Book Title: Shrimad Devchandra Part 2
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 652
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीमद देवचंद्रजीना लखेला पत्र. ( १ ) अत्र विवहारथी सुख छे, तुम्हारा भाव सुखसाता समाचार लिखाय तो लिखजो, जीम संतोष उपजे. तथा कोइ कहेस्ये जे व्यवहारथी तो सुख छे, तिवारे निश्वयथी दुःख ठर्यो एहवो शब्द लिख्यो तेहनो स्यो कारण ? तिहां उत्तर कहे छे के सातावेदनी कर्मना उदययी उपन्यो जे सुख ते पर धर्म माटे जाते ए सुख ते दुःखरूप छे. उक्तंच साया साया दुःखवं, तविरहं म्मिय सुहंजओ तेणं, देहिंदिमसुदुःखं सुखं देहिंदियाभावो ॥ इति वचनात् ते कारणे सातावेदनीना उदययी उपन्यो जे सुख ते दुःखरूप छे. शांता ते आत्मानो जे अव्याचाध गुण तेहनो रोधक छे, तथा कोडक आचार्य अव्याचाधने पर्याय पण कहे छे, ते माटे गुणपर्यायनो रोधक ते शातावेदनी कर्म तेहना उदययी उदयावलिकाए आव्या जे पुद्गल ते आत्माने भोग्यपणे थाय छे, पिण निश्चयनये पुद्गलनो भोगववो ते भव्यात्माने युक्त नथी. ते स्यामाटे जे निश्चयनये पुनो आत्मा अभोगी छे. तिवारे कोइ कहेस्ये जे आत्मा तो पुद्गलनो अभोगी छे, तो ए आत्मा पुगलभोगी किम थाय छे, अने पुद्गलनो भोगववो कम करे छे, तिहां कहिये जे आत्माने विषे एक भोग गुण छे, ते इहां भोग स्वगुणपर्याय कहेवो, ते भोग गुण अंतराय कर्मों आवर्यो छे, तेनो नाम भोगांतराय कर्म कहियें, ते भोगांतराय कर्म सर्वथी क्षीणमोहने चरम समये क्षय थाय छे, तिवारे स्वगुण 7 म For Private And Personal Use Only

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