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'षडशीतिक'
नाम
प्रस्तुत प्रकरण का 'चौथा कर्मग्रन्थ' यह नाम प्रसिद्ध है, किन्तु इसका असली नाम षडशीतिक है । यह 'चौथा कर्मग्रन्थ' इसलिए कहा गया है कि छह कर्मग्रन्थों में इसका नम्बर चौथा है; और 'घडशीतिक' नाम इसलिए नियत है कि इसमें मूल गाथाएँ छियासी हैं । इसके सिवाय इस प्रकरण को 'सूक्ष्मार्थ विचार भी कहते हैं, सो इसलिए कि ग्रंथकार ने ग्रंथ के अंत में 'मुहुमत्थवियारो' शब्द का उल्लेख किया है। इस प्रकार देखने से यह स्पष्ट ही मालूम होता है' कि प्रस्तुत प्रकरण के उक्त तीनों नाम अन्वर्थ—सार्थक हैं।
यद्यपि टबावाली प्रति जो श्रीयुत् भीमसी माणिक द्वारा निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित 'प्रकरण रत्नाकर चतुर्थ भाग' में छपी है, उसमें मूल गाथाओं की संख्या नवासी है, किन्तु वह प्रकाशक को भल है। क्योंकि उसमें जो तीन गाथाएँ दूसरे, तीसरे और चौथे नम्बर पर मूल रूप में छपी हैं, वे वस्तुतः मूल रूप नहीं हैं, किंतु प्रस्तुत प्रकरण की विषय-संग्रह गाथाएँ हैं। अर्थात् इस प्रकरण में मुख्य क्या-क्या विषय हैं और प्रत्येक मुख्य विषय से संबंध रखनेवाले अन्य कितने विषय हैं, इसका प्रदर्शन करनेवाली वे गाथाएँ हैं । अतएव ग्रंथकार ने उक्त तीन गाथाएँ स्वपोज्ञ टोका में उद्धृत की हैं, मूल रूप से नहीं ली है और न उन पर टीका की है। संगति
पहले तीन कर्मग्रंथों के विषयों की संगति स्पष्ट है । अर्थात् पहले कर्मग्रंथ में मूल तथा उत्तर कर्म प्रकृतियों की संख्या और उनका विपाक वर्णन किया गया है । दूसरे कर्मग्रन्थ में प्रत्येक गुणस्थान को लेकर उसमें यथासंभव बंध, उदय, उदीरणा और सत्तागत उत्तर प्रकृतियों की संख्या बतलाई गई है और तीसरे कर्मग्रंथ में प्रत्येक मार्गणास्थान को लेकर उसमें यथासंभव गुणस्थानों के विषय में उत्तर कर्मप्रकृतियों का बंधस्वामित्व वर्णन किया है। तीसरे कर्मग्रंथ में मार्गणास्थानों में गुणस्थानों को लेकर बंधस्वामिस्व वर्णन किया है सही, किंतु मूल में कहीं भी यह विषय स्वतंत्र रूप से नहीं कहा गया है कि किस किस मार्गणास्थान में कितने-कितने और किन-किन गणास्थानों का सम्भव है ।
अतएव चतुर्थ कर्मग्रन्थ में इस विषय का प्रतिपादन किया है और उक्त
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जैन धर्म और दर्शन जिज्ञासा की पूर्ति की गई है । जैसे मार्गणास्थानों में गुणस्थानों की जिज्ञासा होती है, वैसे ही जीवस्थानों में गुणस्थानों की और गुणस्थानों में जीवस्थानों की भी जिज्ञासा होती है। इतना ही नहीं, बल्कि जीवस्थानों में योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की और मार्गणास्थानों में जीवस्थान, योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की तथा गुणस्थानों में योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की भी जिज्ञासा होती है। इन सब जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिए चतुर्थ कर्मग्रन्थ की रचना हुई है । इससे इसमें मुख्यतया जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये तीन अधिकार रखे गये हैं । और प्रत्येक अधिकार में क्रमशः अाट, छह तथा दस विषय वर्णित हैं, जिनका निर्देश पहली गाथा के भावार्थ में पृष्ठ पर तथा स्फुट नोट में संग्रह गाथाओं के द्वारा किया गया है । इसके सिवाय प्रसंग वश इस ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने भावों का और संख्या का भी विचार किया है। ___यह प्रभ हो ही नहीं सकता कि तीसरे कर्मग्रन्थ की संगति के अनुसार मार्गणास्थानों में गुणस्थानों मात्र का प्रतिपादन करना आवश्यक होने पर भी, जैसे अन्य-अन्य विषयों का इस ग्रंथ में अधिक वर्णन किया है, वैसे और भी नए-नए कई विषयों का वर्णन इसी ग्रंथ में क्यों नहीं किया गया ? क्योंकि किसी भी एक ग्रंथ में सब विषयों का वर्णन असंभव है। अतएव कितने और किन विषयों का किस क्रम से वर्णन करना, यह ग्रंथकार की इच्छा पर निर्भर है; अर्थात् इस बात में ग्रंथकार स्वतंत्र है। इस विषय में नियोग-पर्यनुयोग करने का किसी को अधिकार नहीं है। प्राचीन और नवीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ ___षडशीतिक' यह मुख्य नाम दोनों का समान है, क्योंकि गाथाओं की संख्या दोनों में बराबर छियासी ही है। परंतु नवीन ग्रंथकार ने 'सूक्ष्मार्थ विचार' ऐसा नाम दिया है और प्राचीन की टीका के अंत में टीकाकार ने उसका नाम 'पागमिक वस्तु विचारसार' दिया है। नवीन की तरह प्राचीन में भी मुख्य अधिकार जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान ये तीन ही हैं। गौण अधिकार भी जैसे नवीन में क्रमशः पाठ, छह तथा दस हैं, वैसे ही प्राचीन में भी हैं । गाथाओं की संख्या समान होते हुए भी नवीन में यह विशेषता है कि उसमें वर्णनशैली संक्षिप्त करके ग्रंथकार ने दो और विषय विस्तारपूर्वक वर्णन किये हैं। पहला विषय 'भाव' और दूसरा 'संख्या' है । इन दोनों का स्वरूप नवीन में सविस्तर है और प्राचीन में बिलकुल नहीं है । इसके सिवाय प्राचीन और नवीन का विषय-साम्य तथा क्रम-साम्य बराबर है। प्राचीन पर टीका, टिप्पणी, विवरण, उद्धार, भाष्य
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'षडशीतिक '
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यदि व्याख्याएँ नवीन की अपेक्षा अधिक हैं। हाँ, नवीन पर, जैसे गुजराती टबे हैं, वैसे प्राचीन पर नहीं हैं ।
इस संबंध की विशेष जानकारी के लिए अर्थात् प्राचीन और नवीन पर कौन-कौन सी व्याख्या किस-किस भाषा में और किस किसकी बनाई हुई है, इत्यादि जानने के लिए पहले कर्मग्रंथ के आरम्भ में जो कर्मविषयक साहित्य की तालिका दी है, उसे देख लेना चाहिए ।
चौथा कर्ममन्य और आगम, पंचसंग्रह तथा गोम्मटसार
यद्यपि चौथे कर्मग्रंथ का कोई-कोई ( जैसे गुणस्थान यादि ) विषय वैदिक तथा बौद्ध साहित्य में नामांतर तथा प्रकारांतर से वर्णन किया हुआ मिलता है, तथापि उसकी समान कोटि का कोई खास ग्रंथ उक्त दोनों सम्प्रदायों के साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं हुआ ।
जैन- साहित्य श्वेताम्बर और दिगम्बर, दो सम्प्रदायों में विभक्त है । श्वेताम्बरसम्प्रदाय के साहित्य में विशिष्ट विद्वानों की कृति स्वरूप 'आगम' और 'पञ्चसंग्रह ' ये प्राचीन ग्रंथ ऐसे हैं, जिनमें कि चौथे कर्मग्रंथ का सम्पूर्ण विषय पाया जाता है, या यों कहिए कि जिनके आधार पर चौथे कर्मग्रंथ की रचना ही की गई है।
यद्यपि चौथे कर्मग्रंथ में और जितने विषय जिस क्रम से वर्णित हैं, वे सब उसी क्रम से किसी एक श्रागम तथा पञ्चसंग्रह के किसी एक भाग में वर्णित नहीं हैं, तथापि भिन्न-भिन्न श्रागम और पञ्चसंग्रह के भिन्न-भिन्न भाग में उसके सभी विषय लगभग मिल जाते हैं। चौथे कर्मग्रंथ का कौन सा विषय किस श्रागम में और पञ्चसंग्रह के किस भाग में आता है, इसकी सूचना प्रस्तुत अनुवाद में उसउस विषय के प्रसंग में टिप्पणी के तौर पर यथासंभव कर दी गई है, जिससे कि प्रस्तुत ग्रंथ के अभ्यासियों को आगम और पञ्चसंग्रह के कुछ उपयुक्त स्थल मालूम हों तथा मतभेद और विशेषताएँ ज्ञात हो ।
प्रस्तुत ग्रंथ के अभ्यासियों के लिए ग्रागम और पञ्चसंग्रह का परिचय करना लाभदायक है; क्योंकि उन ग्रंथों के गौरव का कारण सिर्फ उनकी प्राचीनता ही नहीं है, बल्कि उनकी विषय- गम्भीरता तथा विषयस्फुटता भी उनके गौरव का कारण है। 'गोम्मटसार' यह दिगम्बर सम्प्रदाय का कर्म-विषयक एक प्रतिष्ठित ग्रंथ है, जो कि इस समय उपलब्ध है । यद्यपि वह श्वेताम्बरीय श्रागम तथा पञ्चसंग्रह की अपेक्षा बहुत अर्वाचीन है, फिर भी उसमें विषय-वर्णन, विषय-विभाग और प्रत्येक विषय के लक्षण बहुत स्फुट हैं । गोम्मटसार के 'कर्मकाण्ड'- ये मुख्य दो विभाग हैं। चौथे कर्मग्रंथ का विषय
'जीवका एड' और जीवकाण्ड में ही
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जैन धर्म और दर्शन है और वह इससे बहुत बड़ा है। यद्यपि चौथे कर्मग्रंथ के सब विषय प्रायः जीवकाण्ड में वर्णित हैं, तथापि दोनों की वर्णनशैली बहुत अंशों में भिन्न है।
जीवकाण्ड में मुख्य बीस प्ररूपणाएँ हैं-१ गुणस्थान, १ जीवस्थान, १ पर्याप्ति, १ प्राण, १ संज्ञा, १४ मार्गणाएँ और १ उपयोग, कुल बीस । प्रत्येक प्ररूपणा का उसमें बहुत विस्तृत और विशद वर्णन है। अनेक स्थलों में चौथे ग्रंथ के साथ उसका मतभेद भी है। ___ इसमें संदेह नहीं कि चौथे कर्मग्रंथ के पाठियों के लिए जीवकाण्ड एक खास देखने की वस्तु है; क्योंकि इससे अनेक विशेष बातें मालूम हो सकती हैं । कर्मविषयक अनेक विशेष बातें जैसे श्वेताम्बरीय ग्रंथों में लभ्य हैं, वैसे ही अनेक विशेष बातें, दिगंबरीय ग्रंथों में भी लभ्य हैं । इस कारण दोनों संप्रदाय के विशेषजिज्ञासुत्रों को एक दूसरे के समान विषयक ग्रंथ अवश्य देखने चाहिए। इसी अभिप्राय से अनुवाद में उस-उस विषय का साम्य और वैषम्य दिखाने के लिए जगह-जगह गोम्मटसार के अनेक उपयुक्त स्थल उद्धत तथा निर्दिष्ट किये हैं। विषय-प्रवेश
जिज्ञासु लोग जब तक किसी भी ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषय का परिचय नहीं कर लेते तब तक उस ग्रंथ के लिए प्रवृत्ति नहीं करते। इस नियम के अनुसार प्रस्तुत ग्रंथ के अध्ययन के निमित्त योग्य अधिकारियों की प्रवृत्ति कराने के लिए यह आवश्यक है कि शुरू में प्रस्तुत ग्रंथ के विषय का परिचय कराया जाए। इसी को 'विषय-प्रवेश' कहते है। ' विषय का परिचय सामान्य और विशेष दो प्रकार से कराया जा सकता है ।
(क) ग्रंथ किस तात्पर्य से बनाया गया है, उसका मुख्य विषय क्या है और वह कितने विभागों में विभाजित है; प्रत्येक विभाग से संबन्ध रखनेवाले अन्य कितने-कितने और कौन-कौन विषय हैं; इत्यादि वर्णन करके ग्रंथ के शब्दात्मक कलेवर के साथ विषय-रूप आत्मा के संबन्ध का स्पष्टीकरण कर देना अर्थात् ग्रंथ का प्रधान और गौण विषय क्या-क्या है तथा वह किस-किस क्रम से वर्णित है, इसका निर्देश कर देना, यह विषय का सामान्य परिचय है ।
(ख) लक्षण द्वारा प्रत्येक विषय का स्वरूप बतलाना यह उसका विशेष परिचय है।
प्रस्तुत ग्रंथ के विषय का विशेष परिचय तो उस-उस विषय के वर्णन-स्थान में यथासंभव मूल में किंवा विवेचन में करा दिया गया है । अतएव इस जगह विषय फा सामान्य परिचय कराना ही आवश्यक एवं उपयुक्त है। .
