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________________ २७४ जैन धर्म और दर्शन ऐसे होते हैं, जो सौ कोशिश करने पर भी एक बारगी अपनी परीक्षा में पास होकर आगे नहीं बढ़ सकते। पर दूसरे प्रकार के विद्यार्थी अपनी योग्यता के बल से सब कठिनाईयों को पारकर उस कठिनतम परीक्षा को बेधड़क पास कर ही लेते हैं। उन दोनों दल के इस अन्तर का कारण उनकी आन्तरिक योग्यता की न्यूनाधिकता है। वैसे ही नौवें तथा दसवें गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले उक्त दोनों श्रेणिगामी श्रात्माओं की आध्यात्मिक विशुद्धि न्यूनाधिक होती है | जिसके कारण एक श्रेणिवाले तो दसवें गुणस्थान को पाकर अंत में ग्यारहवे गुणस्थान में मोह से हार खाकर नीचे गिरते हैं और अन्य श्रेणिवाले दसवें गुणस्थान को पाकर इतना अधिक आत्मबल प्रकट करते है कि अन्त में वे मोह को सर्वथा क्षीण कर बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर ही लेते हैं। जैसे ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्य पुनरावृत्तिका है, वैसे ही बारहवाँ गुणस्थान अपुनरावृत्ति का है। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान को पानेवाला अात्मा एक बार उससे अवश्य गिरता है और बारहवें गुणस्थान को पानेवाला उससे कदापि नहीं गिरता; बल्कि ऊपर को ही चढ़ता है। किसी एक परीक्षा में नहीं पास होनेवाले विद्यार्थी जिस प्रकार परिश्रम व एकाग्रता से योग्यता बढ़ाकर फिर उस परीक्षाको पास कर लेते हैं; उसी प्रकार एक बार मोह से हार खानेवाले आत्मा भी अप्रमत्त-भाव व आत्म-बल की अधिकता से फिर मोह को अवश्य क्षीण कर देते हैं । उक्त दोनों श्रेणिवाले आत्माओं की तर-तमभावापन्न आध्यात्मिक विशुद्धि मानों परमात्म-भाव-रूप सर्वोच्च भूमिकापर चढ़ने की दो सीढियाँ हैं। जिनमें से एक को जैनशास्त्र में 'उपशमश्रेणि' और दूसरी को 'क्षपकश्रेणि' कहा है । पहली कुछ दूर चढ़ाकर गिरानेवाली और दूसरी चढ़ानेवाली ही है। पहली श्रेणि से गिरनेवाला आध्यात्मिक अधःपतन के द्वारा चाहे प्रथम गुणस्थान तक क्यों न चला जाए, पर उसकी वह अधःपतित स्थिति कायम नहीं रहती। कभी-न-कभी फिर वह दूने बल से और दूनी सावधानी से तैयार होकर मोह-शत्रु का सामना करता है और अन्त में दूसरी श्रेणि की योग्यता प्राप्त कर मोह का सर्वथा क्षय कर डालता है ! व्यवहार में अर्थात् आधिभौतिक क्षेत्र में भी यह देखा जाता है कि जो एक बार हार खाता है, वह पूरी तैयारी करके हरानेवाले शत्रु को फिर से हरा सकता है। __परमात्म-भाव का स्वराज्य प्रास करने में मुख्य बाधक मोह ही है। जिसको नष्ट करना अन्तरात्म-भाव के विशिष्ट विकास पर निर्भर है। मोह का सर्वथा नाश हुआ कि अन्य आवरण जो जैनशास्त्र में 'घातिकर्म' कहलाते हैं, वे प्रधान सेनापति के मारे जाने के बाद अनुगामी सैनिकों की तरह एक साथ तितर-बितर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229068
Book TitleShadashitika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size747 KB
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