Book Title: Shrimad Devchandra Part 2
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 646
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री बाहुजिन स्तवन. १०६७ श्री पंचवस्तु टीकायाम, हेतुभ्योऽभिनवकर्मग्रहणं हिंसा तन्निवृत्ति: अहिंसा तथा श्री विशेषावश्यके भगवती सूत्रे एहवा अधिकार अनेक छे. जे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग एहवा चार भाव संसार कह्या छे, ते माटे सकल प्रदेश सकल भाव धर्म, अन्य जे परभाव तेहनो असंगी सर्व संग रहितपणो ते द्रव्य अहिंसकपणो निपजे छे, ते माडे तेही रहित ते द्रव्य असिंसक कहीयेजी, परसंगी आत्माने हिंसक दाखे छे. ए शुद्ध उत्सर्गनये अहिंसकपणो पीन कहेतां पुष्ट जे योग को छे, ते असत्यपणो कांइ बाह्यपणे साधन रीते नथी. परं उत्सर्गे जे न घटे शब्द द्रव्य श्रुतावलंबी उपयोग ते इहां उभो छे. ते माटे असत्य वचनयोग कह्यो छे. तथा श्री भगवती सूत्रे सूक्ष्मसंपराय गुणठाणे संपरायकी क्रिया छे, ते माटे उस्सत्तरीयति ए पाठ छे ए पिग वस्तु धर्म आश्रयी छे. ते माटे अक्षयावगाहना थइ एक मोटो आत्मधर्म प्रगट्यो. ते माटे क्षेत्र जे अवगाहना चलपणे आत्मा हणतो हतो ते अचलपणे थयो ए क्षेत्र अहिंसकपणो, आत्माने विषे नीपनो, इम भाववो. इहां कोइ पुछश्ये जे क्षेत्रने संकोच दुःख आत्माने किम मनाये ? तिहां उत्तर जे सिद्धपणे अवगाहना रहि ते पिण नानी मोटी छे, पिण हवे सिद्धने नानी मोटी अवगाहना करवी नयी ते माटे इम को छे. उत्पाद व्यय ध्रुवपणे, सहजे परणति थाय, प्रभुजी । छेदन योजनता नहीं, वस्तु स्वभाव समाय, प्रभुजी ॥ बाहु० ॥८॥ For Private And Personal Use Only

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