Book Title: Shastra Sandesh Mala Part 05
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh Mala

Previous | Next

Page 277
________________ यं वीक्ष्य साक्षान्नवदुर्गमुच्चैनिवेदतो मैष मयि व्यराङ्क्षीत् / इतीव शम्भोर्भयतो भवानी, नव्यार्थकं तं नवशब्दमाह // 12 // दुर्गेरुदौर्नवभिः परीतं निपीय यं किन्नरगीयमानम् / एकेन दुर्गेण सुमेरुणेन्द्रः स्वर्गेऽपि गर्वोद्धरतां जहातु // 13 // फलं ददुर्यों समरावबुद्धयुध्यद्भटच्छिननिजद्विपास्त्रैः / सम्पूजिता यत्र नवापि दुर्गाः, सिन्दूरपूरैः परपार्थिवानाम् // 14 // अध:कृतामेव दिशं स्वलक्ष्म्या, स्वयं विजेतुं पुनरप्युदास्ते। इत्युच्छ्रितैर्यो नवदुर्गहस्तैर्दिशो नवाहाय जिगीषतीव // 15 // नीतिर्नवीनेयमनीतिभावमपि स्फुटं यं व्यतिवृत्य वृत्ता। . इदं न कस्य प्रणिगद्यमानं, विपश्चितश्चेतसि विस्मयाय // 16 // स्तुतिः क्षपाणामपि यत्र युक्त्या, पान्थप्रमोदात् पथि दूरदीर्घ / निलीय मेरौ वसतां तु निन्दा, कल्पद्रुमाणामुदरम्भरीणाम् // 17 // यो यत्र दोषः प्रतिभाति कश्चिन्निदर्शनत्वं किल निर्जलानाम्।। सरस्वतीशालिजनाननेभ्यः स्तुत्येव विस्रस्तु गुणं तमेव // 18 // पचेलिमं पक्षिगणाः समन्तात्, क्षणं कणं ये निपुणं चणन्ति। यत्क्षेत्रसंरक्षकगोलवृष्टिकोलाहलात्ते पुनरुत्प्लवन्ते // 19 // चौर्यं परस्वेषु न नाम कामं, सौराज्यभाजि क्वचनापि यत्र। यद्धैर्यचौर्यात् सुदृशां निलीनश्चित्ते भियाऽनङ्गभटोऽपि सूक्ष्मे // 20 // यद्यत्र भास्वान् प्रबलप्रतापो, जागति मण्डोवरपार्श्वदेवः / उल्लस्यते तत्सुमनोभिरेभिस्तमोनिरासात्तपगच्छभाग्भिः // 21 // यद्भूर्भुवःस्वः प्रभुताभृताऽपि, स्वयं निवासाद् भृशमन्वकम्पि। स्वर्गेण यस्यास्तु कथं तदेकविभक्तिसारूप्यमुचैकशेषः // 22 // विधेर्विधेयेष्वरुचिप्रयुक्तं, वैषम्यमालोक्य बहुष्ववश्यम् / धर्मस्य सृष्टिं तपगच्छराजसाम्राज्यहेतोर्यमनुस्मरामः // 23 // 268

Loading...

Page Navigation
1 ... 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322