Book Title: Shrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Author(s): Harishankar Pandey
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 16
________________ चौदह श्रीमद्भागवतमहापुराण भगवत्प्रोक्त किंवा भगवत्स्वरूप है। यह भक्ति का प्रतिपादक ग्रन्थ है । भक्ति के विविध अङ्गों का साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया गया है । ज्ञान, वैराग्य एवं मोक्ष आदि में सबसे श्रेष्ठ भक्ति को बतलाया गया है । जिसके साक्षात् उदाहरण परीक्षित् हैं। इसमें पात्रों की विविधता है । उच्च-नीच, राजा-रंक, विद्वान्-मूर्ख, सभी वर्गों के पात्रों का चरित्र उपलब्ध होता है। एक ओर श्रीशुकदेव, नारद, सूत, कुमार आदि बड़े-बड़े आचार्य हैं तो दूसरी तरफ व्रज के लोग हैं । प्रज्ञा चक्षु पितामह भीष्म, अर्जुन, पृथ, अम्बरीष, जैसे भक्त हैं तो कंश, हिरण्यकशिपु आदि जैसे ज्ञानी विद्रोही लोग भी हैं। यह दलितो का उद्धारक है । इसमें सामान्य जनसुलभ भक्तिमार्ग का सरल विवेचन किया है । भक्ति के द्वारा पुण्यात्मा-पापी, धर्मी-अधर्मी सबके सब मुक्त हो जाते हैं । पुतना, कुब्जा, कंश, जैसे लोग भी भगवत्पद को प्राप्त करते हैं । सुदामा माली, कंश का दर्जी, गोकुल की अनाथ रमणियां, आजामिल जैसे घोरपापी गज-ग्राह जैसे पशु, और सर्पादि तिर्यञ्च भी मुक्ति लाभ करते हैं । दुराचारी, विमार्गा, क्रोधी, कुटिल कामी, ब्रह्महत्या करने वाला दाम्भिक, मत्सरिण, क्रूर, पिशाच, निर्दयी, पातकी और शठादि क्षणभर में भगवान् को प्राप्त कर लेते हैं। श्रीमद्भागतमहापुराण की प्रमुख विशिष्टता है ..."भागवतकार की समन्वय भावना । इसमें सांख्य, मीमांसा, योग, न्याय, वेदान्त आदि सभी दर्शनों का स्वस्थ समन्वय कर भक्ति में उनका पर्यवसान किया गया है। विभिन्न दर्शनों के अतिरिक्त एक ही दर्शन के विभिन्न मतों में भी एकरूपता स्थापित की गई है। ___ आख्यानों एवं कथानकों के माध्यम से विविध तत्त्वों का विवेचन किया गया है । दार्शनिक तत्त्वों की गम्भीरता, भाषिक दुरूहता तथा विविध विद्याओं के विवेचन होने से 'विद्यावतां भागवते परीक्षा' और 'भागवते विद्यावधिः' इत्यादि सूक्तियां प्रचलित हैं । उपर्युक्त गुणोपेत श्रीमद्भागवतमहापुराण निगमकल्पतरू का सुस्वादु पका फल है, जिसमें केवल रस ही रस है और स्तुतियां उस सुस्वादुफल के सत्त्व हैं । अथवा भागवत रूप पुरुष-शरीर का स्तुतियां प्राण तत्त्व हैं। स्तुतियों में विविध विषयों -- दर्शन, ज्ञान, लोक आदि के अतिरिक्त प्रधान रूप से भक्ति का विवेचन किया गया है । अकल्मष एवं स्वच्छ हृदय से निःसृत होने से स्तुति का महत्त्व सार्वजनीन है। स्तुति एक धार्मिक प्रक्रिया ही नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक आधार भी है, उसके द्वारा हृदय परिमाजित हो जाता है। उसके द्वारा भक्त परमश्रेष्ठ स्थान को प्राप्त कर लेता है। सम्पूर्ण वक्रता तिरोहित होकर ऋजुता का रूप धारण कर लेती है और जहां ऋजुता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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