Book Title: Shrimad Devchandra Part 2
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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१०५२
साधुपद सइझाय.
..........................ram तत्वादिति न विरोधः यदुक्तं श्री नवपद् प्रकरण वृत्तौ॥ तथाहि । क्षायिकस्यशुद्धाशुद्धभेदेन द्विभेदत्वात् ॥ तत्रापायसद्व्यविकला भवस्थ केवलिना मुक्तानांचया सभ्यष्टिस्तच्छुद्धं क्षायिकम् । तस्यच साद्य पर्यवसानत्वान्नास्त्येवभंगः तस्यनाम तिण क्षायकरे सादि अपर्यवसितपणाहुंती भंग नही यदाहुः गंधहरित ॥ भवस्थ केवलिनो दिविधस्यसयोगायोगभेदस्य सिहस्य दर्शन मोहनीय सप्तक्षयाविभूता सम्यगदृष्टि सादिर पर्यवसितेति ॥ यात्व पायसहचारिणी श्री श्रेणिकादेवि सम्यग्दृष्टिस्तदशुद्धं क्षायिकं तिण शुद्ध क्षायकरे सादि सांत भांगो हुवे अस्ति प्रतिपातः तिण जीवरे क्षायकसुं पडणो छ किण हेते तिको हेतु श्री गंधहस्तीजी लिखे तत्रोवाच अपायसद्व्यवर्तिनी श्री श्रेणिकादीनांच सद्व्यापगमे भवत्यपायसहचारिणीसा सादिः मति ज्ञानांशकर सहित सम्यग् दृष्टि हुवे तिवारे मति ज्ञानांशकर सहित क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट होवणेसु सादि कहीजे, केवल ज्ञानरी उत्पत्ति हुवे छते मतिज्ञानांश क्षय हुवे तिवारे सांत कहीजे. अपाय सहचारिणी सम्यग् द्रष्टिरो अंत हुवो तिवारे सादि सांत भांगो टहिर्यो, केवल ज्ञान उपज्यां पछे मतिज्ञानांश क्षय हुवे छते शुद्ध क्षायिकरी आदि हुई तीन कालमें जीण क्षायकरो नाश नही तिणसुं अनंत अतएव सादि अनंत भांगो शुद्ध क्षायिकमें पामें इति ॥ ६ ॥
सत्तारोध भ्रमण गति चारमें रे, पर आधीनें वृत्ति;
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