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SHRUTSAGAR
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MAY-JUNE-2015
आज भी अनेकों महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लोगों के घरों में रखें हुए हैं एवं असुरक्षित और अप्रकाशित हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थभण्डारों में हमारी प्राचीन हस्तप्रत - संपदा को सुव्यवस्थित एवं सुरक्षित तरीके से रखा हुआ है और वहाँ के पण्डित इन ग्रन्थों के सम्पादन एवं प्रकाशन - कार्य में संलग्न हैं। सौभाग्य से मुझे भी अहमदाबाद एवं गांधीनगर के मध्य स्थित श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा के ज्ञानभण्डार में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ है।
इस भण्डार में लगभग दो लाख से अधिक पाण्डुलिपि ग्रन्थ संगृहीत हैं । जो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पालि, मारुगुर्जर, राजस्थानी, हिंदी एवं गुजराती आदि विभिन्न भाषाओं में निबद्ध हैं। इनकी लिपि प्राचीन देवनागरी, शारदा, नेवारी, ग्रंथ, बंगला, मैथिल आदि प्राचीन लिपियाँ हैं ।
इन ग्रन्थों का कैटलॉग निर्माण एवं प्रकाशनार्थ लिप्यन्तर करते समय उनकी पाण्डुलिपियों में अनेकविध चिह्न देखने को मिलते हैं। जिनका ज्ञान संपादनकार्य को अति सरल और शुद्ध बना सकता है। विदित हो कि इन हस्तप्रतों को ग्रन्थकार स्वयं लिखकर अथवा लहिया के पास लिखवाकर इन्हें फिर संशोधन की दृष्टि से पढते थे। उस समय मूल पाठ में जिस प्रकार के संशोधन की आवश्यकता होती थी उसे विशेष चिह्नों द्वारा अंकित कर पत्र के मार्जिन - हाँसिया में लिख दिया जाता था । यदि किसी शब्द अथवा पंक्ति को डीलिट करना हो, नया अक्षर, शब्द या मात्रा जोडना हो, अवग्रह चिह्न लगाना हो अथवा किसी पंक्ति को लॉक करना हो तो इस हेतु कुछ विशेष प्रकार के चिह्नों का प्रयोग किया जाता था।'
हस्तप्रत संपादन में इस प्रकार के संशोधनों का बडा महत्त्व है। इससे समय एवं संसाधनों की भी बचत होती थी। जैन परंपरा में गुरु-शिष्य की अनवरत परंपरा के कारण ऐसे संशोधन प्रायः होते रहे हैं। आज भी कई भण्डारों में स्वयं कर्ता द्वारा संशोधित हस्तप्रत प्राप्त होती हैं जो संपादन एवं शुद्ध-पाठ निर्धारण की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण हैं। अतः इस हेतु हस्तप्रतों में प्रयुक्त संशोधन चिह्नों का ज्ञान अतीव अनिवार्य हो जाता है। और यदि इन चिह्नों का ज्ञान न हो तो इसी कारण से अनेकविध भ्रान्तियाँ एवं अशुद्धियाँ होने की संभावना भी बढ जाती है। मैं यहाँ हस्तप्रतों में प्रयुक्त कुछ चिह्नों एवं संयुक्ताक्षरों की चर्चा करना चाहता हूँ जो निम्नवत हैं :
१. देखें पृष्ठ संख्या ६५. २. देखें पृष्ठ संख्या ६६.
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