Book Title: Shadashitika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 34
________________ २६० जैन धर्म और दर्शन वह परम्परा से भी मोक्ष के अनुकूल न होने के सबब से योग नहीं कहा जाता । पातञ्जलदर्शन में भी अनादि सांसारिक काल के निवृत्ताधिकार प्रकृति और और अनिवृत्ताधिकार प्रकृति इस प्रकार दो भेद बतलाए हैं, जो जैन शास्त्र के चरम और चरम-पुद्गलपरावर्त के समानार्थक हैं । योग के भेद और उनका आधार 3 I हैं, उनका आधार क्या है ? जैनशास्त्र * में (१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय, ऐसे पाँच भेद योग के किये हैं । पातञ्जलदर्शन में योग के (१) सम्प्रज्ञात और (२) सम्प्रज्ञात, ऐसे दो भेद हैं । जो मोक्ष का साक्षात्श्रव्यवहित कारण हो अर्थात् जिसके प्राप्त होने के बाद तुरंत ही मोक्ष हो, वही यथार्थ में योग कहा जा सकता है। ऐसा योग जैनशास्त्र के संकेतानुसार वृत्तिसंक्षय और पातञ्जलदर्शन के संकेतानुसार सम्प्रज्ञात ही है । अतएव यह प्रश्न होता है कि योग के जो इतने भेद किये जाते इसका उत्तर यह है कि अलबत्ता वृत्तिसंक्षय किंवा सम्प्रज्ञात ही मोक्ष का साक्षात् कारण होने से वास्तव में योग है । तथापि वह योग किसी विकासगामी आत्मा को पहले ही पहल प्राप्त नहीं होता, किंतु इसके पहले विकास क्रम के अनुसार ऐसे अनेक आंतरिक धर्म-व्यापर करने पड़ते हैं, जो उत्तरोत्तर विकास को बढ़ाने वाले और अंत में उस वास्तविक योग तक पहुँचानेवाले योग के कारण होने से अर्थात् वृत्तिसंक्षय या परम्परा से हेतु होने से योग कहे जाते हैं । F होते हैं । वे सब धर्म - व्यापार सम्प्रज्ञात योग के साक्षात् किंवा सारांश यह है कि योग के भेदों का धार विकास का क्रम है। यदि विकास क्रमिक न होकर एक ही बार पूर्णतया प्राप्त हो जाता तो योग के भेद नहीं किये जाते । अतएव वृत्तिसंक्षय जो मोक्ष का साक्षात् कारण है, उसको प्रधान योग समझना चाहिए और उसके पहले के जो अनेक धर्म-व्यापार योगकोटि में गिने जाते हैं, वे प्रधान योग के कारण होने से योग कहे जाते हैं । इन सब व्यापारों की समष्टि को पातञ्जलदर्शन में सम्प्रज्ञात १ योजनाद्योग इत्युक्तो मोक्षेण मुनिसत्तमैः । निवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ लेशतो ध्रुवः ॥ १४ ॥ — पुनर्ब्रन्धद्वात्रिंशिका | २ 'अध्यात्मं भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः । योगः पञ्चविधः प्रोक्तो, योगमार्गविशारदैः ॥ १॥ ३ देखिए, पाद १, सूत्र १७ और १८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only - योगभेदद्वात्रिंशिका | www.jainelibrary.org

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