Book Title: Shadashitika Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 7
________________ गुणस्थान का विशेष स्वरूप २६३ कि आत्मा किस प्रकार और किम क्रम से आध्यात्मिक विकास करता है, तथा उसे विकास के समय कैसी-कैसी अवस्था का अनुभव होता है। इस जिज्ञासा की पूर्ति की दृष्टि से देखा जाए तो अन्य विषयों की अपेक्षा गुणस्थान का महत्त्व अधिक है। इस खयाल से इस जगह गुणस्थान का स्वरूप कुछ विस्तार के साथ लिखा जाता है। साथ ही यह भी बतलाया जाएगा कि जैनशास्त्र की तरह वैदिक तथा बौद्ध-शास्त्र में भी आध्यात्मिक विकास का कैसा वर्णन है। यद्यपि ऐसा करने में कुछ विस्तार अवश्य हो जाएगा तथापि नीचे लिखे जानेवाले विचार से जिज्ञासुओं की यदि कुछ भी ज्ञान-वृद्धि तथा रुचि-शुद्धि हुई तो यह विचार अनुपयोगी न समझा जाएगा। गुणस्थान का विशेष स्वरूप गुणों ( आत्मशक्तियों) के स्थानों को अर्थात् विकास की ऋमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। जैनशास्त्र में गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्द का मतलब पात्मिक शक्तियों के आविभाव की-उनके शुद्ध कार्यरूप में परिणत होते रहने की तर-तम-भावापन्न अवस्थाओं से है। आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्ध-चेतना और पूर्णानन्दमय है। पर उसके ऊपर जब तक तीव्र श्रावरणों के घने बादलों की घटा छाई हो, तब तक उसका असली स्वरूप दिखाई नहीं देता। किंतु आवरणों के क्रमशः शिथिल या नष्ट होते ही उसका असली स्वरूप प्रकट होता है। जब आवरणों की तीव्रता आखिरी हद्द की हो, तब श्रात्मा प्राथमिक अवस्था में-अविकसित अवस्था में पड़ा रहता है । और जब आवरण बिलकुल ही नष्ट हो जाते हैं, तब आत्मा चरम अवस्था-शुद्ध स्वरूप की पूर्णता में वर्तमान हो जाता है। जैसे-जैसे आवरणों की तीव्रता कम होती जाती है, वैसे-वैसे आत्मा भी प्राथमिक अवस्था को छोड़कर धीरे-धीरे शुद्ध स्वरूप का लाभ करता हुअा चरम अवस्था की ओर प्रस्थान करता है। प्रस्थान के समय इन दो अवस्थाओं के बीच उसे अनेक नीची ऊँची अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता है । प्रथम अवस्था को अविकास की अथवा अधःपतन की पराकाष्ठा और चरम अवस्था को विकास की अथवा उत्क्रान्ति की पराकाष्ठा समझना चाहिए । इस विकासक्रम की मध्यवर्तिनी सब अवस्थाओं को अपेक्षा से उच्च भी कह सकते हैं और नीच भी। अर्थात् मध्यवर्तिनी कोई भी अवस्था अपने से ऊपरवाली अवस्था की अपेक्षा नीच और नीचेवाली अवस्था की अपेक्षा उच्च कही जा सकती है। विकास की ओर अग्रसर अात्मा वस्तुतः उक्त प्रकार की संख्यातीत आध्यात्मिक भूमिकाओं का अनुभव करता है। पर जैनशास्त्र में संक्षेप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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