Book Title: Shrimad Devchandra Part 2
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 637
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०५८ साधुपद सडझाय. मुनिपणो निस्संगी मुनिभावपणो ते स्युं संग नामसंबंध नामशरीर पुद्गलादिक पण रया छे, परणम्या ते पुद्गल ते पुद्गलोयी निस्संगपणो छे. पोताना पुद्गल नयी जाणता, पुद्गलोनी परचर्या मात्र मूकी दीधी छे, मुनिभाव ामस्वभावे मुनिराजपणो ते छे, एटले तदाकारवृत्तिपणो तेहने कहिये तेरमें गुगाठाणानो अंत्य अरु चौदमो गुणठाणो हिवे थारये ते पोतेज कर्ता आगळ गुंथ्युं छे. तेहिज लिखे ॥ ११ ॥ हेयत्यागथी ग्रहण स्वधर्मनोरे, करे भोगवे साध्य । स्वस्वभाव रसिया ते अनुभवरे, निजसुख अव्यावाध ॥ सा०॥ १२ ॥ हेय त्यागथी भावसाधन जिवारे सिद्ध थयो तिवारे हेयत्याग-छोडवा योग्य जीको वस्तु स्वस्वरूपरो विवनकारी जे पंच्यासी प्रकृति जुना कपडा प्राय तेहनो जे अंत करवो खपाववो तद्प हेय-त्यागथी, ग्रहण विधभनोरे लेबो स्वधर्मनो आत्मत्वधर्म अनंतज्ञानदर्शन चारित्रादि कनो ग्रहण करे तद्रप स्वरूयनो ग्रहण करे भोगवे साध्य साधवा योग्य वस्तु स्वधर्म तेहनी सिद्धता ते जे भोगरे, लघु पांच अक्षर नो उच्चारणरो काल तिा प्रमाणे चोदमा गुगाठाणामें भोगवे पछे स्वस्वभाव रलियाने आयरो स्वभात्र पूर्वे कयो ते अनंतज्ञानादि तेहनो रलियो थयो छतो निज सुख अव्याचाध पीडायें कर रहित तेहने अनंतकाल तांइ भोगवे, चौदमें गुणठाणेरे अंति में एक समयावछिन्ने चरम समयमें सिद्ध पुहुच्यो. पुहच्यां For Private And Personal Use Only

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