Book Title: Shasana Chatustrinshika
Author(s): Anantkirti, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 10
________________ [ ११ ००००००००००००००००००० देश बतलाकर वहाँ जानेकी आशा नहीं दी। किन्तु नार्थ गुरुकी आज्ञाको उलंघ करके दक्षिणको चले गये। भाग में महाराष्ट्र आदि देशों के वादियों को पददलित करते हुए कर्णाट देश पहुँचे। कर्णाटदेश में विजयपुर में जाकर वहाँके नरेश कुन्तिभोजको अपनी विद्वत्ता और काव्यप्रतिभासे चमत्कृत किया और उनके अनुरोध करनेपर उनके पूर्वजों के सम्बन्ध में एक ग्रन्थ लिखना स्वीकार किया । मदनकीर्ति एक दिनमें पांचसौ श्लोक बना लेते थे, परन्तु स्वयं उन्हें लिख नहीं सकते थे। श्रतएव उन्होंने राजासे सुयोग्य लेखककी माँग की। राजाने अपनी सुयोग्य विदुषी पुत्री मदनमंजरी को उन्हें लेखिका दो। वह पर्दा के भीतरसे लिखती जाती थी और मनकीर्ति चाहसे बोलते जाते थे । कालान्तर में इन दोनों में अनुराग होगया। जब गुरु विशालकीर्तिको यह मालूम हुआ तो उन्होंने समझाने के लिये पत्र लिखे और शिष्योंको भेजा। परन्तु मदनकीर्तिपर उनका कोई असर न हुआ। प्रस्तावना इस प्रबन्धके कुछ आदिभागको नीचे नमूने के तौर पर दिया जाता है— "उज्जयिन्यां विशाल कीर्तिदिगम्बरः । तच्छिष्यो मदनकीर्तिः । स पूर्वपश्चिमोत्तरासु तिसृषु दिक्षु वादिनः सर्वान् विजित्य 'महाप्रामाणिकचूडामणिः' इति विरुदमुपार्थं स्वगुर्वलंकृतामुज्जयिनीभागात् । गुरूनवन्दिष्ट । पूर्वमपि जनपरम्पराश्रु ततत्कीर्त्तिः स मदनकीर्तिः भूयिष्ठमरलाधिष्ठ । सोऽपि प्रामोदिष्ट | दिनकतिप्रथानन्तरं च गुरं न्यगदीतभगवन् । दाक्षिणात्यान् वादिनो विजेतुमीहे । तत्र गच्छामि । अनुज्ञा दीयताम् । गुरुणोक्तम् - वत्स । दक्षिणां मागाः । स हि भोगनिधिर्देशः ।

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