Book Title: Shadashitika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 22
________________ २७८ जैन धर्म और दर्शन गए हैं। चार में से पहले दो अशुभ और पिछले दो शुभ हैं । पौद्गलिक दृष्टि की मुख्यता के किंवा आत्म-विस्मृति के समय जो ध्यान होता है, वह अशुभ और पौद्गलिक दृष्टि की गौणता व आत्मानुसन्धान-दशा में जो ध्यान होता है, वह शुभ है। अशुभ ध्यान संसार का कारण और शुभ ध्यान मोक्ष का कारण है। पहले तीन गुणस्थानों में आर्त और रौद्र, ये दो ध्यान ही तर-तम-भाव से पाए जाते हैं। चौथे और पाँचवें गुणस्थान में ऊक्त दो ध्यानों के अतिरिक्त सम्यक्त्व के प्रभाव से धर्मध्यान भी होता है। छठे गणस्थान में आर्त और धर्म, ये दो ध्यान होते हैं। सातवें गुणस्थान में सिर्फ धर्मध्यान होता है । आठवें से बारहवें तक पाँच गुणस्थानों में धर्म और शुक्ल, ये दो ध्यान होते हैं । .. तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में सिर्फ शुक्लध्यान होता है । गुणस्थानों में पाए जानेवाले ध्यानों के उक्त वर्णन से तथा गुणस्थानों में किये हुए बहिरात्म-भाव आदि पूर्वोक्त विभाग से प्रत्येक मनुष्य यह सामान्यतया जान सकता है कि मैं किस गुणस्थान का अधिकारी हूँ। ऐसा ज्ञान, योग्य अधिकारी की नैसर्गिक महत्त्वाकाक्षा को ऊपर के गुणस्थानों के लिए उत्तेजित करता है। दर्शनान्तर के साथ जैनदर्शन का साम्य ___ जो दर्शन, आस्तिक अर्थात् आत्मा, उसका पुनर्जन्म, उसकी विकासशीलता तथा मोक्ष-योग्यता माननेवाले हैं, उन सभी में किसी-न-किसी रूप में आत्मा के ऋमिक विकास का विचार पाया जाना स्वाभाविक है। अतएव आर्यावर्त के बैन, वैदिक और बौद्ध, इन तीनों प्राचीन दर्शनों में उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है। यह विचार जैनदर्शन में गणस्थान के नाम से, वैदिक दर्शन में भूमिकाओं के नाम से और बौद्धदर्शन में अवस्थाओं के नाम से प्रसिद्ध है । गुणस्थान का विचार, जैसा जैनदर्शन में सूक्ष्म तथा विस्तृत है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं है, तो भी उक्त तीनों दर्शनों की उस विचार के संबन्ध में बहुत कुछ समता है । अर्थात् संकेत, वर्णनशैली आदि की भिन्नता होने पर भी वस्तुतत्त्व के विषय में तीनों दर्शनों का भेद नहीं के बराबर ही है। वैदिकदर्शन के योगवासिष्ट, पातञ्जल योग आदि ग्रन्थों में आत्मा की भमिकाओं का अच्छा विचार है । १ इसके लिए देखिये, तत्त्वार्थ अ० ६, सूत्र ३५ से ४० । ध्यानशतक, गा०, ६३ और ६४ तथा आवश्यक-हारिभद्री टीका पृ०६०२। इस विषय में तत्त्वार्थ के उक्त सूत्रों का राजवार्तिक विशेष देखने योग्य है, क्योंकि उसमें श्वेताम्बरग्रंथों से थोड़ा सा मतभेद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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