Book Title: Shrimad Devchandra Part 2
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 657
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०७८ श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र. तुम्ह जेसे ज्ञायक गुणी समझो श्रुतसंतोष । मिल्यां ज्ञान बिमणौ वधें, लहें ज्ञान भरपोष ॥ ३ ॥ या चित्तसे नित वांचज्यो, श्रीजिनायनमः शुद्ध । स्वामि तुम्ह बलपुरी अह निशि जान विशुद्ध ॥ ४ ॥ इति लिः पादलीप्ततीर्थे रत्नचंद्रेण । ( ३ ) ॥ स्वस्ति श्री आदिजिनं प्रणम्य अहम्मदावादयी पं० देवचंद लिखितं श्री सूरतविंदरे सुश्राविका जिनागमरुचि बाई जानकीबाई हरषबाई प्रमुख स्वरूप धर्मरुचि जीव योग्य धर्मलाभ वांचज्योजी. अत्र साता छें अपरंच तुम्हे यथार्थ ज्ञानी वीतराग सर्वज्ञ सर्वदशीं अरिहंत परमात्मा यै प्रगट कर्यो सिद्वात्माने जे संपूर्ण नीपनो छे, ते सर्व जीवनें असंख्यात प्रदेशें व्याप्य व्यापकपणें अनादि अनंत संबंध रह्यो छे, ते स्वभावधर्मनी रुचिपणें रह्यो जे धर्म ते आत्मानो अन्वय स्वभाव छें, सहज अकृत स्वरूप छे, ते उच्छरंग धर्म छे, जाणवो देषवो ते स्वकार्य छे. तेहनी प्रदत्ति ते रमगादिक छे, ते शुद्ध धर्म जेहनें समरणे प्रगट्यो ते देवतत्त्व ते संपूर्ण धर्मनी इहा ये संपूर्ण धर्मी सिद्ध परमात्मानो बहुमान करखो ते साधन परि तिनें संपूर्ण थवाना कारणपणा माटे तेहनें धर्म कही यें. मूल वस्तु धर्मे स्वस्वभाव तेहज धर्म ए श्रद्धा करवी. जे बाह्य प्रवृत्ति योगनी आचरणी तेहनें धर्म माने तेहना कह्यामें सिद्ध ते धर्म रहित थायें, ते माटें कारण ते मूल धर्मयी मिन्न छें, यद्यपि उपादान कारण आत्मपरिणति छें पिण साधननी रीत ६ For Private And Personal Use Only

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