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'षडशीतिक'
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प्रस्तुत ग्रंथ बनाने का तात्पर्य यह है कि सांसारिक जीवों की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन करके यह बतलाया जाए कि अमुक-अमुक अवस्थाएँ औपाधिक, वैभाविक किंवा कर्म-कृत होने से अस्थायी तथा हेय हैं; और अमुकमुवस्था स्वाभाविक होने के कारण स्थायी तथा उपादेय है । इसके सिवा यह भी बतलाना है कि, जीव का स्वभाव प्रायः विकास करने का है । श्रतएव वह अपने स्वभाव के अनुसार किस प्रकार विकास करता है और तद्द्वारा श्रपाfue वस्थाओं को त्याग कर किस प्रकार स्वाभाविक शक्तियों का आविर्भाव करता है ।
इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए प्रस्तुत ग्रंथ में मुख्यतया पाँच विषय वर्णन किये हैं
(१) जीवस्थान, (२) मार्गणास्थान, (३) गुणस्थान, (४) भाव और(५) संख्या ।
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इनमें से प्रथम मुख्य तीन विषयों के साथ अन्य विषय भी वर्णित हैंस्थान में (१) गुणस्थान, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध, (६) उदय, (७) उदीरणा और (८) सत्ता ये आठ विषय वर्णित हैं । मार्गणा स्थान में (१) जीवस्थान, (२) गुणस्थान, (३) योग, (४) उपयोग, (५) लेश्या और (६) अल्पबहुत्व, ये छः विषय वर्णित हैं तथा गुणस्थान में ( १ ) जीवस्थान. (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध-हेतु, (६) बन्ध, (७) उदय (८) उदीरणा, (६) सत्ता और (१०) अल्प- बहुत्व, ये दस विषय वर्णित हैं । पिछले दो विषयों का अर्थात् भाव और संख्या का वर्णन अन्य अन्य विषय के वर्णन से मिश्रित नहीं है, अर्थात् उन्हें लेकर अन्य कोई विषय वर्णन नहीं किया है ।
इस तरह देखा जाए तो प्रस्तुत ग्रंथ के शब्दात्मक कलेवर के मुख्य पाँच हिस्से हो जाते हैं ।
पहिला हिस्सा दूसरी गाथा से आठवीं गाथा तक का है, जिसमें जीवस्थान का मुख्य वर्णन कर के उसके संबन्धी उक्त आठ विषयों का वर्णन किया गया है । दूसरा हिस्सा नवीं गाथा से लेकर चौवालिसवीं गाथा तक का है, जिसमें मुख्यतया मार्गणास्थान को लेकर उसके संबंध से छः विषयों का वर्णन किया: गया है । तीसरा हिस्सा पैंतालीसवीं गाथा से लेकर त्रेसठवीं गाथा तक का है, जिसमें मुख्यतया गुणस्थान को लेकर उसके आश्रय से उक्त दस विषयों का वर्णन किया गया है। चौथा हिस्सा चौंसठवीं गाथा से लेकर सन्तरवीं गाथा तक: का है, जिसमें केवल भावों का वर्णन है । पाँचवाँ हिस्सा इकहत्तरवी गाथा से
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जैन धर्म और दर्शन
छियासीवीं गाथा तक का है, जिसमें सिर्फ संख्या का वर्णन है । संख्या के वर्णन के साथ ही ग्रंथ की समाप्ति होती है ।
जीवस्थान आदि उक्त मुख्य तथा गौण विषयों का स्वरूप पहली गाथा के भावार्थ में लिख दिया गया है; इसलिए फिर से यहाँ लिखने की जरूरत नहीं है । तथापि यह लिख देना आवश्यक है कि प्रस्तुत ग्रंथ बनाने का उद्देश्य जो ऊपर लिखा गया है, उसकी सिद्धि जीवस्थान आदि उक्त विषयों के वर्णन से किस प्रकार हो सकती है ।
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जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान और भाव ये सांसारिक जीवों की विविध अवस्थाएँ हैं । जीवस्थान के वर्णन से यह मालूम किया जा सकता है कि जीवस्थान रूप चौदह अवस्थाएँ जाति सापेक्ष हैं किंवा शारीरिक रचना के विकास या इंद्रियों की न्यूनाधिक संख्या पर निर्भर हैं। इसी से सब कर्म-कृत या वैभाविक होने के कारण अंत में हेय हैं । मार्गणास्थान के बोध से यह विदित हो जाता है कि सभी मार्गणाएँ जीव की स्वाभाविक अवस्था रूप नहीं हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र और अनाहारकत्व के सिवाय अन्य सत्र मार्गणाएँ न्यूनाधिक रूप में अस्वाभाविक हैं । अतएव स्वरूप की पूर्णता के इच्छुक जीवों के लिए अन्त में वे हेय ही हैं। गुणस्थान के परिज्ञान से यह ज्ञात हो जाता है कि गुणस्थान यह श्राध्यात्मिक उत्क्रांति करनेवाले श्रात्मा की उत्तरोत्तर विकास सूचक भूमिकाएँ हैं । पूर्व-पूर्व भूमिका के समय उत्तर- उत्तर भूमिका उपादेय होने पर भी परिपूर्ण विकास हो जाने से वे सभी भूमिकाएँ आप ही आप छुट जाती हैं। भावों की जानकारी से यह निश्चय हो जाता है कि क्षायिक भावों को छोड़कर अन्य सब भाव चाहे वे उत्क्रांति काल में उपादेय क्यों न हों, पर अन्त में हेय ही हैं। इस प्रकार जीव का स्वाभाविक स्वरूप क्या है और अस्वाभाविक क्या है, इसका विवेक करने के लिए जीवस्थान आदि उक्त विचार जो प्रस्तुत ग्रंथ में किया गया है, वह श्राध्यात्मिक विद्या के अभ्यासियों के लिए अतीव उपयोगी है ।
आध्यात्मिक ग्रंथ दो प्रकार के हैं । एक तो ऐसे हैं जो सिर्फ आत्मा के शुद्ध स्वरूप का और दूसरे, अशुद्ध, तथा मिश्रित स्वरूप का वर्णन करते हैं । प्रस्तुत ग्रंथ दूसरी कोटि का है । अध्यात्मविद्या के प्राथमिक और माध्यमिक अभ्यासियों के लिए ऐसे ग्रंथ विशेष उपयोगी हैं; क्योंकि उन अभ्यासियों की दृष्टि व्यवहार-परायण होने के कारण ऐसे ग्रंथों के द्वारा ही क्रमशः केवल पारमार्थिक स्वरूप ग्राहिणी बनाई जा सकती है ।
श्रध्यात्मिक-विद्या के प्रत्येक अभ्यासी की यह स्वाभाविक जिज्ञासा होती है
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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
२६३ कि आत्मा किस प्रकार और किम क्रम से आध्यात्मिक विकास करता है, तथा उसे विकास के समय कैसी-कैसी अवस्था का अनुभव होता है। इस जिज्ञासा की पूर्ति की दृष्टि से देखा जाए तो अन्य विषयों की अपेक्षा गुणस्थान का महत्त्व अधिक है। इस खयाल से इस जगह गुणस्थान का स्वरूप कुछ विस्तार के साथ लिखा जाता है। साथ ही यह भी बतलाया जाएगा कि जैनशास्त्र की तरह वैदिक तथा बौद्ध-शास्त्र में भी आध्यात्मिक विकास का कैसा वर्णन है। यद्यपि ऐसा करने में कुछ विस्तार अवश्य हो जाएगा तथापि नीचे लिखे जानेवाले विचार से जिज्ञासुओं की यदि कुछ भी ज्ञान-वृद्धि तथा रुचि-शुद्धि हुई तो यह विचार अनुपयोगी न समझा जाएगा। गुणस्थान का विशेष स्वरूप
गुणों ( आत्मशक्तियों) के स्थानों को अर्थात् विकास की ऋमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। जैनशास्त्र में गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्द का मतलब पात्मिक शक्तियों के आविभाव की-उनके शुद्ध कार्यरूप में परिणत होते रहने की तर-तम-भावापन्न अवस्थाओं से है। आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्ध-चेतना और पूर्णानन्दमय है। पर उसके ऊपर जब तक तीव्र श्रावरणों के घने बादलों की घटा छाई हो, तब तक उसका असली स्वरूप दिखाई नहीं देता। किंतु आवरणों के क्रमशः शिथिल या नष्ट होते ही उसका असली स्वरूप प्रकट होता है। जब आवरणों की तीव्रता आखिरी हद्द की हो, तब श्रात्मा प्राथमिक अवस्था में-अविकसित अवस्था में पड़ा रहता है । और जब आवरण बिलकुल ही नष्ट हो जाते हैं, तब आत्मा चरम अवस्था-शुद्ध स्वरूप की पूर्णता में वर्तमान हो जाता है। जैसे-जैसे आवरणों की तीव्रता कम होती जाती है, वैसे-वैसे आत्मा भी प्राथमिक अवस्था को छोड़कर धीरे-धीरे शुद्ध स्वरूप का लाभ करता हुअा चरम अवस्था की ओर प्रस्थान करता है। प्रस्थान के समय इन दो अवस्थाओं के बीच उसे अनेक नीची ऊँची अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता है । प्रथम अवस्था को अविकास की अथवा अधःपतन की पराकाष्ठा और चरम अवस्था को विकास की अथवा उत्क्रान्ति की पराकाष्ठा समझना चाहिए । इस विकासक्रम की मध्यवर्तिनी सब अवस्थाओं को अपेक्षा से उच्च भी कह सकते हैं
और नीच भी। अर्थात् मध्यवर्तिनी कोई भी अवस्था अपने से ऊपरवाली अवस्था की अपेक्षा नीच और नीचेवाली अवस्था की अपेक्षा उच्च कही जा सकती है। विकास की ओर अग्रसर अात्मा वस्तुतः उक्त प्रकार की संख्यातीत आध्यात्मिक भूमिकाओं का अनुभव करता है। पर जैनशास्त्र में संक्षेप में
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. जैन धर्म और दर्शन .
२६४ वर्गीकरण करके उनके चौदह विभाग किये हैं, जो 'चौदह गुणस्थान' कहलाते हैं। ___सब आवरणों में मोह का आवरण प्रधान है। अर्थात् जब तक मोह बलवान् और तीन हो, तब तक अन्य सभी प्रावरण बलवान् और तीव्र बने रहते है। इसके विपरीत मोह के निर्बल होते ही अन्य आवरणों की वैसी ही दशा हो जाती है । इसलिए श्रात्मा के विकास करने में मुख्य बाधक मोह की प्रबलता
और मुख्य सहायक मोह की निर्बलता समझनी चाहिए । इसी कारण गुणस्थानों की-विकास-क्रम-गत अवस्थाओं की कल्पना मोह-शक्ति की उत्कटता, मन्दता तथा अभाव पर अवलम्बित है।
मोह की प्रधान शक्तियाँ दो हैं। इनमें से पहली शक्ति, आत्मा को दर्शन अर्थात् स्वरूप-पररूप का निर्णय किंवा जड़-चेतन का विभाग या विवेक करने नहीं देती; और दूसरी शक्ति प्रात्मा को विवेक प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति अर्थात् अथ्यास -- परपरिणति से छुटकर स्वरूप-लाभ नहीं करने देती । व्यवहार में पैर-पैर पर यह देखा जाता है कि किसी वस्तु का यथार्थ दर्शन-बोध कर लेने पर ही उस वस्तु को पाने या त्यागने की चेष्टा की जाती है और वह सफल भी होती है । श्राध्यात्मिक-विकास-गामी आत्मा के लिए भी मुख्य दो ही कार्य है। पहला स्वरूप तथा पररूप का यथार्थ दर्शन किंवा भेदज्ञान करना और दूसरा स्वरूप में स्थित होना। इनमें से पहले कार्य को रोकनेवाली मोह की शक्ति जैनशास्त्र में 'दर्शन-मोह' और दूसरे कार्य को रोकनेवाली मोह की शक्ति 'चारित्रमोह' कहलाती है। दूसरी शक्ति पहली शक्ति की अनुगामिनी है। अर्थात् पहली शक्ति प्रबल हो, तब तक दूसरी शक्ति कभी निर्बल नहीं होती; और पहली शक्ति के मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते ही दूसरी शक्ति भी क्रमशः वैसी ही होने लगती है । श्रथवा यों कहिये कि एक बार अात्मा स्वरूप-दर्शन कर पावे तो फिर उसे स्वरूप-लाभ करने का मार्ग प्राप्त हो ही जाता है।
अविकसित किंवा सर्वथा अध:पतित आत्मा की अवस्था प्रथम गुणस्थान है। इसमे मोह की उक्त दोनों शक्तियों के प्रबल होने के कारण आत्मा की प्राध्यात्मिक-स्थिति बिलकुल गिरी हुई होती है। इस भमिका के समय आत्मा चाहे नाधिभौतिक उत्कर्ष कितना ही क्यों न कर ले, पर उसकी प्रवृत्ति तात्त्विक लक्ष्य से सर्वथा शून्य होती है। जैसे दिग्भ्रम वाला मनुष्य पूर्व को पश्चिम मानकर गति करता है और अपने इष्ट स्थान को नहीं पाता; उसका श्रम एक तरह से वृथा ही जाता है, वैसे प्रथम भूमिकावाला श्रात्मा पर-रूप को स्वरूप समझ कर उसी को पाने के लिए प्रतिक्षण लालायित रहता है और विपरीत दर्शन या मिथ्यादृष्टि के कारण राग-द्वेष की प्रबल चोटों का शिकार बनकर तात्त्विक सुख
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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
२६५ से वञ्चित रहता है। इसी भूमिका को नैनशास्त्र में 'बहिरात्मभाव' किंवा 'मिथ्यादर्शन' कहा है। इस भूमिका में जितने आत्मा वर्तमान होते हैं, उन सभी की आध्यात्मिक स्थिति एक सी नहीं होती। अर्थात् सब के ऊपर मोह की सामान्यतः दोनों शक्तियों का आधिपत्य होने पर भी उसमें थोड़ा-बहुत तरतम भाव अवश्य होता है। किसी पर मोह का प्रभाव गाढतम, किसी पर गाढ़तर और किसी पर उससे भी कम होता है। विकास करना यह प्रायः आत्मा का स्वभाव है। इसलिए जानते या अनजानते, जब उस पर मोह का प्रभाव कम होने लगता है, तब वह कुछ विकास की ओर अग्रसर हो जाता है और तीव्रतम रागद्वेष को कुछ मन्द करता हुआ मोह की प्रथम शक्ति को छिन्न-भिन्न करने योग्य श्रात्मबल प्रकट कर लेता है । इसी स्थिति को जैनशास्त्र में 'ग्रन्थिभेद १ कहा है ।
ग्रंथिभेद का कार्य बड़ा ही विषम है। राग-द्वेष का तीव्रतम विष-ग्रंथि एक बार शिथिल व छिन्न-भिन्न हो जाए तो फिर बेड़ा पार ही समझिए क्योंकि इसके बाद मोह की प्रधान शक्ति दर्शन मोह को शिथिल होने में देरी नहीं लगती और दर्शनमोह शिथिल हुआ कि चारित्रमोह की शिथिलता का मार्ग श्राप ही आप खुल जाता है। एक तरफ राग-द्वेष अपने पूर्ण बल का प्रयोग करते हैं और दूसरी तरफ विकासोन्मुख श्रात्मा भी उनके प्रभाव को कम करने के लिए अपने वीर्य बल का प्रयोग करता है। इस आध्यात्मिक युद्ध मे यानी मानसिक विकार
और आत्मा की प्रतिद्वन्द्विता में कभी एक तो कभी दूसरा जयलाभ करता है । अनेक आत्मा ऐसे भी होते हैं जो करीब-करीब ग्रंथिभेद करने लायक बल प्रकट करके भी अन्त में राग-द्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर व उनसे हार खाकर अपनी मूल स्थिति में आ जाते हैं और अनेक बार प्रयत्न करने पर भी राग-द्वेष पर जयलाभ नहीं करते। अनेक प्रात्मा ऐसे भी होते हैं, जो न तो हार खाकर पीछे गिरते है और न जयलाभ कर पाते हैं, किन्तु वे चिरकाल तक उस आध्यात्मिक युद्ध के मैदान में ही पड़े रहते हैं। कोई-कोई श्रात्मा ऐसा भी होता
१ गंठित्ति सुदुब्भेश्रो कक्खडघणरूढगूढगंठि व्व ।
जीवस्स कम्मजणिश्रो घणरागदोसपरिणामो ॥ ११६५ ॥ भिन्नम्मि तम्मि लाभो सम्मत्ताईण मोक्खहेऊणं । सो य दुल्लभो परिस्समचित्तविघायाइविग्धेहिं ॥ ११६६ ॥ सो तत्थ परिस्सम्मई घोरमहासमरनिग्गयाह व्व । विज्जा य सिद्धिकाले जह बहुविग्घा तथा सोवि ॥ ११६७ ॥ .
