Book Title: Shadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

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Page 16
________________ किया है और इस प्रकार अनेक प्राचीन जैन ग्रन्थों का तत्कालीन देश भाषा में ऐसे बहुत से बालवबोध स्वरूप लिखे गये ग्रंथ मिलते हैं। डॉ. गुणे को जब यह मालूम हुआ कि इस ग्रन्थ की रचना विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दि के प्रारंभ में हुई और इसकी भाषा बहुत ही व्याकरणबद्ध तथा शुद्ध उच्चारण पूर्वक ग्रथित है तो उनको एक जिज्ञासा उत्पन्न हुई और वे कुछ दिन तक मेरे पास बैठकर इस ग्रन्थ के कुछ अंशों को समझने का प्रयत्न करते रहे। डॉ. गुणे का विचार उस समय अपभ्रंश भाषा के साथ सम्बन्ध रखनेवाला छोटा-मोटा व्याकरणात्मक निबन्ध लिखने का था इस दृष्टि से वे प्राचीन मराठी भाषा का सबसे महत्त्व का ग्रन्थ जो 'ज्ञानेश्वरी' हैं-उसका भी अध्ययन कर रहे थे। चूंकि 'ज्ञानेश्वरी' की मूल प्राचीन मराठी भाषा का सम्बन्ध प्राचीनतम गुजराती भाषा के साथ भी कुछ कुछ साम्य रखता है। इसलिये मैं भी ज्ञानेश्वरी की रचना का उस दृष्टि से अध्ययन करता रहता था। डॉ. गुणे का यह विचार हुआ कि तरुणप्रभाचार्य कृत-प्रस्तुत षडावश्यक बालावबोध के कुछ अंशों को प्राचीन मराठी ग्रन्थ के रूप में अवतरित किया जाय तो कैसा रहेगा? यों मैं कई वर्षों से गुजराती भाषा में लिखित प्राचीन गद्य-पद्यात्मक उल्लेखों का संग्रह करता रहा था। पाटण में रहते हुए मैंने ताड़पत्रों पर लिखे गये कितने ही गद्यांशों का भी संग्रह कर रखा था और वैसे ही वैसी अनेक पद्य रचनाओं का भी संग्रह करता रहा। प्रस्तुत बालावबोध की विशिष्ट उपयोगिता और उसके प्रकाशन निमित्त मेरे प्रयत्न पर जब मैने तरुणप्रभाचार्य कृत प्रस्तुत षडावश्यक बालावबोध का विशेष ध्यानपूर्वक अवलोकन किया तो मुझे इसकी विशिष्टता का अच्छा ख्याल हुआ और मैंने सोचा कि इस ग्रन्थ का प्राचीन गुजराती भाषा के अध्ययन की दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व है और प्रकाश में लाना चाहिए। यों मैने इसके तो पहले सोम सुन्दरसूरि कृत रचनाओं मे से ऐसे कितने प्राचीन भाषा के गद्यात्मक अवतरणों का संग्रह कर रखा था। तथा माणिक्यसुन्दरकृत-'वाग्विलास' नामक एक सम्पूर्ण गुजराती गद्यग्रन्थ का प्रकाशन भी गायकवाड़ ओरिएण्टल सिरीज के एक ग्रन्थ में प्रकाशित करवाया था। परन्तु उक्त रचनाओं की अपेक्षा मुझे प्रस्तुत 'षडावश्यक बालावबोध' अनेक दृष्टि से अधिक महत्त्व का मालूम दिया। इसके रचयिता तरुणप्रभाचार्यने गुजरात राजस्थान सिन्ध आदि प्रदेशों में विशेष परिभ्रमण किया था। अतः इनको तत्कालीन देश भाषा के विविध स्वरूपों का अच्छा परिचय था। प्रथम तो इस ग्रन्थ की रचना वि.सं. १४११-१२ में हुई, जो तब तक प्राप्त मुझे सबसे प्राचीनतम गद्यरचना मालूम दी और दूसरी विशिष्टता इसकी यह मालूम दी कि जो प्रति पूना में उपलब्ध है वह उसी समय लिखी गई और वह भी स्वयं ग्रन्थकार के निजी तत्त्वावधान में तैयार की गई है। प्रतिलिपि को ग्रन्थकारने स्वयं पदच्छेद आदि के चिन्हों से अंकित की और लिपिकर्ता से कोई शब्द या अक्षर छूट गया मालूम दिया तो उसे स्वयं उन्होंने शुद्ध कर दिया। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ की उक्त प्रतिलिपि सर्वथा प्रमाणभूत प्रतीत हुई । अतः विचार हुआ कि इस ग्रन्थ को उस मूल प्रति के आधार पर तैयार करवाकर प्रकाशित करना चाहिए। - इसके बाद सन् १९२० में महात्मा गांधीजी ने अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ नामक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की और उसमें सेवा देने के लिए स्वयं महात्माजी ने मुझे आमंत्रित किया। तब मैं पूना स्थित अपने मुख्य कार्यालय को संकुचित कर अहमदाबाद के गुजरात विद्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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