Book Title: Shadashitika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 25
________________ श्रध्यात्मिक विकास की तुलना २८१ तात्पर्य दृश्यके श्रभिमान या अभ्यास से है । (५) जैसे, जैनशास्त्र में अन्थिभेद का वर्णन है वैसे ही योगवासिष्ठ में भी है । (६) वैदिक ग्रन्थों का यह वर्णन कि ब्रह्म, माया के संसर्ग से संकल्प-विकल्पात्मक ऐन्द्रजालिक सृष्टि रचता है; तथा स्थावरजङ्गमात्मक जगत् का कल्प के अन्त में नाश होता है, इत्यादि बातों की संगति जैनशास्त्र के अनुसार इस प्रकार की जा सकती है - आत्मा व्यवहार राशि से व्यवहारराशि में आना ब्रह्म का जीवत्व धारण करना है । क्रमशः सूक्ष्म तथा स्थूल मन के द्वारा संज्ञित्व प्राप्त करके कल्पनाजाल में आत्मा का विचरण करना संकल्प - विकल्पात्मक ऐन्द्रजालिक सृष्टि है। शुद्ध श्रात्म-स्वरूप व्यक्त होने पर सांसारिक पर्यायों का नाश होना ही कल्प के अन्त में स्थावरजंगमात्मक जगत् का नाश है श्रात्मा अपनी सत्ता भूलकर जड़ सत्ताको स्वसत्ता मानता है, जो हंश्य-ममस्व भावना रूप मोह का उदय और बन्ध का कारण है । वही स्व-ममय भावना वैदिक वर्णन-शैली के अनुसार बन्धहेतुभूत दृश्य सत्ता है । उत्पत्ति, वृद्धि, विकाश, स्वर्ग, नरक आदि जो जीव की अवस्थाएँ - वैदिक ग्रन्थों में वर्णित हैं, वे ही जैन-दृष्टि के अनुसार व्यवहार- राशि - गत जीव के पर्याय हैं । (७) योगवासिष्ठ में ४ स्वरूप स्थिति को ज्ञानी का और स्वरूप १. ज्ञप्तिर्हि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता | मृगतृष्णाम्बुबुद्ध या दिशान्तिमात्रात्मकत्वसौ ॥ २३॥' - उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११८ २. 'तत्स्वयं स्वैरमेवाशु, संकल्पयति नित्यशः । तेनेत्थमिन्द्रजालश्रीर्विततेयं वितन्यते ॥ १६ ॥ ' 'यदिदं दृश्यते सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् । तत्सुताविव स्वप्नः, कल्पान्ते प्रविनश्यति ॥ १० ॥ - उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग १ | स तथाभूतएवात्मा, स्वयमन्य इबोल्लसन् | जीवतामुपयातीय, भाविनाम्रा कदर्थिताम् ॥ १३ ॥ ' ३. उत्पद्यते यो जगति, स एव किल वर्धते । स एव मोक्षमाप्नोति, स्वर्गं वा नरकं च वा ॥ ७॥ " Jain Education International ४. 'स्वरूपावस्थितिर्मुक्तिस्तभ्रंशोऽहंत्ववेदनम् । एतत् संक्षेपतः प्रोक्तं तज्ज्ञत्वाज्ञत्वलक्षणम् ||५||' उत्पत्ति-प्रकरण, सर्ग १ । - उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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