... -विशेषावश्यक. भाष्य.।
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जैन धर्म और दर्शन
है जो अपनी शक्ति का यथोचित प्रयोग कर के उस आध्यात्मिक युद्ध में राग-द्वेष पर जयलाभ कर ही लेता है । किसी भी मानसिक विकार की प्रतिद्वन्द्विता में इन तीनों अवस्थाओं का अर्थात् कभी हार खाकर पीछे गिरने का, कभी प्रतिस्पर्धा में डटे रहने का और जयलाभ करने का अनुभव हमें अक्सर नित्य प्रति हुआ करता है । यही संघर्ष कहलाता है । संघर्ष विकास का कारण है। चाहे विद्या, चाहे धन, चाहे कीर्ति, कोई भी लौकिक वस्तु इष्ट हो, उसको प्राप्त करते समय भी अचानक अनेक विघ्न उपस्थित होते हैं और उनकी प्रतिद्वन्द्विता में उक्त प्रकार की तीनों अवस्थाओं का अनुभव प्रायः सबको होता रहता है । कोई विद्यार्थी, कोई धनार्थी या कोई कीर्तिकाङ्क्षी जब अपने इष्ट के लिए प्रयत्न करता है तब या तो वह बीच में अनेक कठिनाइयों को देखकर प्रयत्न को छोड़ ही देता है या कठिनाइयों को पारकर इष्ट-प्राप्ति के मार्ग की ओर अ सर होता है । जो अग्रसर होता है, वह बड़ा विद्वान्, बड़ा धनवान् या बड़ा कीर्तिशाली बन जाता है । जो कठिनाइयों से डरकर पीछे भागता है, वह पामर, अज्ञान, निर्धन या कीर्तिहीन बना रहता है । और जो न कठिनाइयों को जीत सकता है और न उनसे हार मानकर पीछे भागता है, वह साधारण स्थिति में ही पड़ा रहकर कोई ध्यान खींचने योग्य उत्कर्ष-लाभ नहीं करता ।
इस भाव को समझाने के लिए शास्त्र' में एक यह दृष्टान्त दिया गया है कि
१ जह वा तिनि मगुस्सा, जंतडविपहं सहावगमणें । missमभीया, तुरंत पत्ता य दो चोरा ।। १२११ ।। दहूं मग्गतडत्थे ते एगो मग्गश्रो पडिनियत्तो ।
बिति गहिो तो, समइक्कंतुं पुरं पत्तो ॥ १२१२ ॥ डवी भवो मणूसा जीवा कम्मट्टिई पहो दीहो । गठी य भयद्वाणं, रागद्दोसा य दो चोरा । १२१३ ॥ भग्गो ठिइपरिवुड्ढी, गहियो पुरा गठियो गो तइयो । सम्मत्तपुरं एवं जोएज्जा तिरिण करणाणि ।। १२१४ ॥
- विशेषावश्यक भाष्य ।
यथा जनास्त्रयः केऽपि, महापुरं यियासवः । प्राप्ताः क्वचन कान्तारे, स्थानं चौरैः भयंकरम् ।। ६१६ ।। तत्र द्रुतं द्रुतं यान्तो, ददृशुस्तकरद्वयम् ।
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तद्द्दृष्ट्वा त्वरितं पश्चादेको भीतः पलायितः || ६२० ॥ गृहीतश्चापरस्ताभ्यामन्यस्त्ववगणय्य तौ ।
भयस्थानमतिक्रम्य, पुरं प्राप पराक्रमी || ६२१ |
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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
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तीन प्रवासी कहीं जा रहे थे। बीच में भयानक चोरों को देखते ही तीम में से एक तो पीछे भाग गया। दूसरा उन चोरों से डर कर नहीं भागा, किन्तु उनके द्वारा पकड़ा गया। तीसरा तो असाधारण बल तथा कौशल से उन चोरों को इराकर आगे बढ़ ही गया। मानसिक विकारों के साथ श्राध्यात्मिक युद्ध करने में जो जय-पराजय होता है, उसका थोड़ा बहुत खयाल उक्त दृष्टान्त से श्र सकता है।
प्रथम गुणस्थान में रहने वाले विकासगामी ऐसे अनेक आत्मा होते हैं, जो राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा सा दबाये हुए होते हैं, पर मोह की प्रधान शक्ति को अर्थात् दर्शनमोह को शिथिल किये हुए नहीं होते। इसलिए वे यद्यपि श्रध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वथा अनुकूलगामी नहीं होते, तो भी उनका बोध व चरित्र अन्य विकसित श्रात्मानों की अपेक्षा अच्छा ही होता है । यद्यपि ऐसे आत्माओं की आध्यात्मिक दृष्टि सर्वथा श्रात्मोन्मुख न होने के कारण वस्तुतः मिथ्या दृष्टि, विपरीत दृष्टि या असत् दृष्टि ही कहलाती है तथापि वह सदूदृष्टि के समीप ले जानेवाली होने के कारण उपादेय मानी गई है " ।
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बोध, वीर्य व चारित्र के तर-तम भाव की अपेक्षा से उस सत् दृष्टि के चार भेद करके मिथ्या दृष्टि गुणस्थान को अन्तिम अवस्था का शास्त्र में अच्छा चित्र खींचा गया है। इन चार दृष्टियों में जो वर्तमान होते हैं, उनको सद्द्दष्टि लाभ करने में फिर देरी नहीं लगती ।
दृष्टान्तोपनयश्चात्र, जना जीवा भवोऽटवी ।
पन्थाः कर्मस्थितिर्ग्रन्थि देशस्तित्वह भयास्पदम् । ६२२ ।। रागद्वेषौ तस्करौ द्वौ तद्भीतो वलितस्तु सः । ग्रंथि प्राप्यापि दुर्भावाद्यो ज्येष्ठस्थितिबन्धकः || ६२३ ॥ चौररुद्धस्तु स ज्ञ ेयस्तादृग् रागादिबाधितः । ग्रंथि भिनन्ति यो नैव न चापि वलते ततः ॥ ६२४ ॥ सत्वभीष्टपुरं प्राप्तो योsपूर्वकरणाद् द्रुतम् । रागद्वेषावपाकृत्य सम्यग्दर्शनमातवान् ।। ६२५ ॥ - लोकप्रकाश सर्ग ३ |
१ 'मिथ्यात्वे मन्दतां प्राप्ते, मित्राद्या श्रपि दृष्टयः । मार्गाभिमुखभावेन, कुर्वते मोक्षयोजनम् ॥ ३१ ॥
- श्री यशोविजयजी - कृत योगावतारद्वात्रिंशिका
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: जैन धर्म और दर्शन - सद्बोध, सवीर्य व सच्चरित्र के तर-तम-भाव की अपेक्षा से सदृष्टि के ' भो, शास्त्र में चार विभाग किये हैं, जिनमें मिथ्यादृष्टि त्यागकर अथवा मोह की एक या दोनों शक्तियों को जीतकर आगे बढ़े हुए सभी विकसित आत्माओं का समावेश होजाता है । अथवा दूसरे प्रकार से यों समझाया जा सकता है कि जिसमें आत्मा का स्वरूप भासित हो और उसकी प्राप्ति के लिए मुख्य प्रवृत्ति हो, वह सदृष्टि । इसके विपरीत जिसमें आत्मा का स्वरूप न तो यथावत् भासित हो और न उसकी प्राप्ति के लिए ही प्रवृत्ति हो, वह असद्दृष्टि । बोध, वीर्य व चरित्र के तर-तममाव को लक्ष्य में रखकर शास्त्र में दोनों दृष्टि के चार-चार विभाग किये गएं है, जिनमें सब विकासगामी आत्माओं का समावेश हो जाता है और जिनका वर्णन पढ़ने से आध्यात्मिक विकास का चित्र आँखों के सामने नाचने लगता है।
शारीरिक और मानसिक दुःखों की संवेदना के कारण अज्ञातरूप में ही गिरीनदो-पाषण 3 न्याय से जब आत्मा का आवरण कुछ शिथिल होता है और इसके कारण उसके अनुभव तथा वीर्योल्लास की मात्रा कुछ बढ़ती है, तब उस विकासगामी आत्मा के परिणामों की शुद्धि व कोमलता कुछ बढ़ती है। जिसकी बदौलत
१-सच्छ्रद्धासंगतो बोधो दृष्टिः सा चाष्टधोदिता ।
मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, परा ॥२५॥ तृणगोमयकाष्ठाग्निकरणदीपप्रभोपमा । रत्नताराचंद्राभा क्रमेणेक्ष्वादिसन्निभा ॥२६॥ श्राद्याश्चतस्रः सापायपाता मिथ्यादृशामिह । तत्त्वतो निरपायाश्च भिन्नग्रंथेस्तथोत्तराः ॥२८॥
-योगावतारद्वात्रिंशिका | २ इसके लिए देखिए, श्रीहरिभद्रासूरि-कृत योगदृष्टिसमुच्चय तथा उपाध्याय यशोविजयजी-कृत २१ से २४ तक की चार द्वात्रिंशिकाएँ । ३ यथाप्रवृत्तकरणं नन्वनाभोगरूपकम् ।
भवत्यनाभोगतश्च कथं । कर्मक्षयोऽङ्गिनाम् ॥६७॥ यथा मिथो घर्षणेन ग्रावाणोऽद्रिनदीगताः । त्युश्चित्राकृतयो ज्ञानशून्या अपि स्वभावतः ॥६०८।। तथा यथाप्रवृत्तात्स्युरप्यनामोगलक्षणात् । लघुस्थितिककर्माणो . जन्तवोऽत्रान्तरेऽथ च ६०६।।
-लोकप्रकाश, सर्ग ३ ।
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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
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वह रागद्वेष की तीव्रतम -- दुर्भेद ग्रंथि को तोड़ने की योग्यता बहुत अंशों में प्राप्त कर लेता है । इस अज्ञानपूर्वक दुःखसंवेदना-जनित अति अल्प आत्म-शुद्धि को जैनशास्त्र में 'यथाप्रवृत्तिकरण, " कहा है। इसके बाद जब कुछ और भी अधिक श्रात्म-शुद्धि तथा वीर्योल्लास की मात्रा बढ़ती है तब रागद्वेष की उस दुर्भेद ग्रंथि का भेदन किया जाता है । इस ग्रंथिभेदकारक आत्म शुद्धि को 'अपूर्वकरण कहते हैं। क्योंकि ऐसा करण – परिणाम 3 विकासगामी आत्मा के लिए अपूर्वप्रथम ही प्राप्त है । इसके बाद श्रात्म शुद्धि व वीर्योल्लास की मात्रा कुछ अधिक बढ़ती है, तब आत्मा मोह की प्रधानभूत शक्ति --दर्शन मोह पर अवश्य विजयलाभ करता है । इस विजयकारक श्रात्म शुद्धि को जैनशास्त्र में 'अनिवृत्तिकरण' ४ कहा है, क्योंकि उस श्रात्म-शुद्धि के हो जाने पर श्रात्मा दर्शनमोह पर जयलाभ बिना किये नहीं रहता, अर्थात् वह पीछे नहीं हटता । उक्त तीन प्रकार की आत्म
१ इसको दिगम्बरसम्प्रदाय में 'अथाप्रवृत्तकरण कहते हैं। इसके लिए देखिए, तवार्थ राजवार्तिक ६.१.१३.
२ तीव्रधारपशुकल्पापूर्वी ख्यकरणेन हि ।
आविष्कृत्य परं वीर्यं ग्रन्थिं भिन्दन्ति केचन ॥६१८ ||
३ परिणामविशेषोऽत्र करणं प्राणिनां मतम् ॥५६६ ॥
- लोकप्रकाश, सर्ग ३ |
--लोकप्रकाश, सर्ग ३ |
४ "थानिवृत्तिकरणेनातिस्वच्छाशयात्मना । करोत्यन्तरकरणमन्तर्मुहूर्त्तसंमितम् ||६२७॥ कृते च तस्मिन्मिथ्यात्वमोह स्थितिर्द्विधा भवेत् । तत्राद्यान्तरकरणादधस्तन्यपरोर्ध्वमा ||६२८|| तत्राद्यायां स्थितौ मिथ्यादृक् स तद्द लवेदनात् । श्रतीतायामथैतस्यां स्थितावन्तर्मुहूर्त्ततः ॥६२६॥ प्राप्नोत्यन्तरकरणं तस्याग्रक्षण एव सः । सम्यक्त्वमौपशमिकमपौद्गलिक मान्नुयात् ॥६३०॥ यथा वदवो दग्धेन्धनः प्राप्यातृणं स्थलम् | स्वयं विध्यायति तथा, मिथ्यात्वोग्रदवानलः ||६३१|| अवाप्यान्तरकरणं क्षिप्रं विध्यायति स्वयम् । तदौपशमिकं नाम सम्यक्त्वं लभतेऽसुमान् ॥ ६३२||
---- लोकप्रकाश, सर्ग ३ |
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. जैन धर्म और दर्शन शुद्धियों में दूसरी अर्थात् अपूर्वकरण-नामक शुद्धि ही अत्यन्य दुर्लभ है । क्योंकि राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को रोकने का अत्यंत कठिन कार्य इसी के द्वारा किया जाता है, जो सहज नहीं है । एक बार इस कार्य में सफलता प्राप्त हो जाने पर फिर चाहे विकासगामी श्रात्मा ऊपर की किसी भमिका से गिर भी पड़े तथापि वह पुनः कभी-न-कभी अपने लक्ष्यको-आध्यात्मिक पूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । इस आध्यात्मिक परिस्थिति का कुछ स्पष्टीकरण अनुभवगत व्यावहारिक दृष्टांत के द्वारा किया जा सकता है।
जैसे; एक ऐसा वस्त्र हो, जिसमें मल के अतिरिक्त चिकनाहट भी लगी हो । उसका मल ऊपर-ऊपर से दूर करना उतना कठिन और श्रम-साध्य नहीं, जितना कि चिकनाहट का दूर करना। यदि चिकनाहट एक बार दूर हो जाए तो फिर बाकी का मल निकालने में किंवा किसी कारणवश फिर से लगे हुए गर्द को दूर करने में विशेष श्रम नहीं पड़ता और वस्त्रको उसके असली स्वरूप में सहज ही लाया जा सकता है। ऊपर-ऊपर का मल दूर करने में जो बल दरकार है, उसके सदृश 'यथाप्रवृत्तिकरण' है। चिकनाहट दूर करनेवाले विशेष बल व श्रम-के समान 'अपूर्वकरण' है, जो चिकनाहट के समान राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रंथि को शिथिल करता है। बाकी बचे हुए मल को किंवा चिकनाहट दूर होने के बाद फिर से लगे हुए मल को कम करनेवाले बल-प्रयोग के समान 'अनिवृत्तिकरण' है। उक्त तीनों प्रकार के बल प्रयोगों में चिकनाहट दूर करनेवाला बल प्रयोग ही विशिष्ट है।
अथवा जैसे; किसी राजा ने आत्मरक्षा के लिए अपने अङ्गरक्षकों को तीन विभागों में विभाजित कर रखा हो, जिनमें दूसरा विभाग शेष दो विभागों से अधिक बलवान् हो, तब उसी को जीतने में विशेष बल लगाना पड़ता है। वैसे हो दर्शनमोह को जीतने के पहले उसके रक्षक राग-द्वेष के तीव्र संस्कारोंको शिथिल करने के लिए विकासगामी आत्मा को तीन बार बल-प्रयोग करना पड़ता है। जिनमें दूसरी बार किया जानेवाला बल-प्रयोग ही, जिसके द्वारा राग-द्वेष की अत्यंत तीव्रतारूप ग्रंथि भेदी जाती है, प्रधान होता है। जिस प्रकार उक्त तीनों दलों में से बलवान् दूसरे अङ्गरक्षक दल के जीत लिए जाने पर फिर उस राजा का पराजय सहज होता है, इसी प्रकार राग-द्वेष की अतितीव्रता को मिटा देने पर दर्शन-मोह पर जयलाभ करना सहज है। दर्शनमोह को जीता और पहले गुणस्थान की समाप्ति हुई।
