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डायरेक्टर) का कार्य भार संभालने को कहा। यद्यपि पेरे पास सिंघी जैन ग्रन्थमाला के सम्पादन एवं प्रकाशन का बहुत बड़ा काम था और जिसका पूर्ण दायित्व मेरे ही पर निर्भर था तथापि श्री मुंशीजी के सादर आग्रह के कारण मुझे भारतीय विद्या भवन के नियामक का कार्य भार मी कुछ समय के लिये हाथ में लेना पड़ा सिंघी जैन ग्रन्थमाला के संरक्षक स्व. श्री बाबू बहादुर सिंहजी सिंधी के परामर्श से ही मैंने यह काम भी संभाला। बाद में श्री मुंशीजी के आग्रह से तथा ग्रन्थमाला की भावी सुव्यवस्था एवं सुस्थिरता की दृष्टि से ग्रन्थमाला का सारा बाह्य प्रबन्ध भी भारतीय विद्या भवन को सौंप देने का मैने निर्णय किया। तद्नुसार ग्रन्थमाला भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित की जा रही है।
प्रस्तुत ग्रन्थ का संपादन कार्य डॉ. श्री प्रबोध पंडित को देने का प्रसंग उपरोक्त उल्लेखानुसार सिंधी जैन ग्रन्थमाला प्रकाश्यमान ग्रन्थों की सूची में प्रस्तुत बालावबोध का भी समावेश कर रखा था और तद्नुसार सन् १९४२-४३ में इस काम को हाथ में लेने का
और प्रेस में छपवाने का विचार मैं कर ही रहा था, उन्हीं दिनों डॉ. प्रबोध पंडित भारतीय विद्या भवन में एक स्कॉलर के रूप में कुछ अध्ययन करना चाहते थे। इसलिये मैंने इनको स्कॉलरशिप देने का प्रबन्ध किया। बाद में उनका लंदन जाकर पीएच. डी. करने का विचार हुआ तो मैंने इनको सुझाव दिया कि तरुणप्रभकृत प्रस्तुत बालावबोध के कुछ अंशों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन करने जैसा है। इनको मेरा सुझाव उपयुक्त लगा और इन्होंने लंदन जाकर इसी विषय पर अपना थीसिस तैयार करना निश्चित किया। जो प्रतिलिपि मेरे पास थी, वह मैंने इनको दी साथ में प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ नामक पुस्तक भी इनको दी क्योंकि इस ग्रन्थ की मुख्य जो कथाएँ हैं वे सब उसमें मैंने छपवा दी थी।
श्री प्रबोध पंडित लन्दन से डिग्री प्राप्त कर वापस आये तब इन्होंने मुझे अपना यह थीसिस दिखलाया इसकी विशिष्ट उपयोगिता देखकर मैंने इसे सिंधी जैन ग्रन्थमाला में छपवा देने का निर्णय किया, परन्तु इन्होंने जो काम किया वह तो ग्रन्थ गत विशिष्ट शब्दों वाक्यों का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण रूप है। ग्रन्थ का मुख्य विषय क्या है और इसमें ग्रन्थकारने किन-किन विषयों का विचारों का विवेचन किया है वह तो मूल ग्रन्थ का पूरा अध्ययन किये बिना ठीक परिज्ञान नहीं हो सकता और मेरा लक्ष्य जो इस ग्रन्थ की तरफ प्रारंभ ही से आकृष्ट हुआ है वह तो भाषाकीय विश्लेषण के उपरान्त ग्रन्थ गत विविध विषय की विशिष्टता के कारण है। अतः मैने अपने पूर्व संकल्पानुसार डॉ. प्रबोध पंडित के प्रस्तुत थीसिस के साथ पूरे ग्रन्थ को मूलरूप में शुद्धता के साथ छपवा देने का निर्णय किया और इस पूरे ग्रन्थ का सम्पादन कार्य करने का भी इनको परामर्श दिया। तदनुसार बम्बई के निर्णय सागर प्रेस में मुद्रण कार्य मैने चालू कराया।
निर्णय सागर प्रेस में इसका काम जब चाल किया तब उस प्रेस में सिंधी जैन ग्रन्थमाला के और भी ऐसे अनेक महत्त्व के ग्रन्थ छप रहे थे। इसलिये प्रेस सुविधानुसार धीरे-धीरे इसका मुद्रण कर रहा था। इसी बीच मेरा बम्बई निवास कम होने लगा और अधिक समय राजस्थान में मेरे प्रयत्न द्वारा नूतन प्रस्थापित और राजस्थान सरकार द्वारा संचालित 'राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान' का कार्यभार मुझे संभालना प्राप्त हुआ। अतः अधिक समय इस नूतन प्राच्य विद्या मंदिर की व्यवस्था में व्यस्त रहने लगा।
उधर बम्बईमें निर्णय सागर प्रेस जिसमें मेरे अनेकानेक ग्रन्थ छपते रहे, इसकी व्यवस्था में भी कुछ विशेष शिथिलता होने लगी और प्रेस अपनी इच्छानुसार काम देने में असमर्थ मालूम दिया। तब अधूरा रहा हुआ काम पूना के आर्य भूषण प्रेस में कराना निश्चित किया। ग्रन्थ सम्पादक डॉ. प्रबोध पंडित भी उस समय पूना के एक इंस्टीट्यूट में काम कर रहे थे, इसलिये इनको प्रूफ आदि देखने में सुविधा रही। इस प्रकार कई वर्षों के परिश्रम के बाद अब यह ग्रन्थ प्रकाशित होने का अवसर प्राप्त कर रहा है।
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