Book Title: Shrimad Devchandra Part 2
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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साधुपद सझाय.
आतमगुण निज निज गति फोरवेरे,
ए उत्सर्ग अमाय ॥ सां० ॥ ६ ॥
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पांचमी गायाम क्षयोपशम भावथी विशेष कह्यो, हिवे छठी गायामें क्षायिकभावें विशेषपणो कहे छे. अपवादे नाम तेहिज जीव विशेषपणे साते वरजी सात कर्मप्रकृति अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व मोहनी, मिश्रमोहनी, सम्यकत्व मोहनी, ए साते वरजी तिवारे अपवादे नाम विशेष आर्जवी थाय. विशेषपणे सरळ स्वभावीपणो ग्रहण करे. कपट तो अनंतानुबंधी चोकडी क्षपायां थकां शेष रह्या जे अप्रत्याख्यानादिक तिग संबंधी माया परिणामीपणे में म प्रव तिवारे आत्मा आत्मगुण अनंतज्ञान दर्शनादि ति - णांनै निज निज गति फोखे शक्ति में प्रवर्तावे तेपिण एटला, सुधी ही आत्मा उत्सर्गे सामान्ये अमायी अपवादे विशेषपणे हजी सुधी आत्मा अमायी नथी, मापानी दोड दशमें गुणठाणे रे अचरम समय सुधी छे. किम क्षपकश्रेणि हजी सुधी नथी कीनी तेथी मायानें उपशमावी छे पिण संपूर्ण क्षपावी नथी. कथं केवलज्ञान केवलदर्शन नयी पाम्यो ते पामश्ये तिवारें शुद्ध क्षायिकी यास्ये केवलज्ञान केवलदर्शन उपज्यां सूं पहिलां जे क्षायिकपणो छे तेहनें सिद्धांतमें अशुद्ध क्षायिकीपणो को छे. यदुक्तमागमे, ननुसप्तक्षये क्षायिक इत्युक्तत्वात् सतिक्षायिके सम्यक्त्वे श्रीकृष्णवासुदेवः कथं नरकावनीं जगाम श्रेणिकञ्च प्रथमामिति इस प्रश्नकीयो तत्रोत्तरमाह क्षाविकंद्विया शुद्धमशुद्धंनेति ॥ तत्र श्री कृष्ण श्रेणिकयोरशुद्धं क्षायिकं । कस्माद्धेतोः तद्धेतुआह । तस्यसपर्यवसि
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