ऐसा होते ही विकासगामी अात्मा स्वरूप का दर्शन कर लेता है अर्थात् उसकी अब तक जो पररूप में स्वरूप की भ्रान्ति थी, वह दूर हो जाती है।
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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
२७१ अतएव उसके प्रयत्न की गति उलटी न होकर सीधी हो जाती है। अर्थात् वह विवेकी बनकर कर्तव्य-अकर्तव्य का वास्तविक विभाग कर लेता है । इस दशा को जैन-शास्त्र में 'अन्तरात्म भाव' कहते हैं, क्योंकि इस स्थिति को प्राप्त करके विकासगामी आत्मा अपने अन्दर वर्तमान सूक्ष्म और सहज शुद्ध परमात्म-भाव को देखने लगता है, अर्थात् अन्तरात्मभाव, यह आत्म-मन्दिर का गर्भद्वार है, जिसमें प्रविष्ट होकर उस मन्दिर में वर्तमान परमात्मा-भावरूप निश्चय देव का दर्शन किया जाता है ।
यह दशा विकासक्रम की चतुर्थी भूमिका किंवा चतुर्थ गुणस्थान है, जिसे पाकर अात्मा पहले पहल आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करता है । इस भूमिका में आध्यात्मिक दृष्टि यथार्थ ( आत्मस्वरूपोन्मुख , होने के कारण विपसि-रहित होती है । जिसको जैनशास्त्र में सम्यक्त्व कहा है ।
चतुर्थी से आगे की अर्थात् पञ्चमी आदि सब भूमिकाएँ सम्यग्दृष्टिवाली ही समझनी चाहिए, क्योंकि उनमें उत्तरोत्तर विकास तथा दृष्टि की शुद्धि अधिकाधिक होती जाती है । वतुर्थ गुणस्थान में स्वरूप-दर्शन करने से आत्मा को अपूर्व शान्ति मिलती है और उसको विश्वास होता है कि अब मेरा साध्य-विषयक भ्रम दूर हुश्रा, अर्थात् अब तक जिस पौद्गलिक व बाह्य सुख को मैं तरस रहा था, वह परिणाम-विरस, अस्थिर एवं परिमित है; परिणाम-सुन्दर, स्थिर व अपरिमित सुख स्वरूप-प्राप्ति में ही है ! तब वह विकासगामी अात्मा स्वरूप-स्थिति के लिए प्रयत्न करने लगता है। ____ मोह की प्रधान शक्ति-दर्शन मोह को शिथिल करके स्वरूप-दर्शन कर
लेने के बाद भी, जब तक उसकी दूसरी शक्ति-चारित्र मोह को शिथिल न किया जाए, तब तक स्वरूप-लाभ किंवा स्वरूप स्थिति नहीं हो सकती । इसलिए वह मोह की दूसरी शक्ति को मन्द करने के लिए प्रयास करता है । जब वह उस शक्ति को अंशतः शिथिल कर पाता है; तब उसकी और भी उत्क्रान्ति हो जाती है । जिसमें अंशतः स्वरूप-स्थिरता या परपरिणति-त्याग होने से चतुर्थ भूमिका की अपेक्षा अधिक शान्ति-लाभ होता है । यह देशविरति-नामक पाँचवाँ गुणस्थान है। ____ इस गुणस्थान में विकासगामी आत्मा को यह विचार होने लगता है कि यदि अल्प-विरति से ही इतना अधिक शान्ति-लाभ हुआ तो फिर सर्व-विरति• १ 'जिनोक्तादविपर्यस्ता सम्यग्दृष्टिनिंगद्यते । सम्यक्त्वशालिनां सा स्यात्तच्चैवं जायतेऽङ्गिनाम् ॥५६६॥'
-लोकप्रकाश, सर्ग ३।
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जैन धर्म और दर्शन
जड़ भावों के सर्वथा परिहार से कितना शान्ति-लाभ होगा ? इस विचार से प्रेरित होकर व प्राप्त श्राध्यात्मिक शान्ति के अनुभव से बलवान् होकर वह . विकासगामी आत्मा चारित्रमोह को अधिकांश में शिथिल करके पहले की अपेक्षा भी अधिक स्वरूप - स्थिरता व स्वरूप- लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करता है । इस चेष्टा में कृतकृत्य होते ही उसे सर्व विरति संयम प्राप्त होता है । जिसमें पौद्गलिक भावों पर मूर्च्छा बिलकुल नहीं रहती, और उसका सारा समय स्वरूप की अभिव्यक्ति करने के काम में ही खर्च होता है । यह 'सर्वविरति' नामक षष्ठ गुणस्थान है । इसमें श्रात्म-कल्याण के अतिरिक्त लोक कल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है । जिससे कभी-कभी थोड़ी बहुत मात्रा में प्रमाद जाता है ।
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पाँच गुणस्थान की अपेक्षा, इस छठे गुणस्थान में स्वरूप अभिव्यक्ति . अधिक होने के कारण यद्यपि विकासगामी आत्मा को आध्यात्मिक शान्ति पहले से अधिक ही मिलती है तथापि बीच-बीच में अनेक प्रमाद उसे शान्ति के अनुभव में जो बाधा पहुँचाते हैं, उसको वह सहन नहीं कर सकता । अतएव सर्व-विरति - जनित शान्ति के साथ श्रप्रमाद-जनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल लालसा से प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमाद का त्याग करता है और स्वरूप की अभिव्यक्ति के अनुकूल मनन-चिन्तन के सिवाय अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देता है । यही 'अप्रमत्त संयत' नामक सातवाँ गुणस्थान है । इसमें एक ओर अप्रमाद-जन्य उत्कट सुख का अनुभव श्रात्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिए उत्तेजित करता है और दूसरी ओर प्रमाद जन्य पूर्व वासनाएँ उसे अपनी ओर खींचती हैं। इस खींचातानी में विकासगामी श्रात्मा कमी प्रमाद की तन्द्रा और कभी अप्रमाद की जागृति अर्थात् छठे और सातवें गुणस्थान में अनेक बार जाता श्राता रहता है । भँवर या वातभ्रमी में पड़ा हुआ तिनका इधर से उधर और उधर से इधर जिस प्रकार चलायमान होता रहता है, उसी प्रकार छठें और सातवें गुणस्थान के समय विकासगामी आत्मा अनवस्थित बन जाता है ।
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प्रमाद के साथ होने वाले इस श्रान्तरिक्त युद्ध के समय विकासगामी आत्मा यदि पना चारित्र बल विशेष प्रकाशित करता है तो फिर वह प्रमाद - प्रलोभनों को पार कर विशेष प्रमन्त अवस्था प्राप्त कर लेता है । इस अवस्था को पाकर वह ऐसी शक्ति वृद्धि की तैयारी करता है कि जिससे शेष रहे-सहे मोह-बल को नष्ट किया जा सके | मोह के साथ होने वाले भावी युद्ध के लिए की जाने वाली तैयारी की इस भूमिका को आठवाँ गुणस्थान कहते हैं ।
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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
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पहले कभी न हुई ऐसी श्रात्म शुद्धि इस गुणस्थान में हो जाती है । जिस से कोई विकासगामी श्रात्मा तो मोह के संस्कारों के प्रभाव को क्रमश: दबाता हुआ आगे बढ़ता है तथा अन्त में उसे बिलकुल ही उपशान्त कर देता है । और विशिष्ट आत्म-शुद्धि वाला कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा भी होता है, जो मोह के संस्कारों को क्रमशः जड़ मूल से उखाड़ता हुआ आगे बढ़ता है तथा अन्त में उन सब संस्कारों को सर्वथा निर्मूल ही कर डालता है । इस प्रकार आठवें गुणस्थान से आगे बढ़ने वाले अर्थात् अन्तरात्म-भाव के विकास द्वारा परमात्मभाव रूप सर्वोपरि भूमिका के निकट पहुँचने वाले श्रात्मा दो श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं ।
एक श्रेणिवाले तो ऐसे होते हैं, जो मोह को एक बार सर्वथा दबा तो लेते हैं, उसे निर्मूल नहीं कर पाते । अतएव जिस प्रकार किसी बर्तन में भरी हुई भाप कभी-कभी अपने वेग से उस बर्तन को उड़ा ले भागती है या नीचे गिरा देती है अथवा जिस प्रकार राख के नीचे दबी हुई अग्नि हवा का झकोरा लगते ही अपना कार्य करने लगती है, किंवा जिस प्रकार जल के तल में बैठा हुआ मल थोड़ा सा क्षोभ पाते ही ऊपर उठकर जल को गेंदला कर देता है, उसी प्रकार पहले दबाया हुआ भी मोह श्रान्तरिक युद्ध में थके हुए उन प्रथम श्रेणी वाले आत्माओं को अपने वेग के द्वारा नीचे पटक देता है । एक बार सर्वथा दबाये जाने पर भी मोह, जिस भूमिका से श्रात्मा को हार दिलाकर नीचे की ओर पटक देता है, वही ग्यारहवाँ गुणस्थान है । मोह को क्रमशः दबाते-दबाते सर्वथा दबाने तक में उत्तरोत्तर अधिक अधिक विशुद्धिवाली दो भूमिकाएँ श्रवश्य प्राप्त करनी पड़ती हैं। जो नौवाँ तथा दसवाँ गुणस्थान कहलाता है । ग्यारहवाँ गुणस्थान अधःपतन का स्थान है; क्योंकि उसे पानेवाला आत्मा आगे न बढ़कर एक बार तो अवश्य नीचे गिरता है ।
दूसरी श्रेणवाले श्रात्मा मोह को क्रमशः निर्मूल करते-करते अन्त में उसे सर्वथा निर्मूल कर ही डालते हैं । सर्वथा निर्मूल करने की जो उच्च भूमिका है, वहीं बारहवाँ गुणस्थान है । इस गुणस्थान को पाने तक में अर्थात् मोह को सर्वथा निर्मूल करने से पहले बीच में नौवाँ और दवस गुणस्थान प्राप्त करना पड़ता है। इसी प्रकार देखा जाए तो चाहे पहली श्रेणिवाले हों, चाहे दूसरी श्रेणिवाले, पर वे सब नौवाँ दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करते हो हैं । दोनों श्रेणि कुलों में अन्तर इतना ही होता है कि प्रथम श्रेणिवालों की अपेक्षा दूसरी श्रणिवालों में आत्म-शुद्धि व श्रात्म बल विशिष्ट प्रकार का जैसे - किसी एक दर्जे के विद्यार्थी भी दो प्रकार के होते हैं ।
पाया जाता है । एक प्रकार के सो
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जैन धर्म और दर्शन ऐसे होते हैं, जो सौ कोशिश करने पर भी एक बारगी अपनी परीक्षा में पास होकर आगे नहीं बढ़ सकते। पर दूसरे प्रकार के विद्यार्थी अपनी योग्यता के बल से सब कठिनाईयों को पारकर उस कठिनतम परीक्षा को बेधड़क पास कर ही लेते हैं। उन दोनों दल के इस अन्तर का कारण उनकी आन्तरिक योग्यता की न्यूनाधिकता है। वैसे ही नौवें तथा दसवें गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले उक्त दोनों श्रेणिगामी श्रात्माओं की आध्यात्मिक विशुद्धि न्यूनाधिक होती है | जिसके कारण एक श्रेणिवाले तो दसवें गुणस्थान को पाकर अंत में ग्यारहवे गुणस्थान में मोह से हार खाकर नीचे गिरते हैं और अन्य श्रेणिवाले दसवें गुणस्थान को पाकर इतना अधिक आत्मबल प्रकट करते है कि अन्त में वे मोह को सर्वथा क्षीण कर बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर ही लेते हैं।
जैसे ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्य पुनरावृत्तिका है, वैसे ही बारहवाँ गुणस्थान अपुनरावृत्ति का है। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान को पानेवाला अात्मा एक बार उससे अवश्य गिरता है और बारहवें गुणस्थान को पानेवाला उससे कदापि नहीं गिरता; बल्कि ऊपर को ही चढ़ता है। किसी एक परीक्षा में नहीं पास होनेवाले विद्यार्थी जिस प्रकार परिश्रम व एकाग्रता से योग्यता बढ़ाकर फिर उस परीक्षाको पास कर लेते हैं; उसी प्रकार एक बार मोह से हार खानेवाले आत्मा भी अप्रमत्त-भाव व आत्म-बल की अधिकता से फिर मोह को अवश्य क्षीण कर देते हैं । उक्त दोनों श्रेणिवाले आत्माओं की तर-तमभावापन्न आध्यात्मिक विशुद्धि मानों परमात्म-भाव-रूप सर्वोच्च भूमिकापर चढ़ने की दो सीढियाँ हैं। जिनमें से एक को जैनशास्त्र में 'उपशमश्रेणि' और दूसरी को 'क्षपकश्रेणि' कहा है । पहली कुछ दूर चढ़ाकर गिरानेवाली और दूसरी चढ़ानेवाली ही है। पहली श्रेणि से गिरनेवाला आध्यात्मिक अधःपतन के द्वारा चाहे प्रथम गुणस्थान तक क्यों न चला जाए, पर उसकी वह अधःपतित स्थिति कायम नहीं रहती। कभी-न-कभी फिर वह दूने बल से और दूनी सावधानी से तैयार होकर मोह-शत्रु का सामना करता है और अन्त में दूसरी श्रेणि की योग्यता प्राप्त कर मोह का सर्वथा क्षय कर डालता है ! व्यवहार में अर्थात् आधिभौतिक क्षेत्र में भी यह देखा जाता है कि जो एक बार हार खाता है, वह पूरी तैयारी करके हरानेवाले शत्रु को फिर से हरा सकता है। __परमात्म-भाव का स्वराज्य प्रास करने में मुख्य बाधक मोह ही है। जिसको नष्ट करना अन्तरात्म-भाव के विशिष्ट विकास पर निर्भर है। मोह का सर्वथा नाश हुआ कि अन्य आवरण जो जैनशास्त्र में 'घातिकर्म' कहलाते हैं, वे प्रधान सेनापति के मारे जाने के बाद अनुगामी सैनिकों की तरह एक साथ तितर-बितर
