SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान का विशेष स्वरूप २७५ I हो जाते हैं । फिर क्या देरी, विकासगामी आत्मा तुरन्त ही परमात्म भाव का पूर्ण श्राध्यात्मिक स्वराज्य पाकर अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप को पूर्णतया व्यक्त करके निरतिशय ज्ञान, चारित्र आदि का लाभ करता है तथा अनिर्वचनीय स्वाभाविक सुख का अनुभव करता है जैसे, पूर्णिमा की रात में निरभ्र चन्द्र की सम्पूर्ण कला प्रकाशमान होती हैं, वैसे ही उस समय आत्मा की चेतना श्रादिस भी मुख्य शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। इस भूमिका को जैनशास्त्र में तेरहवाँ गुणस्थान कहते हैं । । इस गुणस्थान में चिरकाल तक रहने के बाद आत्मा दग्ध रज्जु के समान शेष आवरणों को अर्थात् अप्रधानभूत श्रघातिकर्मों को उड़ाकर फेंक देने के लिए सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यानरूप पवन का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देता है । यही आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा किंवा चौदहवाँ गुणस्थान है । इसमें आत्मा समुच्छिन्नक्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यानद्वारा सुमेरु की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके अन्त में शरीरत्यागपूर्वक व्यवहार और परमार्थ दृष्टि से लोकोत्तर स्थान को प्राप्त करता है । यही निर्गुण ब्रह्मस्थिति है, यही सर्वाङ्गीण पूर्णता है, यही पूर्ण कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थ की अन्तिम सिद्धि है और यही पुनरावृत्ति स्थान है । क्योंकि संसार का एक मात्र कारण मोह है, जिसके सब संस्कारों का निश्शेष नाश हो जाने के कारण उपाधिका संभव नहीं है । " यह कथा हुई पहले से चौदहवें गुणस्थान तक के बारह गुणस्थानों की; इसमें दूसरे और तीसरे गुणस्थान की कथा, जो छूट गई है, वह यों है - सम्यक्त्व किंवा तत्वज्ञानवाली ऊपर की चतुर्थी आदि भूमिकाओं के राजमार्ग से च्युत होकर जब कोई आत्मा तत्त्वज्ञान- शून्य किंवा मिथ्यादृष्टिवाली प्रथम भूमिका के उन्मार्ग की ओर झुकता है, तब बीच में उस अधःपतनोन्मुख श्रात्मा की जो कुछ अवस्था होती है वही दूसरा गुणस्थान है । यद्यपि इस गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा श्रात्म शुद्धि अवश्य कुछ अधिक होती है, इसलिए इसका नम्बर पहले के बाद रखा गया है, फिर भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ! १ 'योगसंन्यासतस्त्यागी, योगानप्यखिलस्त्यजेत् । इत्येयं निर्ग ुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ||७|| वस्तुतस्तु गुणैः पूर्णमनन्तैर्भासते स्वतः । रूपं व्यक्तात्मनः साधोर्निरभ्रस्य विधोरिव ||८|| ' Jain Education International For Private & Personal Use Only -ज्ञानसार, त्यागाष्टक | www.jainelibrary.org
SR No.229068
Book TitleShadashitika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size747 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy