Book Title: Shasana Chatustrinshika
Author(s): Anantkirti, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 13
________________ प्रकीर्णक पुस्तकमाला १४ ] ee0 ०००००००० विद्वान थे और विक्रम संवत् १२८५ के पहले वे सुविख्यात हो चुके थे तथा साधारण विद्वानों एवं मुनियोंमें विशिष्ट व्यक्तित्वको भी प्राप्त कर चुके थे और इसलिये यतिपति-मुनियोंके श्राचार्य माने जाते थे । अतः इस उल्लेखसे मदनकीर्त्ति विक्रम संवत् १२८५ के निकटवर्ती विद्वान सिद्ध होते हैं । (ग) मदनकीर्त्तिने शासनचतुस्त्रिंशिका में एक जगह (३४वें में) यह उल्लेख किया है कि आततायी म्लेच्छोंने भारतभूमिको रौंधते हुए मालवदेश के मङ्गलपुर नगर में जाकर वहाँके श्रीश्रभि नन्दन - जिनेन्द्रकी मूर्तिको भग्न कर दिया और उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये, परन्तु वह जुड़ गई और सम्पूर्णावयव बन गई और उसका एक बड़ा अतिशय प्रकटित हुआ। जिनप्रभसूरिने अपने विविधतीर्थंकल्प अथवा फल्पप्रदीपमें, जिसकी रचना उन्होंने विक्रम सं० १३६४ से लगाकर विक्रम सं० १३८६ तक २५ वर्षो की है', एक 'अवन्तिदेशस्थ - अभिनन्दन देव कल्प' नामका कल्प निबद्ध किया है। इसमें उन्होंने भी म्लेच्छसेना के द्वारा अभिनन्दनजिनकी मूर्तिके भग्न होने का उल्लेख किया है और उसके जुड़ने तथा श्रतिशय प्रकट होनेका वृत्त दिया है और बतलाया है कि यह घटना मालवाधिपति जयसिंहदेव के राज्यकाल से कुछ वर्ष पूर्व हो ली थी और जब उसे श्रभिनन्दनजिनका आश्चर्यकारी अतिशय सुनने में आया तो वह उनकी पूजा के लिये गया और पूजा करके अभिनन्दनजिनकी देखभाल करने वाले अभयकीर्ति, भानुकीर्ति आदि मठपति आचार्यो (भट्टारकों) के लिये देवपूजार्थ २४ हलकी १ देखो, मुनिजिनविजयजी द्वारा सम्पादित विविधतीर्थकल्पकी प्रस्तावना पृ० २ ।

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