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प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन का पूर्व इतिहास चिरकाल की प्रतीक्षा के बाद सिंधी जैन ग्रन्थ-माला का तरुणप्रभाचार्यकृत 'षडावश्यक बालवबोध वृत्ति' नामक यह एक विशिष्ट-ग्रन्थ विद्वानों के हाथ में उपस्थित हो रहा है।
इस ग्रन्थ के प्रकाशन का इतिहास मेरे साहित्यिक-जीवन के प्रारंभ काल के जितना पुराना है।
सन् १९१९ में पूना में रहते हुए सबसे प्रथम मुझे इस ग्रन्थ का परिचय हुआ। मैं उन दिनों पूना में नूतन स्थापित भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मंदिर में राजकीय ग्रन्थ संग्रह का निरीक्षण कर रहा था; प्रो. उटगीकर उस समय उक्त संग्रह के अधीक्षक थे। वे संग्रहगत पुराने ग्रन्थों की सूचियों का निरीक्षण कर रहे थे, तब उन्होंने जैन ग्रन्थों की सूची में 'षडावश्यक वृत्ति' नामक इस ग्रन्थ की बहुत सुन्दर प्राचीन हस्तलिखित प्रति (पांडुलिपि) मेरे सामने लाकर रखी और पूछा कि इस ग्रन्थ का क्या विषय है ?
कि इसके पहले मैंने भी इस ग्रन्थ को देखा नहीं था इसलिये प्रो. उटगीकर की जिज्ञासा को पूरी करने के लिये मैंने ग्रन्थ को हाथ में लेकर उसके आदि अन्त के कुछ पन्नों को उलट पुलट किया, तो मुझे मालूम हुआ कि आवश्यक सूत्र पर प्राचीन गुजराती भाषा में सुलिखित, बालजनों को बोध कराने की दृष्टि से लिखा गया, विवरणात्मक बालावबोध वृत्ति अर्थात् व्याख्या है।
उस समय मेरे पास उक्त प्राच्य विद्या संशोधन मंदिर के मुख्य पुरस्कर्ता स्व. प्रो. पांडुरंग दामोदर गुणे बैठे हुए थे। डॉ. गुणे फर्गुसन कॉलेज में संस्कृत भाषा एवं तुलनात्मक भाषा विज्ञान के मुख्याध्यापक थे। उन्होंने जर्मनी जाकर डॉ. हर्मन जेकोबी के पास प्राकृत भाषा का विशेष अध्ययन किया था और पीएच. डी. की डिग्री ली थी। प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा में लिखित साहित्य का उस समय तक विद्वानों को विशेष परिचय प्राप्त नहीं हुआ था। मुझे जैन साहित्य एवं जैन ग्रन्थ भंडारों का अच्छा अध्ययन एवं अवलोकन होने के कारण डॉ. गुणे मुझसे इस विषय में विशिष्ट जानकारी प्राप्त करना चाहते थे। अतः उनका मेरे साथ घनिष्ट-सा सम्बन्ध हो गया था। जैन भंडारों में प्राकृत अपभ्रंश तथा प्राचीन देशी भाषाओं में लिखित बहुत विशाल साहित्य भरा पड़ा है। इसका परिचय मैं उनको देता रहता था। कुछ छोटी अपभ्रंशी रचनाओं का मैंने उनको परिचय दिया तो वे उनको सम्पादित कर किसी संशोधनात्मक अंग्रेजी पत्रिका में प्रगट करना चाहते थे। उसी सिलसिले में डॉ. गुणे को मैंने इस ग्रन्थ का भी कुछ परिचय कराया। बालावबोध शब्द का अर्थ उनको समझाया। मराठी भाषा में बालबोध शब्द प्रचलित है। परन्तु वह तो प्रायः देवनागरी लिपि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। बालबोध अर्थात् देवनागरी लिपि में लिखी तथा छपी हुई मराठी पुस्तक । इससे भ्रान्त होकर डॉ. गुणे ने पूछा कि क्या यह ग्रन्थ मराठी भाषा में है ? तब मैंने उनको बताया कि प्राचीन जैन ग्रन्थों का आबाल-जनों को ज्ञान प्राप्त कराने की दृष्टि से उन पर प्रचलित देश भाषा में जो कोई अर्थ, विवरण या विवेचन आदि लिखे जाते हैं वे सामान्य रूप से बालावबोध के नाम से पहचाने जाते हैं।
जैन आगमों में आवश्यक सूत्र-नामक नामक प्राकृत भाषा का जो एक मूल सूत्र है, उस पर प्राचीन काल में संस्कृत भाषा में अनेक व्याख्याएँ तथा टीकाएँ आदि लिखी गई हैं; परंतु यह आवश्यक सूत्र संस्कृत तथा प्राकृत भाषा नहीं जानने वाले जैन गृहस्थ-स्त्री, पुरुष या बाल आदि सामान्य जनों को भी अवश्य पठनीय है। इसलिये इसका ज्ञान होना आवश्यक मानकर मध्यकालीन जैन विद्वानों ने अपने समय की प्रचलित देश भाषा में विवरण आदि लिखने का प्रयत्न
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