Book Title: Shasana Chatustrinshika
Author(s): Anantkirti, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 37
________________ शासन-चतुस्लिंशिका [१७ ఉతంఅంఅeet00006 मुनर्ष स्थाचरणं च भैल्यमशन से चत्रिी देवी प्रोक्तं हि प्रथम प्रवन्धममलं विश्वाससा शासनम् ॥२४॥ 'प्राणियोंका कर्मजाल अनेक जन्मोमें भी बिना भोगे नाश नहीं होता'' ऐसा मानकर जिन योगों (शैवों-कापालिक ने शरीरमें भस्म (राख) लगाना, जटा रखना, सिरपर पैरोंको स्थापित करना और भिक्षावृत्तिसे भोजन लेना आदि प्राचररगोंका विधान किया है, प्रकट है कि उन्होंने भी निर्मल दिगम्बरशासनको नश्चम वन्दनीय कहा हैअर्थात् उनके द्वारा भी दिगम्बरशासनकी कितनी ही चर्याको स्वीकार कर उसके महत्वको मान्य किया गया है ||२४|| मूर्तिः कर्म शुभाशुभं हि भविना मुंक्त पुनश्चेतनः शुद्धोनिमल-निःक्रियाऽगुण इहाऽकर्त्तति' सांख्योऽप्रचीन् । संसर्गस्तदष्टरूपजनितस्तेनाऽपि संमन्यते वै तेनाऽपि समाश्रितं सुविशदं दिग्वाससां शासनम् ॥२५॥ मूर्ति (पुद्गलप्रकृति)-जीवों के शुभाशुभ कर्मकी की है और चेतन (पुरुष-आत्मा) उसका भोक्ता है, शद्ध है, निर्मल है, निष्क्रिय १ मामुक्त क्षीयते कर्म कल्प-कोटिशतैरपि ।' २ साख्योंके सिद्धान्तकी प्रतिपादक सारख्यकारिकागत निम्न कारिकाएँ शातल्य हैं: "तस्माश्च विपर्यासात्मिा' साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । कैवल्यं माध्यस्थ्यं दृष्टत्वामक भावश्च ॥१॥ तस्मात्तत्संयोगादचेतनं वेतनादिव लिंगम् । गुणकतवे च तथा कतॆव भवत्युदासीनः ॥२०॥ पुरुषस्य दर्शनार्थ केवल्यार्थ तथा प्रधानस्य । पक ग्बन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥२१॥ .

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