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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
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हो जाते हैं । फिर क्या देरी, विकासगामी आत्मा तुरन्त ही परमात्म भाव का पूर्ण श्राध्यात्मिक स्वराज्य पाकर अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप को पूर्णतया व्यक्त करके निरतिशय ज्ञान, चारित्र आदि का लाभ करता है तथा अनिर्वचनीय स्वाभाविक सुख का अनुभव करता है जैसे, पूर्णिमा की रात में निरभ्र चन्द्र की सम्पूर्ण कला प्रकाशमान होती हैं, वैसे ही उस समय आत्मा की चेतना श्रादिस भी मुख्य शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। इस भूमिका को जैनशास्त्र में तेरहवाँ गुणस्थान कहते हैं ।
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इस गुणस्थान में चिरकाल तक रहने के बाद आत्मा दग्ध रज्जु के समान शेष आवरणों को अर्थात् अप्रधानभूत श्रघातिकर्मों को उड़ाकर फेंक देने के लिए सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यानरूप पवन का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देता है । यही आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा किंवा चौदहवाँ गुणस्थान है । इसमें आत्मा समुच्छिन्नक्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यानद्वारा सुमेरु की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके अन्त में शरीरत्यागपूर्वक व्यवहार और परमार्थ दृष्टि से लोकोत्तर स्थान को प्राप्त करता है । यही निर्गुण ब्रह्मस्थिति है, यही सर्वाङ्गीण पूर्णता है, यही पूर्ण कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थ की अन्तिम सिद्धि है और यही पुनरावृत्ति स्थान है । क्योंकि संसार का एक मात्र कारण मोह है, जिसके सब संस्कारों का निश्शेष नाश हो जाने के कारण उपाधिका संभव नहीं है ।
"
यह कथा हुई पहले से चौदहवें गुणस्थान तक के बारह गुणस्थानों की; इसमें दूसरे और तीसरे गुणस्थान की कथा, जो छूट गई है, वह यों है - सम्यक्त्व किंवा तत्वज्ञानवाली ऊपर की चतुर्थी आदि भूमिकाओं के राजमार्ग से च्युत होकर जब कोई आत्मा तत्त्वज्ञान- शून्य किंवा मिथ्यादृष्टिवाली प्रथम भूमिका के उन्मार्ग की ओर झुकता है, तब बीच में उस अधःपतनोन्मुख श्रात्मा की जो कुछ अवस्था होती है वही दूसरा गुणस्थान है । यद्यपि इस गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा श्रात्म शुद्धि अवश्य कुछ अधिक होती है, इसलिए इसका नम्बर पहले के बाद रखा गया है, फिर भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि
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१ 'योगसंन्यासतस्त्यागी, योगानप्यखिलस्त्यजेत् । इत्येयं निर्ग ुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ||७|| वस्तुतस्तु गुणैः पूर्णमनन्तैर्भासते स्वतः । रूपं व्यक्तात्मनः साधोर्निरभ्रस्य विधोरिव ||८|| '
-ज्ञानसार, त्यागाष्टक |
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जैन धर्म और दर्शन
इस गुणस्थान को उत्क्रान्ति स्थान नहीं कह सकते। क्योंकि प्रथम गुणस्थान को छोड़कर उत्क्रान्ति करनेवाला आत्मा इस दूसरे स्थान को सीधे तौर से प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु ऊपर के गुणस्थान से गिरनेवाला ही आत्मा इसका अधिकारी बनता है । अध: पतन मोह के उद्रेक से होता है । श्रतएव इस गुणस्थान के समय मोह की तीव्र काषायिक शक्ति का अविर्भाव पाया जाता है। खीर आदि मिष्ट भोजन करने के बाद जब वमन हो जाता है, तब मुख में एक प्रकार का विलक्षण स्वाद अर्थात् न अतिमधुर न अति अम्ल जैसा प्रतीत होता है। इसी प्रकार दूसरे गुणस्थान के समय आध्यात्मिक स्थिति विलक्षण पाई जाती है। क्योंकि उस समय आत्मा न तो तत्त्वज्ञान की निश्चित भूमिका पर है और न तत्त्व-ज्ञानशून्य की निश्चित भूमिका पर । अथवा जैसे कोई व्यक्ति चढ़ने की सीढ़ियों से खिसक कर जब तक जमीनपर आकर नहीं ठहर जाता, तब तक बीच में एक विलक्षण अवस्था का अनुभव करता है, वैसे हो सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व को पाने तक में अर्थात् बीच में आत्मा एक विलक्षण आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करता है । यह बात हमारे इस व्यावहारिक अनुभव से भी प्रसिद्ध है कि जब किसी निश्चित उन्नत अवस्था से गिरकर कोई निश्चित श्रवनत अवस्था प्राप्त की जाती है, तब बीच में एक विलक्षण परिस्थिति खड़ी होती है ।
तीसरा गुणस्थान श्रात्मा की उस मिश्रित अवस्था का नाम है, जिसमें न तो केवल सम्यक् दृष्टि होती है और न केवल मिथ्या दृष्टि, किन्तु श्रात्मा उसमें दोलायमान प्राध्यात्मिक स्थितिवाला बन जाता है । अतएव उसकी बुद्धि स्वाधीन न होने के कारण सन्देहशील होती है अर्थात् उसके सामने जो कुछ आया, वह सब सच । न तो वह तत्त्व को एकान्त तस्वरूप से ही जानती है और न तत्त्वतत्त्व का वास्तविक पूर्ण विवेक ही कर सकती है ।
कोई उत्क्रान्ति करनेवाला आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकलकर सीधे ही तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है और कोई श्रवक्रान्ति करनेवाला श्रात्मा भी चतुर्थ आदि गुणस्थान से गिरकर तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार उत्क्रान्ति करनेवाले और श्रवक्रान्ति करनेवाले --- दोनों प्रकार के आत्माओं का आश्रय स्थान तीसरा गुणस्थान है । यही तीसरे गुणस्थान की दूसरे गुणस्थान से विशेषता है |
ऊपर आत्मा की जिन चौदह अवस्थाओं का विचार किया है, उनका तथा उनके अन्तर्गत अवान्तर संख्यातीत अवस्थाओं का बहुत संक्षेप में वर्गीकरण करके शास्त्र में शरीरधारी आत्मा की सिर्फ तीन अवस्थाएँ बतलाई हैं - बहिरात्मअवस्था, (२) अन्तरात्म-वस्था और (३) परमात्म-अवस्था ।
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गुणस्थान का विशेष स्वरूप
२७७ पहली अवस्था में आत्मा का वास्तविक विशुद्ध रूप अत्यन्त आच्छन्न रहता है, जिसके कारण आत्मा मिथ्याध्यासवाला होकर पौद्गलिक विलासों को ही सर्वस्व मान लेता है और उन्हीं की प्रासि के लिए सम्पूर्ण शक्ति का व्यय करता है ।
दूसरो अवस्था में आत्मा का वास्तविक स्वरूप पूर्णतया तो प्रकट नहीं होता, पर उसके ऊपर का आवरण गाढ़ न होकर शिथिल, शिथिलतर, शिथिलतम बन जाता है, जिसके कारण उसकी दृष्टि पौद्गलिक विलासों की ओर से हटकर शुद्ध स्वरूप की ओर लग जाती है। इसी से उसकी दृष्टि में शरीर आदि की जीर्णता व नवीनता अपनी जीर्णता व नवीनता नहीं है। यह दूसरी अवस्था ही तीसरी अवस्था का दृढ़ सोपान है ।
तीसरी अवस्था में आत्मा का वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाता है अर्थात् उसके ऊपर के घने आवरण बिलकुल विलीन हो जाते हैं |
पहला, दूसरा और तीसरा गणस्थान बहिरात्म-अवस्था का चित्रण है। चौथे से बारहवें तक के गुणस्थान अन्तरात्म-अवस्था का दिग्दर्शन है और तेरहवा, चौदहवाँ गुणस्थान परमात्म-अवस्था का वर्णन ' है।
__ आत्मा का स्वभाव ज्ञानमय है, इसलिए वह चाहे किसी गुणस्थान में क्यों न हो, पर ध्यान से कदापि मुक्त नहीं रहता। ध्यान के सामान्य रीति से (१) शुभ और (२) अशुभ, ऐसे दो विभाग और विशेष रीति से (१)आत, . (२) रौद्र, ( ३ ) धर्म और (४) शुक्ल, ऐसे चार विभाग शास्त्र में किये
१ 'अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिभावपरिणतो बाह्यात्मा, सम्यग्दर्शनादिपरिणतस्त्वन्तरात्मा, केवलज्ञानादिपरिणतस्तु परमात्मा । तत्राद्यगुणस्थानत्रये बाह्यात्मा, ततः । परं क्षीणमोहगुणस्थानं यावदन्तरात्मा, ततः परन्तु परमात्मेति । तथा व्यक्त्या बाह्यात्मा, शक्त्या परमात्मान्तरात्मा च । व्यक्त्यान्तरात्मा तु शक्त्या परमात्मा अनुभूतपूर्वनयेन च बाह्यात्मा; व्यक्त्या परमात्मा अनुभूतपूर्वनयेनैव बाह्यात्मान्तरात्मा च ।' -अध्यात्ममतपरीक्षा, गाथा १२५ ।
'बाह्यात्मा चान्तरात्मा च, परमात्मेति च त्रयः । कायाधिष्ठायकध्येयाः, प्रसिद्धा योगवाङ्मये ॥ १७ ।। अन्ये भिथ्यात्वसम्यक्त्वकेवलज्ञानभागिनः । । मिश्रे च क्षीणमोहे च, विश्रान्तास्ते त्वयोगिनि ॥ १८ ।।'
-योगावतारद्वात्रिंशिका । २ 'प्रातरौद्रधर्मशुक्लानि ।' तत्त्वार्थ अध्याय ६, सूत्र २६ ।
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२७८
जैन धर्म और दर्शन गए हैं। चार में से पहले दो अशुभ और पिछले दो शुभ हैं । पौद्गलिक दृष्टि की मुख्यता के किंवा आत्म-विस्मृति के समय जो ध्यान होता है, वह अशुभ और पौद्गलिक दृष्टि की गौणता व आत्मानुसन्धान-दशा में जो ध्यान होता है, वह शुभ है। अशुभ ध्यान संसार का कारण और शुभ ध्यान मोक्ष का कारण है। पहले तीन गुणस्थानों में आर्त और रौद्र, ये दो ध्यान ही तर-तम-भाव से पाए जाते हैं। चौथे और पाँचवें गुणस्थान में ऊक्त दो ध्यानों के अतिरिक्त सम्यक्त्व के प्रभाव से धर्मध्यान भी होता है। छठे गणस्थान में आर्त और धर्म, ये दो ध्यान होते हैं। सातवें गुणस्थान में सिर्फ धर्मध्यान होता है । आठवें से बारहवें तक पाँच गुणस्थानों में धर्म और शुक्ल, ये दो ध्यान होते हैं । .. तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में सिर्फ शुक्लध्यान होता है ।
गुणस्थानों में पाए जानेवाले ध्यानों के उक्त वर्णन से तथा गुणस्थानों में किये हुए बहिरात्म-भाव आदि पूर्वोक्त विभाग से प्रत्येक मनुष्य यह सामान्यतया जान सकता है कि मैं किस गुणस्थान का अधिकारी हूँ। ऐसा ज्ञान, योग्य अधिकारी की नैसर्गिक महत्त्वाकाक्षा को ऊपर के गुणस्थानों के लिए उत्तेजित करता है। दर्शनान्तर के साथ जैनदर्शन का साम्य ___ जो दर्शन, आस्तिक अर्थात् आत्मा, उसका पुनर्जन्म, उसकी विकासशीलता तथा मोक्ष-योग्यता माननेवाले हैं, उन सभी में किसी-न-किसी रूप में आत्मा के ऋमिक विकास का विचार पाया जाना स्वाभाविक है। अतएव आर्यावर्त के बैन, वैदिक और बौद्ध, इन तीनों प्राचीन दर्शनों में उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है। यह विचार जैनदर्शन में गणस्थान के नाम से, वैदिक दर्शन में भूमिकाओं के नाम से और बौद्धदर्शन में अवस्थाओं के नाम से प्रसिद्ध है । गुणस्थान का विचार, जैसा जैनदर्शन में सूक्ष्म तथा विस्तृत है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं है, तो भी उक्त तीनों दर्शनों की उस विचार के संबन्ध में बहुत कुछ समता है । अर्थात् संकेत, वर्णनशैली आदि की भिन्नता होने पर भी वस्तुतत्त्व के विषय में तीनों दर्शनों का भेद नहीं के बराबर ही है। वैदिकदर्शन के योगवासिष्ट, पातञ्जल योग आदि ग्रन्थों में आत्मा की भमिकाओं का अच्छा विचार है ।
१ इसके लिए देखिये, तत्त्वार्थ अ० ६, सूत्र ३५ से ४० । ध्यानशतक, गा०, ६३ और ६४ तथा आवश्यक-हारिभद्री टीका पृ०६०२। इस विषय में तत्त्वार्थ के उक्त सूत्रों का राजवार्तिक विशेष देखने योग्य है, क्योंकि उसमें श्वेताम्बरग्रंथों से थोड़ा सा मतभेद है।
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२७६
आध्यात्मिक विकास की तुलना जैनशास्त्र में मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा के नाम से अज्ञानी जीव का लक्षण बतलाया है कि जो अनात्मा में अर्थात् आत्म-भिन्न जड़तत्त्व में आत्म-बुद्धि करता है, वह मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा ' है । योग-वासिष्ठ में २ तथा पातञ्जलयोग सूत्र 3 में अज्ञानी जीव का वही लक्षण है। जैनशास्त्र में मिथ्यात्वमोह का संसार-बुद्धि और दुःखरूप फल वर्णित है ४ । वही बात योगवासिष्ठ के
