Book Title: Shrimad Devchandra Part 2
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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१०५०
साघुपद सझ्झाय.
दर्शन चारित्रादि तेहनो अनुगतता निजस्वभावमें आत्मा प्राप्ति हुवो निज स्वभावमें रमण हुवो एटले आत्मा पोताना स्वभाव पाम्याथी अनुसरे, ग्रहण करे. आर्जवभाव सरलतारो स्वभावीपणो ग्रहण करे, तिमहीज वली आत्म स्वभाव प्राप्ति रूप विवेक ग्रहण करे आयवपणेरो भाव प्रगटे ए तो आत्मानो क्षयोपशम सम्यकत्वथी उत्सर्ग कथन छे.
अपवादें परवंचकतादिकारे, ए माया परिणाम; उत्सर्गे निज गुणनी वंचनारे,
परभावे विश्राम ॥ सा० ॥५॥ हिवे आत्मानो विशेष कथन लिखें अपवादे विशेष कथन करने ए आत्मा क्षयोपशम भावि छे. क्षायिकभावे नथी तेथी परवंचना अन्यने टगणो ए कपटनो परिणाम परिणमन छे, क्षयोपशमी छे तेथी जीवमें माया परिणमी छे, परं उत्सर्गे सामान्ये आत्मगुणनी ठगाइ थाय, सामान्ये आत्मगुण ठगी जे विशेषपणे न ठगी जे कीण विरियां तेहिज जीव स्व स्वभावमें प्रवर्ततो तिण विरियां तो नही ने स्वभावमें प्रवततो छतो एहिज जीव परभाव नाम आर्त रौद्रध्यान रूप विभावमें विश्राम ले विभावे जाय ठहिरे तिवारे उ• निजगुणनी सामान्ये वंचना टगाइ करे क्षयोपशमात् क्षयोपशम छे तेथी--
साते वरजो अपवादें आर्जवीरे, न करे कपट कपाय;
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