Book Title: Shrimad Devchandra Part 2
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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१०३०
ढंढणमुनिजीनी सझाय.
धन० २१
सांभळी मुनि अति हरखीया, धन धन ए गुरुराजो रे; वीतराग उपगारीया, कृपा करी मुज आजो रे. धन० १९ साध्य अधुरे कुंण करे, ए आहार असारो रे; पुद्गल जगनी एंठ ए, किम ल्ये मुनि सुविचारो रे. धन० साधन वधते आदरे, ए साधक व्यवहारो रे; निःकारण परवस्तुने, छीपे नहीं अणगारो रे. इम चितवी शुद्ध थंडिलें, परठवतो ते पिंडो रे; पुद्गल संगनी निंदना, निजगुण रमण प्रचंडो रे. धन० २२ पर परिणति विच्छेदतां, निज परिणति प्राग्भावो रे; क्षपकश्रेणि ध्याने रम्या पाम्यो आत्म स्वभावो रे. धन० २३ आतंमतच एकाग्रता, तन्मय वीरज धारे रे; घन घाती सवि खेख्या, रत्नत्रयी विस्तारे रे. क्षीणमोह करी चरणनी, क्षायिकता करी पूरी रे; केवलज्ञानदर्शन वर्या, अंतराय सवि चूरी रे. परम दान लाभ नीपनो, कीधो कारज सुधो रे, समवसरण में आवीया, साध्य संपूरण सीधो रे. धन० २६ एहवा मुनिनें गाइये, ध्याइयें घरी आणंदो रे; देवचंद्र पद पाइये, लहीये परमानंदो रे.
धन० २४
धन० २५
धन० २७
इति श्री ढंढणमुनिवर स्वाध्याय समाप्त.
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