१ 'तत्र मिथ्यादर्शनोदयवशीकृतो मिथ्यादृष्टिः ।'
-तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६, १, १२ 'श्रात्मधिया समुपातकायादिः कीत्यतेऽत्र बहिरात्मा । कायादेः समधिष्ठायको भवत्यन्तरात्मा तु ॥७॥
-योगशास्त्र, प्रकाश १२ । 'निर्मलस्फटिकस्येव सहज रूपमात्मनः । अध्यस्तोपाधिसंबद्धो जडस्तत्र विमुह्यति ॥६॥
-ज्ञानसार, मोहाष्टक । 'नित्यशुच्यात्मताख्या तिरनित्याशुच्यनात्मसु । अविद्या तत्त्वधीविद्या योगाचार्यः प्रकीर्तिता ॥१॥'
-ज्ञानसार विद्याष्टक । 'भ्रमवाटी बहिह ष्टिभ्रंमच्छाया तदीक्षणम् । अभ्रान्तस्तत्त्वदृष्टिस्तु, नास्यां शेते सुखाऽऽशया ॥२॥
- ज्ञानसार, तत्त्वदृष्टि-अष्टक। २ 'यस्याऽज्ञानात्मनो ज्ञस्य, देह एवात्मभावना । उदितेति रुषैवाक्षरिपवोऽभिभवन्ति तम् ॥३॥'
- निर्वाण प्रकरण; पूर्वार्ध सर्ग ६ । ३ 'अनित्याऽशुचिदुःखाऽनात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ।'
-पातञ्जलयोगसूत्र, साधन-पाद, सूत्र ५ । ४ 'समुदायावयवयोर्बन्धहेतुत्वं वाक्यपरिसमाप्तेर्वैचित्र्यात् ।'
- तत्त्वार्थ-राजवार्तिक ६, १, ३१ । 'विकल्पचपकैरात्मा, पीतमोहासवो ह्ययम् । भवोच्चतालमुत्तालप्रपञ्चमधितिष्ठति ॥५॥
- ज्ञानसार, मोहाष्टक ।
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२८०
_ जैन धर्म और दर्शन निर्वाण' प्रकरण में अज्ञान के फलरूप से कही गई है। (२) योग-वासिष्ठ निर्वाण प्रकरण पूर्वार्धमें अविद्या से तृष्णा और तृष्णा से दुःख का अनुभव तथा विद्या से अविद्या का २ नाश, यह क्रम जैसा वर्णित है, वही क्रम जैनशास्त्र में मिथ्याज्ञान और सम्यक् शान के निरूपणद्वारा जगह-जगह वर्णित है। (३) योगवासिष्ठ के उक्त प्रकरण में 3 ही जो अविद्या का विद्या से और विद्या का विचार से नाश बतलाया है, वह जैनशास्त्र में माने हुए मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिकज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिकज्ञान से क्षायोपशमिक ज्ञान के नाश के समान है। (४) जैनशास्त्र में मुख्यतया मोह को ही बन्ध का-संसार का हेतु माना है। योगवासिष्ठ ४ में वही बात रूपान्तर से कही गई है। उसमें जो दृश्य के अस्तित्व को बन्ध का कारण कहा है; उसका
१. 'अज्ञानात्प्रसता यस्माज्जगत्पर्णपरम्पराः । यस्मिंस्तिष्ठन्ति राजन्ते, विशन्ति विलसन्ति च ॥५३॥' 'श्रापातमात्रमधुरत्वमनर्थसत्वमाद्यन्तवत्त्वमखिलस्थितिभङ्गरत्वम् । अशानशाखिन इति प्रसृतानि राम नानाकृतीनि विपुलानि फलानि तानि'
॥६१॥ पूर्वार्द्ध, सर्ग ६, २. 'जन्मपर्वाहिना रन्ध्रा विनाशच्छिद्रचञ्चुरा । भोगाभोगरसापूर्णा, विचारैकघुणक्षता ॥११॥'
सर्ग ८। ३. 'मिथःस्वान्ते तयोरन्तश्छायातपनयोरिव । अविद्यायां विलीनायां दीणे द्वे एव कल्पने ॥२३॥ एते राघव लीयेते, अवाप्यं परिशिष्यते । अविद्यासंक्षयात्.क्षीणो विद्यापक्षोऽपि राघव ॥२४॥
सर्ग है। ४. 'अविद्या संसतिबन्धो, माया मोहो महत्तमः । कल्पितानीति नामानि, यस्याः सकलवेदिभिः ॥२०॥' 'दृष्टुद्रश्यस्य सत्ताऽङ्गबन्ध इत्यभिधीयते । द्रष्टा दृश्यबलाबद्धो, दृश्याऽभावे विमुच्यते ॥२२॥'
-उत्पत्ति-प्रकरण, सर्ग १ । 'तस्माचितविकल्पस्थ पिशाचो बालकं यथा । विनिहन्त्येवमेषान्तर्दृष्टारं दृश्यरूपिका ॥३८॥'
-उत्पत्ति प्र० सर्ग।
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श्रध्यात्मिक विकास की तुलना
२८१
तात्पर्य दृश्यके श्रभिमान या अभ्यास से है । (५) जैसे, जैनशास्त्र में अन्थिभेद का वर्णन है वैसे ही योगवासिष्ठ में भी है । (६) वैदिक ग्रन्थों का यह वर्णन कि ब्रह्म, माया के संसर्ग से संकल्प-विकल्पात्मक ऐन्द्रजालिक सृष्टि रचता है; तथा स्थावरजङ्गमात्मक जगत् का कल्प के अन्त में नाश होता है, इत्यादि बातों की संगति जैनशास्त्र के अनुसार इस प्रकार की जा सकती है - आत्मा
व्यवहार राशि से व्यवहारराशि में आना ब्रह्म का जीवत्व धारण करना है । क्रमशः सूक्ष्म तथा स्थूल मन के द्वारा संज्ञित्व प्राप्त करके कल्पनाजाल में आत्मा का विचरण करना संकल्प - विकल्पात्मक ऐन्द्रजालिक सृष्टि है। शुद्ध श्रात्म-स्वरूप व्यक्त होने पर सांसारिक पर्यायों का नाश होना ही कल्प के अन्त में स्थावरजंगमात्मक जगत् का नाश है श्रात्मा अपनी सत्ता भूलकर जड़ सत्ताको स्वसत्ता मानता है, जो हंश्य-ममस्व भावना रूप मोह का उदय और बन्ध का कारण है । वही स्व-ममय भावना वैदिक वर्णन-शैली के अनुसार बन्धहेतुभूत दृश्य सत्ता है । उत्पत्ति, वृद्धि, विकाश, स्वर्ग, नरक आदि जो जीव की अवस्थाएँ - वैदिक ग्रन्थों में वर्णित हैं, वे ही जैन-दृष्टि के अनुसार व्यवहार- राशि - गत जीव के पर्याय हैं । (७) योगवासिष्ठ में ४ स्वरूप स्थिति को ज्ञानी का और स्वरूप
१. ज्ञप्तिर्हि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता | मृगतृष्णाम्बुबुद्ध या दिशान्तिमात्रात्मकत्वसौ ॥ २३॥'
- उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११८
२. 'तत्स्वयं स्वैरमेवाशु, संकल्पयति नित्यशः । तेनेत्थमिन्द्रजालश्रीर्विततेयं वितन्यते ॥ १६ ॥ ' 'यदिदं दृश्यते सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् । तत्सुताविव स्वप्नः, कल्पान्ते प्रविनश्यति ॥ १० ॥
- उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग १ |
स तथाभूतएवात्मा, स्वयमन्य इबोल्लसन् | जीवतामुपयातीय, भाविनाम्रा कदर्थिताम् ॥ १३ ॥ ' ३. उत्पद्यते यो जगति, स एव किल वर्धते ।
स एव मोक्षमाप्नोति, स्वर्गं वा नरकं च वा ॥ ७॥ "
४. 'स्वरूपावस्थितिर्मुक्तिस्तभ्रंशोऽहंत्ववेदनम् । एतत् संक्षेपतः प्रोक्तं तज्ज्ञत्वाज्ञत्वलक्षणम् ||५||'
उत्पत्ति-प्रकरण, सर्ग १ ।
- उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११७ ॥
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२८२
जैन धर्म और दर्शन भ्रंश को अज्ञानी का लक्षण माना है। जैनशास्त्र में भी सम्यक् ज्ञान का और मिथ्यादृष्टि का क्रमशः वही स्वरूप बतलाया है। (८) योगवासिष्ठ में २ जो सम्यक् ज्ञान का लक्षण है, वह जैनशास्त्र के अनुकूल है। (६) जैनशास्त्र में सम्यक् दर्शन की प्राप्ति, (१) स्वभाव और (२) बाह्य निमित्त, इन दो प्रकार से बतलाई है। योगवासिष्ठ में भी ज्ञान प्राप्ति का वैसा ही क्रम सूचित किया है। (१०) जैनशास्त्र के चौदह गुणस्थानों के स्थान में चौदह भमिकाओं का वर्णन योगवासिष्ठ में बहुत रुचिकर व विस्तृत है । सात भूमिकाएँ ज्ञान की और
१. 'अहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्थ्यकृत् । अयमेव हि नअपूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् ॥१॥' ।
-ज्ञानसार, मोहाष्टक । स्वभावलाभसंस्कारकारणं ज्ञानमिष्यते । ध्यान्ध्यमात्रमतरस्वन्यत्तथा चोक्तं महात्मना ॥३॥'
-ज्ञानसार, ज्ञानाष्टक । २. 'अनाद्यन्तावभासात्मा, परमात्मेह विद्यते । इत्येको निश्चयः स्फारः सम्यगज्ञानं विदुर्बुधाः ॥२॥'
- उपशम-प्रकरण, सर्ग ७६ । ३ 'तन्निसर्गादधिगमाद् वा ।'
-तत्त्वार्थ-अ० १, सू० ३ । ४ 'एकस्ताबद्गुरुप्रोक्तादनुष्ठानाच्छनैः शनैः ।
जन्मना जन्मभिर्वापि सिद्धिदः समुदाहृतः ।।३।। द्वितीयस्त्वात्मनैवाशु, किंचिद्व्युत्पन्नचेतसा । भवति ज्ञानसंप्राप्तिराकाशफलपातयत् ॥४॥'
-उपशम-प्रकरण, सर्ग ७ ५ 'अज्ञानभूः सप्तपदा, ज्ञभूः सप्तपदैव हि । पदान्तराण्यसंख्यानि, भवन्त्यन्यान्यथैतयोः ।।२।। तत्रारोपितमज्ञानं तस्य भूमीरिमाः शृणु । बीजजाग्रत्तथाजाग्रत्, महाजाग्रत्तथैव च ॥११॥ जाग्रत्स्वप्नस्तया स्वप्नः, स्वप्नजाग्रत्सुषुप्सकम् । इति सप्तविधो मोहः, पुनरेव परस्परम् । १२।। श्लिष्टो भवत्यनेकाख्यः शृणु लक्षणमस्य च ।। प्रथमे चेतनं यत्स्यादनाख्यं निर्मलं चितः ॥१३॥
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आध्यात्मिक विकास की तुलना
२८३
सात ज्ञान की बतलाई हुई हैं, जो जैन- परिभाषा के अनुसार क्रमशः मिथ्यात्व की और सम्यक्त्वक अवस्था की सूचक हैं । (११) योगवासिष्ठ में तत्त्वज्ञ,
भविष्यच्चित्तजीवादिनामशब्दार्थभाजनम् ।
बीजरूपं स्थितं जाग्रत्, बीजजाग्रत्तदुच्यते ॥ १४ ॥ एषा ज्ञन्तेर्नवावस्था, त्वं जाग्रत्संसृतिं शृणु । नवप्रसूतस्य परादयं चाहमिदं मम || १५ || इति यः प्रत्ययः स्वस्थस्तज्जाग्रत्प्रागभावनात् । अयं सोऽहमिदं तन्म इति जन्मान्तरोदितः ॥१६॥ पीवरः प्रत्ययः प्रोक्तो, महाजाग्रदिति स्फुटम् ।
रूद्रमथवा रूढं सर्वथा तन्मयात्मकम् ||१७|| यज्जातो मनोराज्यं जाग्रत्स्वप्नः स उच्यते । द्विचन्द्रशुक्तिकारून्यमृगतृष्णादिभेदतः ||१८|| अभ्यासात्प्राप्य जाग्रत्त्वं, स्वप्नोऽनेकविधो भवेत् । अल्पकालं मया दृष्टं, एवं नो सत्यमित्यपि ॥१६॥ निद्राकालानुभूतेऽर्थे, निद्रान्ते प्रत्ययो हि यः ।
स्वप्नः कथितस्तस्य, महाजात्स्थितेर्हृदि ॥ २० ॥ चिरसंदर्शनाभावादप्रफुल्लबृहद् वपुः । स्वप्नो जाग्रत्तारूढो, महाजाग्रत्पदं गतः ॥ २१ ॥ अक्षते वा क्षते देह, स्वप्नजाग्रन्मतं हि तत् । घडवस्थापरित्यागे, जडा जीवस्य या स्थितिः ॥ २२|| भविष्यदुःखबोधाढ्या, सौबुसी सोच्यते गतिः । एते तस्यामवस्थायां तृणलोष्ठशिलादयः || २३॥ पदार्थाः संस्थिताः सर्वे, परमाणुप्रमाणिनः । सतावस्था इति प्रोक्ता, मयाऽज्ञानस्य राघव ||२४||
उत्पत्ति - प्रकरण सर्ग ११७ ।
'ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या, प्रथमा समुदाहृता । विवारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसा ||५|| सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततो संसक्तिनामिका | पदार्थाभावी षष्ठी, सप्तमी तुर्यगा स्मृता ॥ ६॥ आसामन्ते स्थिता मुक्तिस्तस्यां भूयो न शोच्यते । एतासां भूमिकानां त्वमिदं निर्वचनं शृणु ॥७॥
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२८५४
जैनधर्म और दर्शन
समदृष्टि, पूर्णाशय और मुक्त पुरुष का जो वर्णन है, वह जैन-संकेतानुसार चतुर्थ श्रादि गुणस्थानों में स्थित श्रात्मा को लागू पड़ता है। जैनशास्त्र में जो ज्ञान का महत्त्व वर्णित है, वही योगवासिष्ठ में प्रज्ञामाहात्म्य के नाम से
२
स्थितः किं मूढ एवास्मि, प्रेष्येऽहं शास्त्रसज्जनैः । वैराग्यपूर्वमिच्छेति, शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः ||८|| शास्त्रसज्जनसंपर्क-वैराग्याभ्यासपूर्वकम् । सदाचारप्रवृत्तिर्या, प्रोच्यते सा विचारणा ॥ ६ ॥ विचारणाशुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थेष्वसक्तता । यत्र सा तनुताभावात्प्रोच्यते तनुमानसा ||१०|| भूमिकात्रितयाभ्यासाच्चित्तेऽर्थे विरतेर्वशात् । सत्यात्मनि स्थितिः शुद्धे, सत्त्वापत्तिरुदाहृता ॥ ११॥ दशाचतुष्टयाभ्यासादसंसर्गफलेन च ।
रूढसत्त्वचमत्कारात्प्रोक्ता संसक्तिनामिका ॥ १२॥
भूमिकापञ्चकाभ्यासात्स्वात्मारामतया दृढम् । श्रभ्यन्तराणां बाह्यानां पदार्थानामभावनात् ॥१३॥ परप्रयुक्तेन चिरं प्रयत्नेनार्थभावनात् । पदार्थाभावना नाम्नी, षष्ठी संजायते गतिः ||१४|| भूमिषट्कचिराभ्यासाद्भेदस्यानुपलम्भतः ।
यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं सा ज्ञेया तुर्यगा गतिः || १५ || '
उत्पत्ति-प्रकरण, सर्ग ११८ । १ योग० निर्वाण- प्र०, सर्ग १७०; निर्वाण प्र० उ, सर्ग ११६ । योग० स्थिति प्रकरण, सर्ग ७५; निर्वाण प्र० स० १६६ । २ 'जागर्ति ज्ञानदृष्टिश्चेत् ष्णा कृष्णाऽहिजाङ्गुली । पूर्णानन्दस्य तत्किं स्याद्दे न्यवृश्चिकवेदना ||४|| '
