Book Title: Shadavashyaka Banav Bodh Vrutti Author(s): Prabodh Bechardas Pandit Publisher: Bharatiya Vidya BhavanPage 17
________________ xii पीठ में सबसे प्रथम एक राष्ट्रीय सेवक के रूप में सम्मिलित हुआ। मेरी प्रेरणा से गांधीजीने उक्त विद्यापीठ में प्राचीन भारतीय संस्कृति, साहित्य और इतिहास के विशिष्ट अध्ययन, अध्यापन की दृष्टि से पुरातत्त्व-मंदिर नामक एक विशिष्ट संशोधन विभाग की स्थापना की और उसके मुख्य आचार्य के रूप में मेरी नियुक्ति हुई। ___ इस विभाग में अनुस्नातक और स्नातकोत्तर विद्यार्थियों के अध्ययन की विशिष्ट व्यवस्था की गई थी। संस्कृत, पालि, अपभ्रंश, प्राचीन गुजराती, राजस्थानी फारसी और अरबी भाषा के अध्ययन की भी समुचित व्यवस्था की गई थी। साथ में भारत के प्राचीन इतिहास, स्थापत्य कला आदि सांस्कृतिक विषयों का भी विशिष्ट परिचय प्राप्त करने, कराने की भी योग्य व्यवस्था की गई। इन विषयों के विशिष्ट ज्ञाता विद्वानों का भी यथायोग्य प्रबन्ध किया गया। अध्ययन, अध्यापक के सिवाय उन उन विषयों के प्राचीन ग्रन्थों के प्रकाशन कार्य करने की भी व्यवस्था की गई। तद्नुसार सर्वप्रथम संस्कृत, प्राकृत, पालि भाषा की प्राथमिक पाठ्यपुस्तकें प्रकाशित की गई। श्री काका साहेब कालेलकर जो उस समय उक्त पुरातत्त्व मंदिर के एक विशिष्ट परामर्शदाता, मंत्री के रूप में साम्मिलित हुए थे, उन्होंने 'उपनिषद-पाठावली' नामक एक पुस्तक तैयार की। मैंने भी प्राकृत भाषा तथा पालि भाषा के विद्यार्थियों के लिए प्राकृत-पाठमाला तथा पालि पाठावली नामक दो प्राथमिक पुस्तिकाएँ तैयार की। प्राचीन गुजराती, राजस्थानी भाषा का विशेष अध्ययन एवं संशोधन करने, कराने की दृष्टि से 'प्राचीन गुजराती-गद्य संदर्भ' नामक एक विशिष्ट ग्रन्थ का संकलन तैयार किया। इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम मैंने इसी 'षडावश्यक बालावबोध' में से कुछ कथाओं का संचयन किया। इसके उपरान्त सोमसुन्दरसूरिकृत कुछ कथाओं का संग्रह भी संकलित किया। माणिक्यसुन्दरकृत पृथ्वीचंद चरित्र अपरनाम 'वागविलास' नामक एक पूर्ण कृति भी उक्त संदर्भ में संकलित की गई तथा कितने ही पुरातन औक्तिक निबंधों का भी संकलन किया गया। इस संदर्भ के संपादन के समय मेरा विचार हुआ कि प्रस्तुत 'षडावश्यक बालावबोध' पूर्ण रूप में 'गुजरात पुरातत्त्व मंदिर' ग्रन्थावली में यथासमय प्रकाशित किया जाय। तद्नुसार मैंने इस ग्रन्थ की सम्पूर्ण सुवाच्य अक्षरों में प्रेस कॉपी तैयार करवाई। इस समय मुझे पता लगा कि इस ग्रन्थ का मेरुसुन्दरकृत-संक्षिप्त रूप भी भंडारों में प्राप्त होता है। पता लगाने पर बम्बई की रोयल एशियाटिक सोसायटी के ग्रंथ संग्रह में भी उसकी एक प्राचीन प्रति विद्यमान है। तब मैंने उसको भी मंगवाई और इन दोनों ग्रन्थों के पाठों का मिलान करना चाहा तो मुझे मालूम हुआ कि मेरुसुन्दर ने बहुत से अंश तो तरुणप्रभाचार्य के ग्रन्थ से वैसे के वैसे ही उद्धृत कर लिये हैं और कहीं कहीं वाक्यान्तर और शब्दान्तर का भी प्रयोग किया है। मैं चाहता था कि ग्रन्थ के मूल भाग में तरुणप्रभकृत पाठ दे दिया जाय और उसके नीचे पाद टिप्पणी के रूप में मेरा सुन्दरकृत पाठ दिया दे जाय। क्योंकि तरुणप्रभ और मेरुसुन्दर के बीच में प्रायः एक शताब्दि के जितना अन्तर है। इसलिए भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले शोधक-विद्वानों को यह पता लग जाय कि तरुणप्रभ की भाषा में और मेरुसुन्दर की भाषा में कितना अंतर पाया जाता है। इस दृष्टि से मैंने मेरुसुन्दरकृत रचना की पूर्ण प्रतिलिपि करवा ली थी। यह समय सन् १९२६-२७ का था। मैंने इस ग्रन्थ को छपवाने के लिये बम्बई के निर्णय सागर जैसे विख्यात एवं सुन्दर छपाई करनेवाले प्रेस में जाकर इसके टाइप आदि का प्रबन्ध किया। इसके साथ ही उसी गुजरात पुरातत्त्व मंदिर ग्रन्थावली में, गुजरात के प्राचीन इतिहास का एक मुख्य आधारभूत ग्रन्थ, मेरुतुंगाचार्य रचित 'प्रबन्ध चिन्तामणि' नामक ग्रन्थ का मुद्रण कार्य भी मैंने प्रारंभ किया और उसे बम्बई के वैसे ही प्रख्यात कर्नाटक प्रिटिंग प्रेस में छपने को दे दिया। निर्णय सागर प्रेस में 'सम्मति तर्क' नामक महाग्रन्थ, पुरातत्त्व मंदिर ग्रन्थावली के अन्तर्गत छप रहा था इसलिए उस प्रेस ने कुछ समय बाद प्रस्तुत ग्रन्थ का काम हाथ में लेने को कहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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