Book Title: Shrimad Devchandra Part 2
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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श्री बाहुजिन स्तवन.
रूप उपदेश रहस्यमें वर्णव्यो छे ते जोज्यो. निज या विषुः कहो पर दया हवें कवण प्रकारे ए वचनने अधिकारनो आर शय पिण एहज छे.
गुणपर्याय अनंतता, कारक परिणति तेम, प्रभुजी। निज निज परिणति परिणमें, भाव अहिंसक एम, प्रभुजी. ॥ वा० ॥९॥ हवे भावधर्मनी अहिंसकता कहे छे. तथा श्री भगवती सूत्रे भावओणं जीवे अणंता नाण पजवा । अणंता दंसण पज्जवा, अगंता चारित्त पन्जवा, अणंता अगुरुलघु पन्जवा. इत्यादि बंधाधिकारे तथा भावजीवः उत्तराध्ययन निर्युक्तो, जीवाजीव विभत्तिने विषे जोइ लेज्यो. नवरं तद्व्यतिरिक्तश्च जीवद्रव्यं द्रव्यजीवः उच्यते इति प्रक्रमस्तु विशेषद्योतकः रुचिरियं न कदाचित्तत्पर्याय वियुक्तं द्रव्यं तथापि च यदातद्वियुक्ततया विवक्ष्यते तदातद्रव्य प्राधान्यतो द्रव्य जीवो भावेतु दशविध एव परिणामः कर्मक्षय क्षयोपशमोदयापेक्षा परिणतिरूपो भावजीव: इति ३ ए शांतिवादि वैतालटीका पाठ छे. तथा धर्मसंय-. हणीने विषे तस्लेव धम्मरुवे नियपरत्वे हिं अत्थिनत्थित्ते भिन्न पवत्तिनिमित्तं तम्हातत्तंअणेगतो १ ए भावधर्म तथा श्री दशवकालिक नियुक्तिं अहिंसाना छ निक्षेपा कर्या छे. तेहनी टीका मध्ये पाठ छे,जे स्वगुणाबाधःअहिंसा 'वस्तु वृत्त्या अन्यातत् कारण वाद हिंसा' इत्यादि ते माटे जे गुण ज्ञानादिक पर्याय अवन्ने 'अगंधे' इत्यादि तथा कारक
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