ज्ञानसार, पूर्णताष्टक
'अस्ति चेद् ग्रन्थिभिद् ज्ञानं किं चित्रैस्तन्त्रयन्त्रणैः । प्रदीपाः क्वोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेव चेत् ||६| मिथ्यात्वशैलपक्ष च्छिद्र, ज्ञानदम्भोलिशोभितः । निर्भयः शक्रवद्योगी, नन्दत्यानन्दनन्दने ॥७॥ पीयूषमसमुद्रोत्थं, रसायनमनौषधम् । अनन्यापेक्षमैश्वयं ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ॥ ८ ॥'
ज्ञानसार, ज्ञानाष्टक |
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आध्यात्मिक विकास की तुलना
'संसारे निवसन् स्वार्थसज्जः कज्जलवेश्मनि । लिप्यते निखिलो लोको ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ॥१॥ नाहं पुगलभावानां कर्त्ता कारयिता च न । नानुमन्तापि चेत्यात्मज्ञानवान् लिप्यते कथम् ||२| लिप्यते पुद्गलस्कन्धो न लिप्ये पुद्गलैरहम् । चित्रव्योमाञ्जनेनेव, ध्यायन्निति न लिप्यते । ३ । लिसताज्ञानसंपातप्रतिघाताय केवलम् । निर्लेपज्ञानमनस्य, क्रिया सर्वोपयुज्यते ||४|| तपः श्रुतादिना मत्तः क्रियावानपि लिप्यते । भावनाज्ञानसंपन्नो निष्क्रियोऽपि न लिप्यते ||५||
'छिन्दन्ति ज्ञानदात्रेण, स्पृहाविषलतां बुधाः । मुखशोषं च मूर्च्छा च दैन्यं यच्छति यत्फलम् ||३||'
'मिथो युक्तपदार्थानामसंक्रमचमत्क्रिया । चिन्मात्र परिणामेन, विदुषैवानुभूयते ॥७॥ विद्यातिमिरध्वंसे, दृशा विद्याञ्जनस्पृशा । पश्यन्ति परमात्मानमात्मन्येव हि योगिनः ||८||
'भवसौख्येन किं भूरिभयज्वलनभस्मनां । सदा भयोज्झितं ज्ञानसुखमेव विशिष्यते ॥ २ ॥ न गोप्यं क्वापि नारोप्यं हेयं देयं च न क्वचित् । क्व भयेन मुनेः स्थेयं ज्ञ ेयं ज्ञानेन पश्यतः || ३|| एकं ब्रह्मास्त्रमादाय, निघ्नन्मोहचमूं मुनिः । विभेति नैव संग्रामशीर्षस्थ इव नागराट् ॥४॥ मयूरी ज्ञानदृष्टिश्वत्प्रसर्पति मनोवने । वेष्टनं भवसर्पाणां न तदाऽऽनन्दचन्दने || ५ || कृतमोहास्त्र वैफल्यं, ज्ञानवर्म बिभर्ति यः । क्व भीस्तस्य क्व वा भङ्गः कर्मसंगर केलिषु ||६ ॥ तूलवल्लघवो मूढा भ्रमन्त्यभ्रे भयानिलैः । नैकं रोमापि तैर्ज्ञानगरिष्ठानां तु कम्पते ॥ ७ ॥
ज्ञानसार, निर्लेपाष्टक |
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ज्ञानसार, निःस्पृहाष्टक |
ज्ञानसार, विद्याष्टक |
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क
जैन धर्म और दर्शन उल्लिखित है ।
चित्ते परिणतं यस्य, चारित्रमकुतोभयम् । अखण्डज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः कुतो भयम् ।।८।'
ज्ञानसार, निर्भयाष्टक । 'अदृष्टार्थे तु धावन्तः, शास्त्रदीपं विना जडाः । प्राप्नुवन्ति पर खेदं प्रस्खलन्तः पदे पदे ॥५॥ 'अज्ञानाहिमहामन्त्रं स्वाच्छन्धज्वरलंघनम् । धर्मारामसुधाकुल्यां शास्त्रमाहुमहर्षयः ॥७॥ शास्त्रोक्ताचारकर्ता च, शास्त्रज्ञः शास्त्र देशकः । शास्त्रैकहग महायोगी, प्राप्नोति परमं पदम् ।।८।।'
ज्ञानसार, शास्त्राष्टक । "ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापनात्तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं बाह्यं तदुपबृंहकम् ।।१।। श्रानुस्रोतसिकी वृत्तिालानां सुखशीलता । प्रातिस्रोतसिकी वृत्तिानिनां परमं तपः ।।२।। सदुपायप्रवृत्तानामुपेयमधुरत्वतः । ज्ञानिनां नित्यमानन्दवृद्धिरेव तपस्विनाम् ।।४।।
ज्ञानसार, तपोष्टक । १ 'न तद्गुरोर्न शास्त्रार्थान्न पुण्यात्प्राप्यते पदम् । यत्साधुसङ्गाभ्युदिताद्विचारविशदाद्धृदः ॥१७॥ सुन्दा निजया बुद्धया, प्रश येव वयस्यया । पदमासाद्यते राम, न नाम क्रिययाऽन्यया ॥१८॥ यस्योज्ज्वलति तीक्ष्णाग्रा, पूर्वापरविचारिणी । प्रज्ञादीपशिखा जातु, जाड्यान्ध्यं तं न बाधते ॥१६॥ दुरुत्तरा या विपदो दुःखकल्लोलसंकुलाः । तीर्यते प्रज्ञया ताभ्यो नावाऽपद्भ्यो महामते ।।२०।। प्रज्ञाविरहितं मूढमापदल्यापि बाधते। पेलवाचानिलकला सारहीनमिवोलपम् ।२१।। 'प्रज्ञावानसहोऽपि कार्यान्तमधिगच्छति । दुष्प्रज्ञः कार्यमासाद्य, प्रधानमपि नश्यति ॥२३॥ शास्त्र सज्जनसंसर्गः प्रशां पूर्व विवर्धयेत् । सेकसंरक्षणारम्भैः फलप्राप्तौ लतामिव ॥२४॥
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प्राध्यामिक विकास की तुलना
प्रज्ञाबलबृहन्मूलः, काले सत्कार्यपादपः । फलं फलत्यतिस्वादु भासोर्विम्बमिवैन्दवम् ||२५|| य एव यत्नः क्रियते, बाह्यार्थोपार्जने जनैः । स एव यत्नः कर्तव्यः पूर्वं प्रशाविवर्धने ॥ २६ ॥ सीमान्तं सर्वदुःखानामापदां कोशमुत्तमम् । बीजं संसारवृक्षाणां प्रज्ञामान्द्यं विनाशयेत् ||२७|| स्वर्गाद्यद्यच्च पातालाद्राज्याद्यत्समवाप्यते । तत्समासाद्यते सर्वं प्रज्ञाकोशान्महात्मना ||२८|| प्रज्ञयोत्तीर्यते भीमात्तस्मात्संसारसागरात् । न दानैर्न च वा तीर्थैस्तपसा न च राघव ||२६|| यत्प्राप्ताः संपदं दैवीमपि भूमिचरा नराः । प्रज्ञा पुण्यलतायास्तत्फलं स्वादु समुत्थितम् ||३० ॥ प्रज्ञया नखरालून मत्तवारणयूथपाः । जम्बुकैर्विजिताः सिंहा, सिंहैर्हरिणका इव ||३१| सामान्यैरपि भूपत्वं प्राप्त प्रज्ञावशान्नरैः । स्वर्गापवर्गयोग्यत्वं प्राज्ञस्यैवेह दृश्यते ||३२|| प्रज्ञया वादिनः सर्वे स्वविकल्पविलासिनः । जयन्ति सुभटप्रख्यान्नरानप्यतिभीरवः ||३३|| चिन्तामणिरियं प्रज्ञा हृत्कोशस्था विवेकिनः । फलं कल्पलतेवैषा, चिन्तितं सम्प्रयच्छति ||३४|| भव्यस्तरति संसारं प्रज्ञयापोह्यतेऽधमः ।
शिक्षितः पारमाप्नोति, नावा नाप्नोत्यशिक्षितः ||३५||
धीः सम्यग्योजिता पारमसम्यग्योजिताऽऽपदम् । नरं नयति संसारे, भ्रमन्ती नौरिवार्णवे || ३६ || विवेकिनमसंमूढं प्राज्ञमाशागणोत्थिताः । दोषा न परिबाधन्ते, सन्नद्धमिव सायकाः ||३७|| प्रज्ञयेह जगत्सर्वं सम्यगेवाङ्ग दृश्यते । सम्यग्दर्शनमायान्ति, नापदो न च संपदः ||३८|| पिधानं परमार्कस्य, जडात्मा विततोऽसितः । अहंकाराम्बुदो मत्तः, प्रज्ञावातेन बाध्यते ॥ ३६॥"
२८७
उपशम-प्र०, प्रज्ञामाहात्म्य ।
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२८८
योगसंबन्धी विचार
गुणस्थान और योग के विचार में अन्तर क्या है ? गुणस्थान के किंवा अज्ञान व ज्ञान की भूमिकाओं के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि आत्मा का श्राध्या - मिक विकास किस क्रम से होता है और योग के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि मोक्ष का साधन क्या है ? अर्थात् गुणस्थान में श्राध्यामिक विकास के क्रम का विचार मुख्य है और योग में मोक्ष के साधन का विचार मुख्य है । इस प्रकार दोनों का मुख्य प्रतिपाद्य तत्त्व भिन्न-भिन्न होने पर भी एक के विचार में दूसरे की छाया अवश्य आ जाती है, क्योंकि कोई भी श्रारमा मोक्ष के अन्तिम - अनन्तर या अव्यवहित - साधन को प्रथम ही प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु विकास के क्रमानुसार उत्तरोत्तर सम्भावित साधनों को सोपान-परम्परा की तरह प्राप्त करता हुआ अन्त में चरम साधन को प्राप्त कर लेता है । अतएव योग के—मोक्षसाधनविषयक विचार में आध्यात्मिक विकास के क्रम की छाया आ ही जाती है । इसी तरह आध्यात्मिक विकास किस क्रम से होता है, इसका विचार करते समय मा के शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम परिणाम, जो मोक्ष के साधनभूत हैं, उनकी छाया भी आ ही जाती है । इसलिए गुणस्थान के वर्णन-प्रसंग में योग का स्वरूप संक्षेप में दिखा देना प्रासङ्गिक नहीं है ।
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१
योग किसे कहते हैं ? — श्रात्मा का धर्म व्यापार मोक्ष का मुख्य हेतु अर्थात् उपादानकारण तथा बिना विलम्ब से फल देनेवाला हो, उसे योग कहते हैं । ऐसा व्यापार प्रणिधान आदि शुभ भाव या शुभभावपूर्वक की जानेवाली क्रिया है । पातञ्जलदर्शन में चित्त की वृत्तियों के निरोधकों योग कहा है। उसका भी वही मतलब है, अर्थात् ऐसा निरोध मोक्ष का मुख्य कारण हैं, क्योंकि उसके साथ कारण और कार्य-रूप से शुभ भाव का अवश्य संबंध होता है ।
जैन धर्म और दर्शन
१ 'मोक्षेण योजनादेव, योगो ह्यत्र निरुच्यते । लक्षणं तेन तन्मुख्यहेतुव्यापारतास्य तु || १ || '
— योगलक्षण द्वात्रिंशिका |
२ 'प्रणिधानं प्रवृत्तिश्च तथा विघ्नजयस्त्रिधा । सिद्धिश्च विनियोगश्च, एते कर्मशुभाशयाः ॥ १० ॥ ' 'एतैराशययोगैस्तु, विना धर्माय न क्रिया । प्रत्युत प्रत्यपायाय, लोभक्रोध क्रिया तथा ॥ १६ ॥”
— योगलक्षणद्वात्रिंशिका ।
३ 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । - पातञ्जलसूत्र, पा० १, सू० २ ।
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योग विचारणा
१६
योग का आरम्भ कब से होता हैं ?
आत्मा अनादि काल से जन्म-मृत्यु के प्रवाह में पड़ा है और उसमें नाना प्रकार के व्यापारों को करता रहता है । इसलिए यह प्रश्न पैदा होता है कि उसके व्यापार को कब से योगस्वरूप माना जाए ? इसका उत्तर शास्त्र में १ यह दिया गया है कि जब तक आस्मा मिथ्यात्व से व्याप्त बुद्धिवाला, श्रतएव दिङ्मूढ की तरह उल्टी दिशा में गति करनेवाला अर्थात् आस्था- लक्ष्य से भ्रष्ट हो, तब तक उसका व्यापार प्रणिधान आदि शुभ योग रहित होने के कारण योग नहीं कहा जा सकता । इसके विपरीत जब से मिथ्यात्व का तिमिर कम होने के कारण आत्मा की भ्रान्ति मिटने लगती है और उसकी गति सीधी अर्थात् सन्मार्ग के अभिमुख हो जाती है, तभी से उसके व्यापार को प्रणिधान आदि शुभ भाव सहित होने के कारण 'योग' संज्ञा दी जा सकती है । सारांश यह है कि आत्मा के अनादि सांसारिक काल के दो हिस्से हो जाते हैं। एक चरमपुद्गलपरावर्त्त और दूसरा चरम पुद्गल पर्वत कहा जाता है ! चरम पुद्गल पर्वत अनादि सांसारिक काल का आखिरी और बहुत छोटा अंश " है । अचरमपुद्गलपरावर्त्त उसका बहुत बड़ा भाग है; क्योंकि चरमपुद्गलपरावर्त को बाद करके अनादि सांसारिक काल, जो अनंतकालचक्र-परिमाण है, वह सब चरम पुद्गलपरावर्त कहलाता है । आत्मा का सांसारिक काल, जत्र चरमपुद्गलपरावर्त-परिमाण बाकी रहता है, तब उसके ऊपर से मिथ्यात्वमोह का आवरण हटने लगता है । अतएव उसके परिणाम निर्मल होने लगते हैं । और क्रिया भी निर्मल भावपूर्वक होती है । ऐसी क्रिया से भाव-शुद्धि और भी बढ़ती है । इस प्रकार उत्तरोत्तर भाव-शुद्धि बढ़ते जाने के कारण चरम पुद्गलपरावर्तकालीन धर्म व्यापार को योग कहा है । अचरम पुद्गलपरावर्त कालीन व्यापार न तो शुभ- भावपूर्वक होता है और न शुभ-भाव का कारण ही होता है । इसलिए
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१ 'मुख्यत्वं चांतरङ्गत्वात्फलाक्षेपाच्च दर्शितम् । चरमे पुद्गलावर्ते यत एतस्य संभवः ||२|| न सन्मर्गाभिमुख्यं स्यादावर्तेषु परेषु तु । मिथ्यात्वाच्छन्नबुद्धीनां दिङ्मूढानामिवाङ्गिनाम् ||३||'
२ चरमावर्तिनो जन्तोः, सिद्धेरासन्नता ध्रुवम् । भूयांसोऽमी व्यतिक्रान्तास्तेष्वेको विन्दुरम्बुधौ ॥२८॥
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— योगलक्षणद्वात्रिंशिका ।
- मुक्त्यद्वेष प्राधान्यद्वात्रिंशिका ।
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२६०
जैन धर्म और दर्शन
वह परम्परा से भी मोक्ष के अनुकूल न होने के सबब से योग नहीं कहा जाता । पातञ्जलदर्शन में भी अनादि सांसारिक काल के निवृत्ताधिकार प्रकृति और और अनिवृत्ताधिकार प्रकृति इस प्रकार दो भेद बतलाए हैं, जो जैन शास्त्र के चरम और चरम-पुद्गलपरावर्त के समानार्थक हैं ।
योग के भेद और उनका आधार
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हैं, उनका आधार क्या है ?
