Book Title: Shasana Chatustrinshika
Author(s): Anantkirti, Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 17
________________ २८1 प्रकीएक-पुस्तकमाला eseodeseeeeeeeese "यत्मापवासाद्वालोय" इत्यादि प्रथम पद्य और "इति हि मदनकीर्चिचिन्तयन्नामचित्" इत्यादि ३५वे पद्यसे होता है और जिसपरसे मालूम होता है कि वे कठोर सपका आचरण करते तथा अकेले विहार करते हुए इन्द्रियों और कषायोंकी उद्दाम प्रवृत्तियोंको कठोरतासे रोकने में उद्यत रहते थे और जीवमात्रके प्रति बन्धुत्वकी भावना रखते थे । तात्पर्य यह कि मदनकीर्ति अपने अन्तिम जीवन में प्रायश्चित्तादि लेकर यथावत् मुनिपदमें स्थित होगये थे और दगम्बरी वृत्ति तथा भावनासे अपना समय यापन करते थे. ऐसा उक्त पद्योंसे मालूम होता है । उनका स्वर्गवास कब, कहाँ और किस अवस्थामें हुआ, इसको जाननेके लिये कोई साधन प्राप्त नहीं है। पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि वे मुनि-श्रवस्थामें ही स्वर्गवासी हुए होंगे, गृहस्थ अवस्था में नहीं; क्योंकि अपने कृत्यपर पश्चात्ताप करनेके बाद पूर्ववत् मुनि होगये थे और उसी समय यह शासनचतुर्विंशिका रची, ऐसा उसके अन्त:परीक्षणपरसे प्रकट होता है। इसमें सन्देह नहीं कि कमजोरियाँ प्रायः हरेक मनुष्यमें होती है और वे उन कमजोरियों के शिकार भी हो जाते हैं । परन्तु जो गिरफर षठ जाता है वह कमजोर या पतित नहीं, कमजोर या पतित तो वह है जो गिरा ही गिरा रहता है, उठना नहीं जानता राजशेखरसूरिने कुछ घटा-बढ़ाकर उनका चरित्र चित्रण किया जान पड़ता है। प्रेमीजीने' भी उनके इस चित्रणपर अविश्वास प्रकट किया है और मदनकीर्तिसे सौ वर्ष बाद लिखा होनेसे १ बैनसाहित्य और इतिहास पृ. १३८ ।

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