरा में प्रारम्भ हुआ। गुप्तकाल में मंदिरों के निर्माण की परम्परा के प्रारम्भ के बाद स्वतंत्र मूर्तियों के निर्माण की परम्परा क्रमशः समाप्त होती गयी। गुप्तकाल में कुषाणकाल की तुलना में काफी कम मूर्तियाँ बनी गुप्तकाल में केवल ऋषभनाथ, नेमिनाथ, एंव पार्श्वनाथ जिनों की ही मूर्तियाँ बनी। गुप्तकाल में अन्यत्र जिनों के लांछनों का अंकन प्रारम्भ हो गया था, जिनके दो उदाहरण राजगीर और वाराणसी की नेमिनाथ और महावीर की मूर्तियाँ हैं। मूर्तियों में यक्ष-यक्षिणी युगलों एवं अष्टप्रतिहार्यों का भी अंकन होने लगा था। गुप्तोत्तरकाल की राजघाट (वाराणसी)से लगभग सातवीं शती ई. की एक ध्यानस्थ जिनमूर्ति मिली है, जो भारत कला भवन, वाराणसी मे संगृहीत है। मध्यकाल की मूर्तियाँ भी विभिन्न राज्यों से मिली हैं जिसमें गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल आदि हैं। गुजरात की जैन मूर्तियों में जिन मूर्तियों की संख्या सबसे अधिक है। गुजरात में तीर्थंकर के जीवनदृश्यों एवं समवसरणों का चित्रण विशेष लोकप्रिय था। मध्यकाल में प्रतिमा का निर्माण अधिकांशतः मंदिरादि की भित्तयों के अलंकरण के लिए किया गया। जिनों की स्वतंत्र मूर्तियों के अतिरिक्त देवगढ में द्वितीर्थी, त्रितीर्थी, चौमुखी मूर्तियां एवं चौबीसी पट्ट का भी निर्माण हुआ। लगभग नवीं-दसवीं शती ई. तक मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से जिन मूर्तियाँ विकसित हो चुकी थीं। पूर्ण विकसित मूर्तियों में लांछनों, यक्ष-यक्षी युगलों एवं अष्टप्रतिहार्यों के साथ ही परिकर में दूसरी छोटी For Private and Personal Use Only

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