जैनशास्त्र * में (१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय, ऐसे पाँच भेद योग के किये हैं । पातञ्जलदर्शन में योग के (१) सम्प्रज्ञात और (२) सम्प्रज्ञात, ऐसे दो भेद हैं । जो मोक्ष का साक्षात्श्रव्यवहित कारण हो अर्थात् जिसके प्राप्त होने के बाद तुरंत ही मोक्ष हो, वही यथार्थ में योग कहा जा सकता है। ऐसा योग जैनशास्त्र के संकेतानुसार वृत्तिसंक्षय और पातञ्जलदर्शन के संकेतानुसार सम्प्रज्ञात ही है । अतएव यह प्रश्न होता है कि योग के जो इतने भेद किये जाते इसका उत्तर यह है कि अलबत्ता वृत्तिसंक्षय किंवा सम्प्रज्ञात ही मोक्ष का साक्षात् कारण होने से वास्तव में योग है । तथापि वह योग किसी विकासगामी आत्मा को पहले ही पहल प्राप्त नहीं होता, किंतु इसके पहले विकास क्रम के अनुसार ऐसे अनेक आंतरिक धर्म-व्यापर करने पड़ते हैं, जो उत्तरोत्तर विकास को बढ़ाने वाले और अंत में उस वास्तविक योग तक पहुँचानेवाले योग के कारण होने से अर्थात् वृत्तिसंक्षय या परम्परा से हेतु होने से योग कहे जाते हैं ।
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होते हैं । वे सब धर्म - व्यापार सम्प्रज्ञात योग के साक्षात् किंवा सारांश यह है कि योग के भेदों का धार विकास का क्रम है। यदि विकास क्रमिक न होकर एक ही बार पूर्णतया प्राप्त हो जाता तो योग के भेद नहीं किये जाते । अतएव वृत्तिसंक्षय जो मोक्ष का साक्षात् कारण है, उसको प्रधान योग समझना चाहिए और उसके पहले के जो अनेक धर्म-व्यापार योगकोटि में गिने जाते हैं, वे प्रधान योग के कारण होने से योग कहे जाते हैं । इन सब व्यापारों की समष्टि को पातञ्जलदर्शन में सम्प्रज्ञात
१ योजनाद्योग इत्युक्तो मोक्षेण मुनिसत्तमैः । निवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ लेशतो ध्रुवः ॥ १४ ॥
— पुनर्ब्रन्धद्वात्रिंशिका |
२ 'अध्यात्मं भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः । योगः पञ्चविधः प्रोक्तो, योगमार्गविशारदैः ॥ १॥
३ देखिए, पाद १, सूत्र १७ और १८ ।
- योगभेदद्वात्रिंशिका |
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गुणस्थान और योग
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कहा है और जैन शास्त्र में शुद्धि के तर-तम भावानुसार उस समष्टि के अध्यात्म आदि चार भेद किये हैं । वृत्तिसंक्षय के प्रति साक्षात् किंवा परंपरा से कारण होनेवाले व्यापारों को जब योग कहा गया, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि वे पूर्वभावी व्यापार कब से लेने चाहिए । किन्तु इसका उत्तर पहले ही दिया गया है कि चरम पुद्गलपरावर्तकाल से जो व्यापार किये जाते हैं, वे ही योग कोटि में गिने जाने चाहिए । इसका सबब यह है कि सहकारी निमित्त मिलते ही, वे सब व्यापार मोक्ष के अनुकूल अर्थात् धर्म व्यापार हो जाते हैं । इसके विपरीत कितने ही सहकारी कारण क्यों न मिलें, पर चरम पुद्गलपरावर्तकालीन व्यापार मोक्ष अनुकूल नहीं होते ।
योग के उपाय और गुणस्थानों में यागावतार
अपर - वैराग्य को योग कहा है ।
पातञ्जलदर्शन में (१) अभ्यास और ( २ ) वैराग्य, ये दो उपाय योग के बतलाये हुए हैं। उसमें वैराग्य भी पर अपर रूप से दो प्रकार का कहा गया है ' । योग का कारण होने से वैराग्य को योग मानकर जैन शास्त्र में तात्त्विक धर्मसंन्यास और पर वैराग्य को तात्त्विक धर्मसंन्यास जैनशास्त्र में योग का प्रारम्भ पूर्व सेवा से माना गया है। पूर्व सेवा से अध्यात्म, अध्यात्म से भावना, भावना से ध्यान तथा समता, ध्यान तथा समता से वृत्तिसंक्षय और वृत्तिसंक्षय से मोक्ष प्राप्त होता है । इसलिए वृत्तिसंक्षय ही मुख्य योग है और पूर्व सेवा से लेकर समता पर्यन्त सभी धर्म-व्यापार साक्षात् किंवा परंपरा से योग के उपायमात्र ४ हैं । अपुनर्बन्धक, जो मिथ्यात्व को त्यागने के लिए
१. देखिये, पाद १, सूत्र १२, १५ र १६ ।
२. 'विषयदोषदर्शनजनितभयात् धर्मसंन्यासलक्षणं प्रथमम्, स तत्त्वचिन्तया विषयौदासीन्येन जनितं द्वितीयापूर्वकरण भावितात्त्विकधर्मसंन्यासलक्षणं द्वितीयं वैराग्यं यत्र क्षायोपशमिका धर्मां अपि क्षीयन्ते क्षायिका श्चोत्पद्यन्त इत्यस्माकं सिद्धान्तः ।' -- श्रीयशोविजयजी - कृत पातञ्जल -दर्शनवृत्ति, पाद १०, सूत्र १६ ।
३. 'पूर्व सेवा तु योगस्य, गुरुदेवादिपूजनम् । सदाचारस्तपो मुक्त्यद्वेषश्चेति प्रकीर्तिताः ॥ १॥
४. ' उपायत्वेऽत्र पूर्वेषामन्त्य एवावशिष्यते । तत्पञ्चम गुणस्थानादुपायोऽर्वागिति स्थितिः ||३१||
- पूर्व सेवाद्वात्रिंशिका |
- योगभेदद्वात्रिंशिका |
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जैन धर्म और दर्शन तत्पर और सम्यक्त्व-प्राप्ति के अभिमुख होता है, उसको पूर्वसेवा तात्त्विकरूप से होती है और सकृदन्धक, द्विर्बन्धक आदि को पूर्वसेवा अतात्त्विक होती है। अध्यात्म और भावना अपुनर्बन्धक तथा सम्यग्दृष्टि को व्यवहार-नय से. तात्त्विक
और देश-विरति तथा सर्व-विरति को निश्चय नय से तात्विक होते हैं ! अप्रमत्त, सर्वविरति श्रादि गुणस्थानों में ध्यान तथा समता उत्तरोत्तर तात्त्विकरूप से होते हैं। वृत्तिसंक्षय तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होता है । सम्प्राज्ञतयोग अध्यात्म से लेकर ध्यान पर्यन्त के चारों भेदस्वरूप है और असम्प्रज्ञातयोग वृत्ति संक्षयरूप है। इसलिए चौथे से बारहवें गुणस्थान तक में सम्प्रज्ञातयोग और तेरहवें चौदहवें गुणस्थान में असम्प्रज्ञातयोग समझना चाहिए । पूर्वसेवा आदि शब्दों की व्याख्या
१. गुरु, देव आदि पूज्यवर्ग का पूजन, सदाचार, तप और मुक्ति के प्रति अद्वेष, यह 'पूर्वसेवा' कहलाती है। २. उचित प्रवृत्तिरूप अणुव्रत-महाव्रत युक्त होकर मैत्री आदि भावनापूर्वक जो शास्त्रानुसार तत्व-चिंतन करना, वह
१. 'शुक्लपक्षेन्दुवत्प्रायो वर्धमानगुणः स्मृतः । भवाभिनन्ददोषाणामपुनर्बन्धको व्यये ॥१॥ अस्यैव पूर्वसेचोक्ता, मुख्याऽन्यस्योपचारतः । अस्थावस्थान्तरं मार्गपतिताभिमुखौ पुनः ॥२॥
-अपुनर्बन्धकद्वात्रिंशिका । 'अपुनर्बन्धकस्यायं व्यवहारेण तात्त्विकः अध्यात्मभावनारूपोनिश्चयेनोत्तरस्य तु ॥१४॥ सकृदावर्तनादीनामतात्विक उदाहृतः। प्रत्यवायफलप्रायस्तथा वेषादिमावतः ।।१५।। शुद्धयपेक्षा यथायोगं चारित्रवत एव च । हन्त ध्यानादिको योगस्तात्त्विकः प्रविजृम्भते ।।१६।।'
-~योगविवेकद्वात्रिंशिका । २. 'संप्रज्ञातोऽवतरति, ध्यानभेदेऽत्र तत्त्वतः।
तात्त्विकी च समापत्तिात्मनो भाव्यता विना ||१५|| 'असम्प्रज्ञातनामा तु, संमतो वृत्तिसंक्षयः ।। सर्वतोऽस्मादकरण नियमः पापगोचरः ।।२१॥'
-~योगावतारद्वशिका।
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पूर्वसेवा आदि
२६३ 'अध्यात्म'' है । ३. अध्यात्म का बुद्धिसंगत अधिकाधिक अभ्यास ही 'भावना'२ है । ४. अन्य विषय के संचार से रहित जो किसी एक विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्मबोध हो, वह 'ध्यान' ३ है। ५ अविद्या से कल्पित जो अनिष्ट वस्तुएँ हैं, उनमें विवेकपूर्वक तत्त्व-बुद्धि करना अर्थात् इष्टत्व अनिष्टत्व की भावना छोड़कर उपेक्षा धारण करना 'समता' ४ है । ६. मन और शरीर के संयोग से उत्पन्न होनेवाली विकल्परूप तथा चेष्टारूप वृतियों का निर्मूल नाश करना 'वृतिसंक्षय' ५ है। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने अपनी पातञ्जलसत्रवृत्ति में वृत्तिसंक्षय शब्द की उक्त व्याख्या की अपेक्षा अधिक विस्तृत व्याख्या की है। उसमें वृत्ति का अर्थात् कर्मसंयोग की योग्यता का संक्षय----ह्रास, जो ग्रन्थिमेद से शुरू होकर चौदहवें गणस्थान में समाप्त होता है, उसी को वृत्तिसंक्षय कहा है और शक्लध्यान के पहले दो भेदों में सम्प्रज्ञात का तथा अन्तिम दो भेदों में असम्प्रज्ञात का समावेश किया है।
१. 'औचित्याद्व्तयुक्तस्य, वचनात्तत्त्वचिन्तनम् । मैत्र्यादिभावसंयुक्तमध्यात्म तद्विदो विदुः ॥२॥
-योगभेदद्वात्रिंशिका। २. 'अभ्यासो वृद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः। निवृत्तिरशुभाभ्यासाद्भाववृद्धिश्च तत्फलम् ।।६।'
-योगभेदद्वात्रिंशिका । ३. 'उपयोगे विजातीयप्रत्ययाव्यवधानभाक् । शुभैकप्रत्ययो ध्यानं सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ॥११॥
-योगभेदद्वात्रिंशिका। ४. 'व्यवहारकुदृष्टयोच्चैरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु । कल्पितेषु विवेकेन, तत्वधीः समतोच्यते ॥२२॥
-योगभेदद्वात्रिंशिका । ५. 'विकल्यस्पन्दरूपाणां वृत्तीनामन्यजन्मनाम् । अपुनर्भावतो रोधः, प्रोच्यते यत्तिसंक्षयः ॥२५॥'
—योगभेदद्वात्रिंशिका। ६ 'द्विविधोऽप्ययमध्यात्मभावनाध्यानसमतावृत्तिसंक्षयभेदेन पञ्चधोक्तस्य योगस्य पञ्चमभेदेऽवतरति' इत्यादि ।
-पाद १, सू० १८॥
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રહ૪
जैन धर्म और दर्शन योगजन्य विभूतियाँ
योग से होनेवाली शान, मनोबल, वचनबल, शरीरबल श्रादि संबंधिनी अनेक विभूतियों का वर्णन पातञ्जलदर्शन में ' है। जैनशास्त्र में वैक्रियलब्धि, आहारकलब्धि, अवधिज्ञान, मनःपर्याय-ज्ञान आदि सिद्धियाँ २ वर्णित हैं, सो योग का ही फल हैं। बौद्ध मन्तव्य ___ बौद्धदर्शन में भी आत्मा की संसार, मोक्ष प्रादि अवस्थाएँ मानी हुई हैं। इसलिए उसमें आध्यात्मिक क्रमिक विकास का वर्णन होना स्वाभाविक है। स्वरूपोन्मुख होने की स्थिति से लेकर स्वरूप की पराकाष्ठा प्राप्त कर लेने तक की स्थिति का वर्णन बौद्ध-ग्रंथों में 3 है, जो पाँच विभागों में विभाजित है। इनके नाम इस प्रकार हैं-१. धर्मानुसारी, २. सोतापन्न, ३, सकदागामी, ४. अनागामी और ५. अरहा। [१] इनमें से 'धर्मानुसारी' या 'श्रद्धानुसारी' वह कहलाता है, जो निर्वाणमार्ग के अथांत् मोक्षमाग के अभिमुख हो, पर उसे प्रास न हुआ हो । इसी को जैनशात्र में 'मार्गानुसारी' कहा है और उसके पैंतीस गुण बतलाए है ४ । [२] मोक्षमाग' को प्राप्त किये हुए आत्माओं के विकास की न्यूनाधिकता के कारण सोतापन्न अादि चार विभाग हैं । जो आत्मा अविनिपात, धर्मनियत और सम्बोधिपरायण हो, उसको 'सोतापन्न' कहते हैं । सोतापन्न अात्मा सातवें जन्म में अवश्य निर्वाण पाता है । [३] 'सकदागामी' उसे कहते हैं, जो एक ही बार इस लोक में जन्म ग्रहण करके मोक्ष जानेवाला हो। [४] जो इस लोक में जन्म ग्रहण न करके ब्रह्म लोक से सीधे ही मोक्ष जानेवाला हो, वह 'अनागामी' कहलाता है। [५] जो.सम्पूर्ण आस्रवों का क्षय करके कृतकार्य हो जाता है, उसे 'अरहा' ५ कहते हैं ।
धर्मानुसारी आदि उक्त पाँच अवस्थाओं का वर्णन मज्झिमनिकाय में बहुत १ देखिए, तीसरा विभूतिपाद। २ देखिए, आवश्यक नियुक्ति, गा० ६६ और ७० ।
३ देखिए, प्रो० सि० वि० राजवाड़े-सम्पादित मराठीभाषान्तरित मज्झिमनिकाय
सू०६, पे० २, सू० २२, पे० १५, सू० ३४, पे० ४, सू० ४८ पे० १० । ४ देखिए, श्रीहेमचन्द्राचार्य-कृत योगशास्त्र, प्रकाश १ ।
५ देखिए, प्रो. राजवाडे-संपादित मराठीभाषान्तरित दीघनिकाय, पृ. १७६ टिप्पणी ।
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बौद्ध मन्तव्य
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स्पष्ट किया हुआ है । उसमें वर्णन किया है कि तत्कालजात वत्स, कुछ बड़ा किन्तु दुर्बल वत्स, प्रौढ़ वत्स, हल में जोतने लायक बलवान् बैल और पूर्ण वृषभ जिस प्रकार उत्तरोत्तर अल्प- अल्प श्रम से गङ्गा नदी के तिरछे प्रवाह को पार कर लेते हैं, वैसे ही धर्मानुसारी आदि उक्त पाँच प्रकार के आत्मा भी मार- :-काम के वेग को उत्तरोत्तर अल्प श्रम से जीत सकते हैं ।
बौद्ध-शास्त्र में दस संयोजनाएँ --- बंधन वर्णित हैं। इनमें से पाँच 'श्रोरंभागीय' और पाँच 'उडंभागीय' कही जाती हैं। पहली तीन संयोजनात्रों का क्षय हो जाने पर सोतापन्न अवस्था प्राप्त होती है। इसके बाद राग, द्व ेष और मोह शिथिल होने से सकदागामी अवस्था प्राप्त होती है । पाँच रंभागीय संयोजनाओं का नाश होनेपर औपपत्तिक अनावृत्तिधर्मा किंवा अनागामी अवस्था प्राप्त होती है और दसों संयोजनाओं का नाश हो जाने पर रहा पद मिलता है । यह वर्णन जैनशास्त्र-गत कर्म प्रकृतियों के क्षय के वर्णन - जैसा है । सोतापन्न यदि उक्त चार अवस्थानों का विचार चौथे से लेकर चौदहवें तक के गुणस्थानों के विचारों से मिलता-जुलता है अथवा यों कहिए कि उक्त चार अवस्थाएँ चतुर्थ आदि गुणस्थानों का संक्षेपमात्र हैं ।
जैसे जैन-शास्त्र में लब्धिका तथा योगदर्शन में योगविभूति का वर्णन है, वैसे ही बौद्ध शास्त्र में भी आध्यात्मिक विकास-कालीन सिद्धियों का वर्णन है, जिनको उसमें 'अभिज्ञा' कहते हैं । ऐसी अभिज्ञाएँ छह हैं, जिनमें पाँच लौकिक और एक लोकोत्तर कही गयी है।
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४
बौद्ध-शास्त्र में बोधिसत्य का जो लक्षण है, वही जैन शास्त्र के अनुसार सम्यदृष्टि का लक्षण है । जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह यदि गृहस्थ के आरम्भ समारम्भ
१. देखिए, पृ० १५६ |
२. ( १ ) सक्कायदिहि, (२) विचिकच्छा, (३) सीलन्चत परामास, (४) कामराग, (५) पटरीघ, (६) रूपराग, (७) श्ररूपराग, (८) मान, (६) उद्धच्च और (१०) विजा | मराठी भाषांतरित दीघनिकाय, पृ० १७५ टिप्पणी ।
३ देखिए, – मराठी भाषांतरित मज्झिमनिकाय, पृ० १५६ ।
·
४. 'कायपातिन एवेह बोधिसत्त्वाः परोदितम् ।
न चित्तपातिनस्तावदेतत्रापि युक्तिमत् ॥ २७१ ॥ '
— योगबिन्दु |
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________________ 266 जैन धर्म और दर्शन आदि कार्यों में प्रवृत्त होता है, तो भी उसकी वृत्ति तप्तलोहपदन्यासवत् अर्थात् गरम लोहे पर रखे जानेवाले पैर के समान सकम्प या पाप-भीरु होती है। बौद्धशास्त्र में भी बोधिसत्त्व का वैसा ही स्वरूप मानकर उसे कायपाती अर्थात् शरीरमात्र से ( चित्त से नहीं) सांसारिक प्रवृत्ति में पड़नेवाला कहा है / वह चित्तपाती नहीं होता। ई० 1622] [चौथे कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना 1. एवं च यस्परैरुक्तं बोधिसत्त्वस्य लक्षणम् / विचार्यमा सन्नील्या, तदप्यत्रोपपद्यते // 10 // तप्तलोहपदन्यासतुल्या वृत्तिः क्वचिद्यदि / इत्युक्तेः कायपास्येव, चित्तपाती न स स्मृतः // 11 // -सम्यग्दृष्टिद्वात्रिंशिका /