Book Title: Shastra Sandesh Mala Part 05
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh Mala
________________ चिरकालगुरूपान्ते परिशिक्षितलक्षणः / उच्चै?षादिवाम्भोधिर्लक्ष्यते घर्घरस्वरः || 2223 // प्रसह्य जगृहुर्देवा रत्नान्यब्धेरसौ ततः / तद्भिक्षां याचते यत्र विततोर्मिकर: किमु // 2 // 24 // दृष्ट्वा क्षुभ्यति यत्राब्धिर्घटप्रतिभटस्तनीः / शङ्कमान इव स्वस्य घटोद्भवपराभवम् / / 2 / 25 // नार्यो हारेषु रत्नानि दधते चाधरे सुधाम् / यद्गताः स्वपदं सिन्धुः किमित्यावेष्ट्य तिष्ठति // 2 / 26 // अब्धिसङ्गतया शुभ्रभासा स्फटिकवेश्मनाम् / सदैव लक्ष्यते यत्र गङ्गासागरसङ्गमः // 2 / 27 // अप्येकमिन्दुमुवीक्ष्य स्यादब्धेरुत्तरङ्गता / नारीमुखेन्दुकोटीभिर्यत्र सा वचनाऽतिगा / / 2 / 28 // नानेन महता सार्द्ध स्पर्धा युक्तेति चिन्तयन् / यस्मै किमब्धिरागत्य ददौ दुहितरं निजाम् || 2 / 29 // यत्र भान्ति गरीयांसः प्रासादाः पर्वता इव / शृङ्गाग्रसञ्चरन्मेघघटाघटितविस्मयाः // 2 // 30 // चैत्यस्फटिकभित्तीनां शुभैः प्रसृमरैः करैः / वर्द्धमानेक्ष्यते यत्र तिथिष्वेकैव पूर्णिमा // 31 // दृष्ट्वा स्वर्णघटान् यत्र चैत्यचूलावलम्बिनः / मन्यन्ते स्व:स्त्रियो मुग्धाः शतसूर्यं नभस्तलम् // 2 // 32 // यत्प्रासादोच्चदेशेषु प्रच्छनस्वप्रियाधिया / . आश्लिष्यन्ति सुराः स्नेहविशाला: शालभञ्जिकाः // 2 // 33 // भान्ति यत्र स्त्रियः श्रोणि-नवलम्बितमेखलाः / दृश्यन्ते जातु ? नो दोषानवलम्बितमे खला: // 2 // 34 // 284
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