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SHRUTSAGAR
MAY-JUNE-2015 होता है। प्रत्येक श्लोक के ईश्वरीशब्दयुक्त विशिष्ट विशेषण जानने योग्य है। यथा१. विश्वेश्वरी २. वागेश्वरी
३. विद्येश्वरी ४. पञ्चतत्त्वेश्वरी
५. विद्यामहत्त्वेश्वरी ६. देवेश्वरी ७. इष्टेश्वरी ८. गङ्गेश्वरी
९. शुभ्रध्यानेश्वरी १०. बालास्वरूपेश्वरी ११. बीजेश्वरी
१२. मन्त्रेश्वरी १३. ज्ञानेश्वरी एवं १४. इन्द्रेश्वरी.
उक्त नामों के अतिरिक्त शेष अन्य भी विशेषणयुक्त नाम हैं जिनका संग्रह किया जाय तो एक अच्छी नामावली बन सकती है। इस प्रकार विविधगुणगुम्फित यह स्तोत्र श्रुतरसिक वाचकों के लिये काफी रसप्रद सिद्ध होगा। कहीं-कहीं पाठान्तर भी हैं। फिर भी दोनो प्रतों के पाठ लगभग समान हैं।
बीजमन्त्रों का जाप एवं उसकी साधना के लिये जो संकेत किया गया है वह भी ज्ञानप्रद है। विशेष रूप से बीजमन्त्रों का रहस्य, संकेत, प्रक्रिया, साधनापद्धति आदि का विस्तृत विवेचन तो मन्त्रज्ञ विद्वान ही भली-भाँति कर सकते हैं। यह कृति संभवतः अप्रकाशित-सी प्रतीत होती है. यदि कहीं अन्यत्र प्रकाशित हुई हो तो बहुत अच्छी बात है, किन्तु अब तक यह कृति कहीं नजर में नहीं आयी है। सुज्ञ वाचकों के करकमलों में नयी-नयी कृतियाँ देखने को मिलती रहें, जिससे कि इन कृतियों पर अधिकतम कार्य हो सके तथा पाठक अधिकाधिक लाभ उठा सकें। कर्ता परिचय
कर्ता ने प्रशस्ति के अंदर अपने नाम के अलावा कुछ भी उल्लेख नहीं किया है। मात्र “विजयरत्नभुजिष्यसुरोऽवदत्” शब्द से कर्ता का विजयरत्न नाम स्पष्ट होता है। ये किनके शिष्य हैं, किस गच्छ के अनुयायी हैं, किस काल में हुए हैं? आदि सूचनाएँ नजरों से ओझल हैं।
विजयरत्न या विजयरत्नसूरि नामक विद्वान अलग-अलग गच्छ के अलग-अलग गुरूनामवाले कई मिलते हैं। परन्तु जबतक स्पष्ट संदर्भ न मिले तबतक ये किनके शिष्य है, यह बताना आधारहीन होगा। यह भी सम्भव है कि नाम में शब्दान्तर हो, विजयरत्न की जगह रत्नविजय भी हो सकता है। रचना शैली देखने से एक अनुमान होता है कि वि. सं. १८वीं की कृति होनी चाहिये, अतः कर्ता का भी समय अनुमानतः वि.सं.१८वीं के आसपास रखना ठीक लगता है।
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