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गुरुं गिरां प्रणम्याथ, हेरम्बं गणनायकम्। सञ्जयेन कृतं रम्यं, अर्थोऽयं लोकभाषया ॥
ब्राह्मी त्वं जननी जगत्सु वरदा, भाषा च गो शारदा । कौमारी ब्रह्मचारिणी सुनयना, वाणी च हंसासना ॥ ब्रह्माणी विदुषा (षी) त्वमेव त्रिपुरा, देवीश वागेश्वरी । हे देवी! सुमुखे भवन्तु सततं, सन्तुष्ट मातेश्वरी ।।२।। ध्रु.।।
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सरलार्थ-हे माता! आप श्रीमाता (लक्ष्मीमाता), श्रुतदेवता, भगवती, वाग्देवी, भारती, ब्रह्मा की बुद्धिरूपा, पवित्र बुद्धि देनेवाली, सरस्वती, विश्व की महान उपकारिणी हो । विश्वाधारस्वरूपा, विशुद्ध विश्वमहिमावाली, विश्वमाता, विश्वेश्वरी हो । हे देवी मातेश्वरी सन्तुष्ट होकर निरंतर सुमुखी रहो अर्थात् यह आशय है कि मुख में विराजो जिससे आपकी कृपा हम पर सदा बनी रहे ॥ १ ॥
MAY-JUNE-2015
सरलार्थ - हे माता ! तुम ब्राह्मी, जगज्जननी, वरदायिनी, (संसार की संवादमाध्यमस्वरूपा) भाषा, शारदा, कौमारी, ब्रह्मचारिणी, सुन्दर नेत्रोंवाली, वाणी तथा हंसासना (हंस पर बैठनेवाली) हो। तुम ब्रह्माणी, विदुषी, त्रिपुरा, देवेश्वरी एवं वागेश्वरी हो । हे देवी०... ॥ २ ॥
षट्(ड्)भाषाष्टदशालिपि च बहुधा, द्विबाण वर्णोदधि।
विद्यावेददशाष्टविंशतिधिया, रागादि वाद्यं कलाम् ॥
प्राप्नोति यदि त्वत्कृपां स भवतं (भवति), वाग्मी च विद्येश्वरी। हे देवी! सुमुखे भवन्तु सततं, सन्तुष्ट मातेश्वरी ॥३॥ ध्रु.॥
सरलार्थ-हे माता! तुम्हारी कृपा जिसे प्राप्त होती है वह ६ भाषाएँ, ब्राह्मी आदि १८ बहुविध लिपियाँ, २५ वर्णों में गुम्फित वर्णरूपी सागर, १८ (विकल्प से ३ एवं १४) विद्याएँ, ४ वेद, श्रुति, ६राग सहित वाद्यकलाएँ, ६४ स्त्रीकला तथा ७२ पुरुषकलाएँ इन विद्याओं को पाकर श्रेष्ठ विद्वान होता है. अर्थात् विविध विद्याओं को देनेवाली विद्याओं की स्वामिनी तुम विद्येश्वरी हो । हे देवी०... ॥ ३ ॥
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तीर्थकृत् प्रतिचक्री चक्री हलभृत्, विष्णुर्शिवाद्या नरा। इन्द्रो वेधस वाग्पतीन्द्रवुशना, सौम्यादया देवता ॥
वासं तत्(द्)वदने च तेभिः ? (तैः) प्रणीता, त्वं पञ्चतत्त्वेश्वरी ।
हे देवी! सुमुखे भवन्तु सततं, सन्तुष्ट मातेश्वरी ॥४॥ ध्रु.॥